हमारे त्योहार दूषित हो रहे हैं | Hmare Tyohar Dooshit Ho Rhe Hain

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 वैसे तो कोई भी त्योहार हम सभी अपने ढंग से मनाते हैं और यह क्षेत्र दर क्षेत्र व अन्य विचारधाराओं के अनुसार अलग-अलग पैमाने पर अलग-अलग तरीके से मनाया जाता है। किन्तु क्या हम त्योहार सही मना रहे हैं या नहीं यह विचार का विषय है? 


होली 2024 के दहन वाली रात में मेरे मन में त्योहारों के उद्भव व उनकी तात्कालिक स्थितियों के बीच मूलभूत अंतर को लेकर एक विचार जन्मा और उसे मैं अपने Whatsapp के Status के कुछ शब्दों में जगह दी। विचार था कि- "त्योहारों का उद्देश्य बुराई का समापन और अच्छाई की स्थापना , प्रकृति बचाव, आध्यात्म, आत्मज्ञान, दैनिक जिंदगी से बेहतरी की ओर जाना ... आदि  'था'। ☹️

किन्तु आज हम त्योहारों पर प्रकृति को और स्वयं को बेहतर बनाने या Positive दिशा में मोड़ने की बजाय बद्तर बनाते जा रहे हैं। 😡

 हमें त्योहारों के वास्तविक स्वरूप की ओर लौटना चाहिए 🙏🏻"

हमारे त्योहार दूषित हो रहे हैं!


मेरे कुछ शब्दों के इस विचार की अभिव्यक्ति के बाद ही प्रतिक्रियाकर्ताओं की ओर से Whatsapp का Inbox भर गया और अमूमन ऐसे विचारों पर सभी सकारात्मक प्रतिक्रिया ही देते हैं। 


ये तो हुआ एक घटनाक्रम किंतु प्रमुख बात यह है कि आज हमारा त्यौहार पवित्र बचा हुआ है या दूषित हो गया है दूषित किसी अन्य ने नहीं हमने स्वयं ही किया है। दूषित करने का अर्थ जल में अवशिष्ट डालकर दूषित करने जैसा नहीं है बल्कि त्योहारों के वास्तविक अर्थ व स्वरूप को बदलकर हमने आज उसे बेढंगा कर लिया है और ऐसा स्वरूप न केवल हमें हमारे समाज व धर्म को बल्कि समूची प्रकृति व पृथ्वी को संकट के मुहाने की ओर ले जा रहा है। 

और जिस त्योहार में हम नकारात्मक परिवर्तन न कर सके उसका अस्तित्व ही आज समाप्ति के कगार पर है।


अलग-अलग धर्म के अलग-अलग त्योहार अलग-अलग उद्देश्य व अलग-अलग संदेश देने के लिए बनाए गए थे, किंतु आज यह त्योहार अपनी प्रासंगिकता खो दिए हैं और यह मात्र मनोरंजन के दिन के रूप में या अन्य धर्म-सम्प्रदाय से ईर्ष्या-वैमनस्य के रूप में शेष है।

 हां मनोरंजन भी बुरा नहीं है किंतु ऐसा मनोरंजन जो हमारा पतन करें...हमें तो मंजूर नहीं है! 


उदाहरण में अभी हाल ही में बीते होली के त्योहार का देना चाहूंगा होली के त्योहार के उद्भव की एक-दो व्याख्याएं जो हमने सुनी है उनमें से एक आध्यात्मिक व्याख्या है और एक लौकिक व्याख्या है–


1. आध्यात्मिक व्यख्या - 


ऐसा हमने अपनी पिछली पीढ़ी द्वारा पुस्तकों या मौखिक रूप से सुना है कि हिरण्यकश्यप नामक एक राक्षस प्रवृत्ति का राजा था जिसने तप करके भगवान से ऐसा वरदान प्राप्त कर लिया था जिससे कि वह आस्वस्त था कि वह अमर हो चुका है। वह ना दिन में ना रात में, ना मनुष्य से ना जानवर, से ना जल में ना थल में, ना अस्त्र से न शस्त्र से, ना घर के अंदर ना घर के बाहर मारा जा सकता था। 


वरदान पाकर उसने समस्त अनैतिक व पाप कर्मों को करना प्रारंभ कर दिया और अपने राज्य में अपनी पूजा करने का आदेश दिया था। 

