भारतीय संस्कृति के अध्ययन के स्रोत | Bharteey Sanskriti Ke Srot

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भारतीय संस्कृति के अध्ययन के स्रोत : 

भारतीय संस्कृति के अध्ययन के स्रोत


किसी भी देश के समग्र अध्ययन हेतु उस देश से सम्बन्धित साक्ष्य स्रोत की आवश्यकता होती है। ये मूलतः दो प्रकार के होते हैं-

(1) साहित्यिक स्रोत,
(2) पुरातात्विक स्रोत
जहां तक भारतीय संस्कृति के अध्ययन का प्रश्न है। इसके भी कुछ महत्वपूर्ण स्रोत हैं। इन्हीं स्रोतों के आधार पर भारतीय संस्कृति को समझा जा सकता है। भारतीय संस्कृति की जानकारी के लिए जो महत्वपूर्ण स्त्रोत है। उनमें साहित्यिक स्रोतों का अपना विशेष महत्व है अर्थात भारतीय संस्कृति के साहित्यिक स्त्रोतों के आधार पर जाना एवं समझा जा सकता है। भारतीय संस्कृति को जानने हेतु निम्न महत्वपूर्ण स्रोतों के द्वारा वर्णन किया जा सकता है।

भारतीय संस्कृति के महत्वपूर्ण साहित्यिक स्त्रोत

(1) धार्मिक साहित्य-

भारत में प्रारंभ से ही धर्म को प्रधानता दी गई है। यहाँ की सभी. विशेषताएँ धर्म से अनुप्राणित है, यहाँ की समस्त अवस्थाएँ सामाजिक, नैतिक, राजनीतिक, आर्थिक आदि धर्म को ही केन्द्र-बिन्दु मानकर आगे बढ़ी र्थी। धर्म की विशद् एवं व्यापक परिभाषा के अन्तर्गत धर्म और जीवन अन्योन्याश्रित बन गए थे, उनके बीच की विभेद-रेखा तिरोहित हो गई थी। भारतीय के लिए धर्म जीवन का आदर्श बन गया था और जीवन धर्म का व्यवहार।

धर्म के इस सर्वव्यापी महत्त्व के कारण यह नितान्त स्वाभाविक था कि भारतवर्ष में विभिन्न धार्मिक ग्रन्थों की रचना होती। धर्म की व्यापक व्याख्या के अनुकूल इन धार्मिक ग्रन्थों ने न केवल धर्म वरन् जीवन के समस्त विषयों पर न्यूनाधिक मात्रा में विचार किया है। यही कारण है कि ये धार्मिक इतिहास के साथ-साथ राजनीतिक सामाजिक एवं सांस्कृतिक इतिहास के लिए भी अति महत्त्वपूर्ण हैं।

भारतवर्ष के धार्मिक साहित्य की एक अन्य विशेषता भी है। ब्राह्मण, बौद्ध, जैन आदि संप्रदायों ने अपने-अपने ग्रन्थों का अलग और स्वतन्त्र रूप में निर्माण किया था। अतः उनके धार्मिक और दार्शनिक सिद्धान्तों में बहुधा आधारभूत मतभेद हैं। परन्तु जहाँ तक उनके धर्मग्रन्थों में उपलब्ध सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक झाँकी का सम्बन्ध है वह प्रायः एक-सी है। यदि कहीं अन्तरं है भी तो एकमात्र दृष्टिकोण का। उदाहरणार्थ भारतीय वर्णव्यवस्था को लीजिए। ब्राह्मण, बौद्ध तथा जैन ग्रन्थों में समान रूप से चार वर्णों एवं अनेकानेक जातियों और उपजातियों के उल्लेख मिलते हैं। 
सभी में समानरूपा वस्तुस्थिति का चित्रण है। अन्तर एकमात्र यही है कि जहाँ ब्राहाण- अन्थ वर्ण-व्यवस्था को आवश्यक समझा कर उसे अक्षय रखने के लिए प्रयत्नशील हैं, वहाँ बौद्ध और जैन-ग्रन्थ उसे गर्हित एवं हानिकर समझ कर नष्ट करने का प्रयास करते हैं। ऐसी अवस्था में इन धर्मग्रन्थों का सापेक्ष महत्त्व है। किसी एक धर्म-ग्रन्थ में उल्लिखित बस्तु अप्रामाणिक हो सकती है, परन्तु जब उसकी पुष्टि अन्य स्वतंत्र धर्मग्रन्थों से होती है तो वह प्रमाणिक समझी जाती है।