किंतु उसका पुत्र प्रहलाद भगवान का अनन्य भक्त था और उसने ऐसा करने से मना कर दिया और पिता की अनीति और अत्याचार के विरुद्ध भगवान नारायण की उपासना व आराधना करता था। 

दुराचारी राजा ने उसे मरवाने के अनेकानेक प्रयास किया किंतु सारे प्रयास असफल रहे उनमें से ही एक प्रयास उसने अपनी बहन होलिका के माध्यम से किया था। हिरण्यकश्यप की बहन होलिका के पास एक ऐसा दिव्य वस्त्र था जिसे ओढ़ लेने के बाद आग उसे जला नहीं सकती थी। ऐसा तय हुआ की होलिका अपने भतीजे भक्त प्रहलाद को लेकर आग में प्रवेश करेगी इससे प्रहलाद जल जाएगा और होलिका बच जाएगी। 

ईश्वर की महिमा ऐसी की ठीक उसी समय आंधी आई और उसका दिव्य वस्त्र उड़कर प्रहलाद को लिपट गया होलिका जल गई और प्रहलाद बच गया। 

ऐसा भी कहा जाता है कि यह घटना फाल्गुन मास की पूर्णिमा की तिथि को हुई थी अतः तब से हम इस होली के उत्सव के रूप में मानने लगे। 


2. लौकिक व्याख्या - 


एक अन्य व्याख्या की बात करें तो यह त्यौहार एक ऐसे समय में मनाया जाता है जब हम एक संकटकालीन शीत ऋतु को पार कर चुके होते हैं। संकटकालीन शब्द का प्रयोग मैं इसलिए कर रहा हूँ क्योंकि उस समय आज जितने संसाधन नहीं होते थे जब इस त्योहार का उद्भव हुआ था। 

यह शीत ऋतु न केवल मानव जाति बल्कि समूची सृष्टि पेड़ पौधे, पशु पक्षियों व अन्य जीवों के Survival के लिए संकट का दौर होता है और ऐसे संकटकालीन समय के चले जाने की खुशी को हम एक त्यौहार के रूप में मनाते हैं। क्योंकि फाल्गुन आते आते ऋतुराज वसंत के समापन का समय होता है जोकि जीवों और वनस्पतियों के विकास का समय माना जाता है। 

इसके अलावा हम शीत ऋतु के प्रारंभ में ही जो रबी की फसल बोये रहते हैं वह इस फाल्गुन मास के आते-आते लगभग पककर तैयार हो गई होती है और इसी की फसल के तैयार होने की खुशी कृषि मूलक समाज एक त्योहार के रूप में मनाया करता था। 


इन दोनों व्याख्याओं को यदि देखें तो हो सकता है एक गलत हो एक सही हो, एक काल्पनिक हो दूसरी वास्तविक हो मेरी समझ में तो यह दोनों धारणाएं एक दूसरे के पूरक हैं। हो सकता है यह लौकिक व्याख्या ही या अन्य कोई व्याख्या सही हो किंतु इसे बाध्यकारी करने और इसे श्रद्धा भाव से निरंतर मनाने के लिए ही पौराणिक कथा का सहारा लेना पड़ा। 


किंतु यदि इस पौराणिक कथा के असल मायने देखें तो यह कहानी यह बताना चाहती है कि 

◆ हमें भक्त प्रहलाद से सीख लेना चाहिए कि असत्य कितना भी शक्तिशाली हो और हम कितने भी छोटे हों फिर भी हमें सत्य को ही अपनाना चाहिए। 

◆ यह कहानी अनजाने रूप में हमारे अंदर साहस का भी संचार करना चाहती है।

◆ इस दिन हमें अपने अंदर की होलिका रूपी बुराइयों को जला देना चाहिए और अपने भीतर सात्विकता लाने का प्रयास करना चाहिए और प्रहलाद के गुण अपने अंदर समाहित करने चाहिए। 

◆ हमें सत्य, न्याय, ईमानदारी की स्थापना के लिए हमें सारी दुनिया यहां तक की पिता से भी लड़ जाना चाहिए किंतु ध्यान रहे कि हम स्वार्थ से परे हों। 