(2) वेद- 


ग्रन्थों में सर्वप्रमुख स्थान वेदों का है। विश्व के प्राचीन इतिहास में इसका विशेष महत्त्व है। वेद का शाब्दिक अर्थ ज्ञान है। वस्तुतः आर्य ऋषियों का प्राचीनतम ज्ञान इन्हीं वेदों में संरक्षित है। उनका समस्त परबर्ती ज्ञान इन्हीं वेदों पर आधारित है। ज्ञान किसी एक जाति, काल अथवा देश से सम्बन्ध नहीं रखता। इसी से वेद सार्वभौम, अनन्त अपौरुषेय, शाश्वत और दैवीय कहे गए हैं। ये वेद चार हैं-ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद। 

(1) ऋग्वेद-चतुर्वेदों में ऋग्वेद प्राचीनतम है। ऋक् का अर्थ होता है छन्दों और चरणों से युक्त मन्त्रा ऐसा ज्ञान (वेद) जो ऋचाओं (ऋक् का बहुवचन) में बद्ध हो ऋग्वेद कहलाया। ऐसा प्रतीत होता है कि भारतवर्ष में प्रवेश करने के पूर्व ही आर्य ऋग्वेद की अनेक ऋचाओं की रचना कर चुके थे। भारतवर्ष में आने पर भी यह रचना जारी रही। शनेः-शनेः ऋचाओं की संख्या बढ़ती गई। परन्तु अभी तक वे अस्त-व्यस्त रूप में ही थीं। उनका संगठन न हुआ था। 'भारतवर्ष में अनार्यों के सम्पर्क आने से सम्पूर्ण परिस्थिति बदल गई। आनायर्यों की धार्मिक एवं सांस्कृतिक परम्पराएँ आर्यों से भिन्न थीं। अतः आर्यों को भय हुआ कि कहीं अनार्य सम्पर्क उनके धर्म और उनकी संस्कृति को विकृत न कर दे। इसी से उन्होंने अब अपनी समस्त ऋचाओं को संग्रहीत करके सुरक्षित कर दिया। इसी से ऋग्वेद ऋग्वेद-संहिता के नाम से भी प्रख्यात है। संहिता का अर्थ है- संग्रह अथवा संकलन। ऋग्वेद में 10 मण्डल हैं। इनमें कुल मिलाकर 1028 सूक्त हैं।

(2) सामवेद- साम का अर्थ होता है गान। अतः सामवेद ऐसा वेद है जिसमें मंत्र यज्ञों में देवताओं की स्तुति करते हुए गाये जाते थे। इस प्रकार यह बेद गान प्रधान है। इसमें कुल 75 मन्त्र मौलिक है। शेष सभी मन्त्र ऋग्वेद के हैं। परन्तु स्वर भेद के कारण ये ऋग्वेद के मन्त्रों से भित्र हो गये हैं। सामवेद को गाने की यह विशेष विधि थी। इसके लिए विशेषता की आवश्यकता थी। प्रचीन भारत में जो विशेषज्ञ सामवेद गाते थे उन्हें 'उद्गता' कहते थे।

(3) युजवेंद- यजुः का अर्थ है। यज्ञ। इस बेद में अनेक प्रकार की यज्ञ-विधियों का प्रतिपादन किया गया है। इसी से यह यजुर्वेद कहलाया। इसे अध्वर्युवेद भी कहते हैं। अध्वर्यु मी यज्ञ का पर्यायवाची है।

यजुर्वेद शाखाओं में विभक्त है- (1) काठक, (2) कपिष्ठल, (3) मैत्रायणी, (4) तैत्तरीय और (5) वाजसनेयी।

(4) अथर्ववेद- इस वेद का रचनाकार अथर्वा ऋषि को माना जाता है। इसी से इसें अथर्ववेद कहते हैं। इसमें कुल 40 अध्याय हैं। इसका वर्ण्य विषय भी विविध है। इसके अन्तर्गत ब्रह्मज्ञान, धर्म, समाज, निष्ठा, औषधि-प्रयोग, शत्रु-दमन, रोग निवारण, जन्त्र-मन्त्र, टोना टोटका आदि अनेक विषय अन्तर्निहित हैं।