◆ यह कहानी यह भी कहती है कि परिवार कुछ कहता हो, समाज कुछ कहता हो, प्रकृति कुछ कहती हो, परिस्थितियों कुछ कहती हो, सत्ता कुछ भी रहती हो हमें करना वही चाहिए जो सही है जो सत्य है। 

◆ और दूसरी ओर यह कहानी हमें यह भी बताती है कि व्यक्ति कितनी भी शक्तियां कैसे भी प्राप्त कर ले अगर वह उन शक्तियों को अपने अहंकार के स्वरूप में बदल लेता है और उसका प्रयोग अनीति, अन्याय, अत्याचार, असत्य और भोग आदि के लिए करता है तो वह शक्तियां ही परम सत्ता का आह्वान करती है और अंत ऐसा होता है की पीढ़ियां याद करती है! 


यह त्योहार इन्हीं मूल्यों की स्थापना व विकास के लिए ही बनाया गया है की नकारात्मक शक्ति कितनी भी प्रबल हो वह सरलता और सहजता से सत्य अपने वाले से पराजित हो जाती है। और ऐसी विचारधारा, ऐसे उद्देश्यों, मूल्यों को समेटे हुए ही सभी त्योहार उद्भूत होते हैं और ये त्योहार प्रतिवर्ष आकर उसकी याद दिलाने का प्रयास करते हैं और हमें असत् से सत् मार्ग की ओर मोड़ने का प्रयास करते हैं। 


किंतु आज विचार का विषय यह है कि क्या हम त्योहार इसी उद्देश्य से मनाते हैं? अधिकांशतः उत्तर 'नहीं' ही होगा। 

क्योंकि आज के हम इसी होली त्योहार की ही स्वरूप की बात करें तो इसका स्वरूप रंगों-कीचड़ आदि के साथ हुड़दंग मचाना जो कि कभी-कभी मर्यादा की सीमा भी लांघ जाए, शोर शराबे युक्त बाजे के साथ त्योहार मनाना और तो और शराब मांस आदि नशे के सेवन आदि के रूप में हो गया है। इन सभी वजह से हमारे भीतर अमानवीय अनैतिक विचार और क्रियाकलाप उत्पन्न होते हैं और यह किसी भी सीमा तक जा सकता है लेकिन यह सत्य है कि यह नकारात्मक ही होगा। 

"शराब मांस आदि का सेवन करना चाहिए या नहीं" यह इस लेख का विषय नहीं है किंतु यह सर्वविदित है कि शराब मांस आदि गलत ही है। इसके सेवन के दुष्प्रभाव केवल उसी व्यक्ति तक ही सीमित नहीं है जो इसका सेवन करता है बल्कि समूचे समाज व प्रकृति को इसका हर्जाना भुगतना पड़ रहा है। 

बेचारी उन बेजुबानों का क्या दोष था जिनकी हत्या करवा कर आप अपना पेट भर रहे हैं, क्यों आम दिनों की अपेक्षा त्योहार पर 10 गुना मांस का उत्पादन अर्थात जीवों की हत्याएं होती हैं जो की प्राकृतिक असंतुलन का एक कारक बनता है। क्यों प्रतिदिन शराब न पीने वाला उस दिन शराब या अन्य नशे को बड़े ही धूमधाम से पीता है? यह सभी हमारे पतन के कारण हैं!


तो इस छोटे से शराब व मांस के विषय का निष्कर्ष यह मान सकते हैं कि इसका सेवन नहीं करना चाहिए... कदापि नहीं करना चाहिए।


किंतु आज यह दैनिक जीवन की बात तो दूर यह त्योहार जैसे पवित्र धार्मिक दिन में भी यह सब आम हो गया है और हमारे यही क्रियाकलाप हमारे ऐसे त्योहारों को दूषित कर रहे हैं क्योंकि उपर्युक्त दोनों व्याख्याओं में ऐसी कोई बात नहीं कही गई है कि हम त्यौहार के दिन आधिकारिक उपभोग (Consumption) करें बुरे खान-पान करें, बुरे काम करें, बुरे अचार विचार रखें और बुरा बर्ताव करें।


अमूमन देखा जाता है जो व्यक्ति दैनिक जीवन में सदाचार सात्विकता का जीवन जीता है वह भी ऐसे त्योहारों पर ऐसे गंदे खानपान करता है। वह जो दैनिक जीवन में शाकाहारी है शराब वह मांस का सेवन करता है। और व्यक्ति अगर सात्विक आहारी है तो त्योहार पर राजसिक व तामसिक भोग करता है। 

ऐसा कहीं नहीं कहा गया है जैसा आज हम त्योहार मनाते हैं। यह बाद के समय मे बुराईयों का शिकार होता गया है। 


अब आप यह भी कह सकते हैं कि माना हुल्लड़बाजी, प्रदूषण, मांस मदिरा भक्षण और नशा आदि का इस त्योहार से नाता नहीं है तो रंग-गुलाल, गीत-गायन, मेल-मिलाप यह भी तो इन व्याख्याओं में नहीं वर्णित था। जोकि बाद के समय में होली के त्योहार का एक तत्व बन गया। 


तो हमें यह बात ध्यान रखना चाहिए कि हमारा समाज बुराइयों के गिरफ्त में आता रहता है और जो कि बदलते वातावरण का एक सामान्य प्रतिबिंब है। इससे समाज में तरह-तरह की बुराइयां, आपसी द्वेष, वैमनस्य, ईर्ष्या, प्रत्यास्पर्धा, ऊंच-नीच भेदभाव, छुआछूत आदि समाहित हो जाते हैं। और ये सभी बुराइयां समाज की उन्नति का बाधक बनती हैं और यह वह मनुष्य और आपसी दूरियां इतनी भी बढ़ जाती हैं और सामाजिक बंटवारा इस स्तर का हो जाता है कि बाद हिंसा तक पहुंच जाती है। 


संभव है कि इन्हीं बुराइयों को दूर करने और समाज को सही सकारात्मक दिशा देने व उन्नति के उद्देश्य से ही पिछली पीढ़ियों के प्रबुद्ध जनों ने त्योहारों में ही कुछ-कुछ तत्व जोड़ने गए जो की अनादिकाल तक प्रसांगिक हैं और सकारात्मक हैं इन्हें हम आगे 'क्षेपक' शब्द से संबोधित करेंगे। 


होली के 1 माह पहले से ही होलिका दहन हेतु सामग्रियां (लकड़ी आदि) इकट्ठा करना प्रारंभ हो जाता था और इसी एक माह में समाज के उत्साही लोग 'फगुआ गीत' आदि का गायन वादन करते थे। इन गीतों में भी कुछ ना कुछ संदेश, कहानी, आराधना या कभी-कभी मनोरंजन भी समाहित होता था। और इस गायन वादन से लोक कला को जीवंत रखा जाता था तथा आपस में बैठकर गाने बजाने से जहां एक ओर मनोरंजन होता था वहीं दूसरी ओर उपर्युक्त उद्देश्य (आपसी भेदभाव का समापन और समाज में सौहार्द्र व प्रेम का संचार) की प्राप्ति भी होती थी। 


किंतु अगर आज का परिदृश्य देखें तो यह परंपरा विलुप्त हो गई है अथवा विलुप्ति की कगार पर है और इसका स्थान अत्यधिक शोर वाले बाजे (D.J.) ने ले लिया है जिससे इस मात्रा में प्रदूषण होता है कि अनेकानेक प्राकृतिक जीव जंतु छोटे बड़े पक्षी, कीट पतंगे विलुप्त हो रहे हैं और मानव प्रजाति के लिए भी यह निर्विवाद रूप से हानिकारक है। 


इन D.J. वाले गानों में वह इसमें नाचते समय होने वाली अभद्रता व अश्लीलता भी किसी से छिपी नहीं है जो कि समाज के नैतिक पतन हेतु एक जिम्मेदार कारक है और यह अनुचित है। 


इसके अलावा अगर हम एक अन्य क्षेपक की बात करें कि होली में रंग गुलाल व मेल मिलाप कैसे आ गया और कहां तक सही है?