(3) ब्राह्मण साहित्य- 

जैसे-जैसे समय व्यतीत होता गया वैसे ही वैसे समाज में यज्ञों एवं कर्म काण्डों की प्रतिष्ठा में वृद्धि होती गई। ये यज्ञ और और कर्मकाण्ड अत्यन्त जटिल हो गए। इनके विधान तथा इनकी क्रियाओं को समझाने के लिए एक नए साहित्य का प्रार्दुभाव हुआ जो ब्राह्मण साहित्य के नाम से जाना जाता है। ब्रह्म का अर्थ है यज्ञ। अतः यज्ञ के विषयों का प्रतिपादन करने बाले अन्थ 'ब्राह्मण' कहलाये। ये बेदों पर ही आधारित हैं। वैदिक मन्त्रों की व्याख्या करते हुए ही ये अपने यज्ञों को प्रतिपादित करते हैं। अधिकाशतः ब्राह्मण अंथ में लिखे मिलते हैं, परन्तु कहीं-कहीं पद्य भी मिलता है। याज्ञिक विधियों की अलग-अलग व्याख्या करने के कारण ब्राह्मण अनेक हैं। इस प्रकार प्रत्येक वेद के अपने-अपने ब्राह्मण हैं। यहाँ उदाहरण दे देना आवश्यक है-

(1) ऋग्वेद का ऐतरेय ब्राह्मण और कौषीतकि ब्राह्मण।
(2) यजुर्वेद का शथपथ ब्राह्मण। इसे वाजसनेय ब्राह्मण भी कहते हैं।
(3) सामवेद का पंचविंश ब्राह्मण। इसे ताण्डव ब्राह्मण भी कहते हैं।
(4) अथर्ववेद का गोपथ ब्राह्मण

(4) आरण्यक -

 ब्राह्मणों के बाद आरण्यकों का स्थान आता है। आरण्यक अरण्य (वन) से बना है। अर्थात् आरण्यक ऐसे ग्रन्थ हैं जो वन में पढ़ें जा सकें। निश्चित है कि आरण्यक ने कोरे यज्ञवाद के स्थान पर चिन्तनशील ज्ञान के पक्ष को अधिक महत्त्व दिया है। इस प्रकार आरण्यकों में उस ज्ञानमार्गी विचारधारा का बीजारोपण होता है जिसका विकास हम उपनिषदों में देखते हैं। इस दृष्टि से भी आरण्यक ब्राह्मणों और उपनिषदों के बीच में आते हैं।

वर्तमान में सात आरण्यक उपलब्ध हैं- (1) ऐतरेय आरण्यक, (2) शांखायन आरण्यक, (3) तैत्तरीय आरण्यक, (4) मैत्रायणी आरण्यक, (5) याध्यन्दिन वृहदारण्यक, (6) तलवकार आरण्यका

(5) उपनिषद्- 


'उप' का अर्थ है 'समीप' और 'निषद्' का अर्थ होता है 'बैठना'। इनसे कुछ विद्वानों ने यह आशय निकाला है कि जिस रहस्य-विद्या का ज्ञान गुरु के समीप बैठकर प्राप्त किया जाता है उसे उपनिषद् कहते थे। अन्य विद्वानों का मत है कि उपनिषद् का अर्थ उस विद्या से है जो मनुष्य को ब्रह्म के समीप बैठा देती है अथवा उसे आत्मज्ञान करा देती है।

(6) वेदांग - 


 इसके पश्चात वेदांग आते हैं ये 6 हैं-

(1) शिक्षा, (2) कल्प, (3) व्याकरण, (4) निरुक्त, (5) छन्द और (6) ज्योतिष। ये सब बेदों के अंग समझे जाते थे। इनके वेदों को समझना सरल हो गया था।

(1) शिक्षा- वैदिक स्वरों का विशुद्ध रूप में उच्चारण करने के लिए शिक्षा का निर्माण हुआ था। कालान्तर में प्रत्येक वेद की पृथक् पृथक् शिक्षा हो गई।