उपर्युक्त व्यक्त उद्देश्य सामाजिक सौहार्द व प्रेम के ही उद्देश्य से हमने होली के दिन रंग गुलाल का प्रयोग करना प्रारंभ किया जो कि सकारात्मक पहल थी। 

 हम रंग गुलाल के साथ ही समाज में मोहल्ले में जाकर बिना भेदभाव के एक दूसरे से मिलते और उसे गले लगाते हैं और बड़ों से आशीर्वाद लेकर नैतिकता और विनम्रता आदि गुणों को विकसित करते हैं यह करने से समाज में समरसता व समानता की भावना का संचार होता था और आपसी वैमनस्य को बुलाकर हम आगामी दिनों को सामंजस्य व प्रेम से बिताने लगते थे। 


किंतु धीरे-धीरे यह परंपरा भी विकलांग होती गई। समाज में ऊंच-नीच, जाति श्रेष्ठता, आर्थिक बड़प्पन, राजनीतिक द्वैष की भावना प्रबल होती गई और लोग एक दूसरे से मिलना कम और बंद करने लगे। और इसके साथ ही जो बची हुई परंपरा भी विद्यमान है उसमें अभद्रता, अश्लीलता, अनैतिकता और लोगों की अरुचि घुलने लगी है। 


शराब, भांग आदि नशे युक्त पदार्थ का सेवन करके या बिना करे भी हम (खासकर पुरुष वर्ग) इतने अभद्र हो जाते हैं कि हम महिलाओं की अवहेलना करने लगते हैं और उन्हें समानता के ढर्रे पर भी निचा करने लगते हैं। इतना ही नहीं इस त्योहार, समाज और समूची सृष्टि में महिलाओं का भी पुरुषों जितना ही अधिकार है किंतु हम उनके अधिकारों को उनके मनोरंजन को, उनके विचारों व उनकी स्वतंत्रता को अपने दंभ में कुचल देते हैं। 


इसके अलावा त्योहारों पर हमें अपनी प्रकृति और अपनी पृथ्वी के संरक्षण और परिवर्धन पर ध्यान देना चाहिए किंतु आज के समय में हम त्योहारों पर अन्य दिनों से ज्यादा प्रकृति का दोहन, तरह तरह के प्रदूषण व प्राकृतिक सामग्रियों का दुरुपयोग करने लग जाते हैं। यहां मैं जानबूझकर होली पर होने वाले जल दुरुपयोग और हरे पेड़ों को काटकर होलिका के रूप में जलाने को शामिल करना चाहता हूं। 

हां होलिका दहन में सूखे व मृत पेड़ों का उपयोग किया जा सकता है और पानी युक्त रंगों के बजाय सूखे गुलाल का प्रयोग करना बेहतर होगा। यहां हमारे पास विकल्प मौजूद है अतः हमें पानी के दुरुपयोग और हरे पेड़-पौधे काटने के नाम पर इस परंपरा को बंद नहीं करना है। 


इन सभी विकृतियों से न केवल सामाजिक समरसता, बंधुत्व, सौहार्द, प्रेम, सामंजस्य व मानवता आदि स्थापित करने का उद्देश्य अधूरा छूट रहा है बल्कि इन त्योहारों की प्रासंगिकता भी खत्म हो रही है। हम अपने दैनिक जीवन में जैसे जिंदगी जीते रहते हैं त्योहार पर हम उससे भी खराब जिंदगी जीना पसंद करते हैं। 

हम आपसी द्वेष को भूलने को तैयार नहीं है और अपने भीतर व समाज की बुराइयों को मिटाने के लिए प्रयास नहीं कर रहे हैं। जबकि सभी त्योहार हमें उससे संबंधित सात्विक मूल्यों की याद दिलाते हैं और हमें अपने अंदर की बुराइयों को देखने और मिटाने तथा अनेकानेक अच्छाइयों को खुद में समाहित करने हेतु प्रेरित करते हैं। 


ऐसा करने से ही हम त्योहारों के पावन दिनों को अन्य दिनों से बेहतर और आगे चलकर हम अपनी पूरी जिंदगी को बेहतर बना सकते हैं। और अगर हम ध्यान दें तो ऐसा करने से त्योहारों का उद्देश्य भी पूरा हो रहा है अर्थात अगर हम केवल अपने त्योहारों के वास्तविक रूपों को पुनः प्राप्त करने का प्रयास करें और उन्हें बनाए रखें तो यह पूरे समाज, मानव जाति, व अन्य जीव जंतुओं के लिए और अंततः पूरी प्रकृति के लिए कल्याणकारी होगा।

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