(ii) कल्प- कल्प का अर्थ है विधिक नियम। ऐसे सूत्र (कल्प) जिसमें विधि-नियम का प्रतिपादन किया गया है, कल्पसूत्र कहलाते हैं।
(iii) व्याकरण- इसमें नामों और धातुओं की रचना, उपसर्ग और प्रत्यय के प्रयोग, समासों और सन्धियों आदि के नियम बनाए गए। इनसे भाषा का सूत्र सुस्थिर हो गया। इस समय पाणिनि का सर्वविदित व्याकरण-ग्रन्थ अष्टाध्यायी मिलता है। परन्तु स्वयं पाणिनि ने ही अपने ग्रन्थ में व्याकरण के. 10 पूर्वाचार्यों का उल्लेख किया है। इससे प्रकट होता है कि पाणिनि के पूर्व भी कुछ व्याकरण-अन्ध थे।

पाणिनि की अष्टाध्यायी में 18 अध्याय हैं। इन सब अध्यायों में समस्त सूत्रों की संख्या 3863 हैं जो महाभाष्य नाम से प्रख्यात हैं। इस प्रकार संस्कृत व्याकरण के क्षेत्र में पाणिनि, कात्यायन और पतंजलि का प्रमुख स्थान हैं।

(iv) निरुक्त शास्त्र- जो शास्त्र यह बताता है कि अमुक-शब्द का अमुक अर्थ क्यों होता है उसे निरुक्त शास्त्र कहते हैं। यास्क ने निरुक्त की रचना की थी। इसमें वैदिक शब्दों की निरुक्ति बताई गई है। 

(v) छन्द शास्त्र- वैदिक साहित्य में गायत्री, त्रिष्टुप, जगती, वृहती आदि छन्दों का प्रयोग मिलता है। इससे प्रतीत होता है कि वैदिक काल में भी कोई छन्द शास्त्र रहा होगा। परन्तु आज यह प्राप्य नहीं है। आज तो आचार्य पिंगल द्वारा रचित प्राचीन छन्द शास्व ही प्राप्त होता है।
(vi) ज्योतिष शास्त्र- इस शास्त्र के प्राचीन आचार्यों ने लगध मुनि का नाम प्रमुख है। इनके अतिरिक्त नारद संहिता ज्योतिष के 18 आचार्यों का उल्लेख करती है। इनके नाम में ब्रह्मा, सूर्य, वशिष्ठ, अग्नि, मनु, सोम, लोमश, मरीचि, अंगिरा, व्यास, नारद, शौनक, भृगु, च्वयन, गर्ग, कश्यप, और पराशर। कालान्तर में आर्यभट्ट, लल, वराह-मिहिर, ब्रह्मगुप्त, मुंजाल और भास्कराचार्य ने ज्योतिष शास्त्र की विशेष उन्नति की।

 (7) स्मृतिशास्त्र-


सूत्र साहित्य के पश्चात् भारतवर्ष में स्मृतिशास्त्र का उदय हुआ। सूत्रों की भाँति स्मृतियाँ भी मनुष्य के सम्पूर्ण जीवन के विविध कार्य-कलापों के विषय में अगणित विधि निषेधों का प्रतिपादन करती हैं। प्रारम्भिक स्मृतियों में मनुस्मृति और याज्ञवल्क्य स्मृति प्रमुख हैं।

(8) महाकाव्य-


भारतवर्ष के दो प्राचीन महाकाव्य हैं-प्रथम रामायण और द्वितीय महाभारत। 
(१) पुराण-'पुराण' का शाब्दिक अर्थ 'प्राचीन' है। अतः पुराण साहित्य के अन्तर्गत वह सभी प्राचीन साहित्य आ जाता है जिसमें प्राचीन भारत के धर्म, इतिहास, आख्यान, विज्ञान आदि का वर्णन हो। वस्तुतः पुराणों की संख्या 18 है-

(1) ब्रह्मपुराण, (2) पद्मपुराण, (3) विष्णु पुराण, (4) शिव पुराण, (5) भागवत् पुराण, (6) नारदीय पुराण, (7) मार्कण्डेय पुराण, (8) अग्नि पुराण, (9) भविष्य पुराण, (10) ब्रह्मवैवर्त पुराण, (11) लिंगपुराण, (12) बराहपुराण, (13) स्कन्द पुराण, (14) वामन पुराण, (15) कूर्मपुराण, (16) मत्स्य पुराण, (17) गरुड़ पुराण और (18) ब्रह्माण्ड पुराण।

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