इल्तुतमिश | Iltutamish | गुलाम वंश | इल्तुतमिश की उपलब्धियां | Iltutamish kaun tha ?

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 इल्तुतमिश का प्रारम्भिक जीवन


इल्तुतमिश इल्बरी तुर्क सरदार आलम खाँ का पुत्र था। वह अत्यन्त कुशाग्र बुद्धि का था। उसका पिता उससे अत्यन्त स्नेह रखता था। इससे उसके अन्य भाई ईर्ष्या करने लगे और उन्होंने एक दिन चोरी से उसे एक घोड़ों के व्यापारी के हाथ बेच दिया। फिर उसे बुखारा के सद्रेजहां के एक सम्बन्धी के हाथ बेच दिया गया। तत्पश्चात् एक अन्य व्यापारी जमामुद्दीन मुहम्मद चुस्तक़बा ने उसे खरीदकर गजनी ले आया।

 इल्तुतमिश ने कुछ समय बगदाद में भी व्यतीत किया, जहाँ वह सूफी संतों के सम्पर्क में आया और वह उनके विचारों से प्रभावित हुआ। गजनी के दासों के बाजार में सुल्तान मुईजुद्दीन मुहम्मद गोरी की नजर इल्तुतमिश पर पड़ी। व्यापारी से मूल्य पर मतभेद के कारण सुल्तान ने गजनी के बाजार में उसके क्रय-विक्रय पर प्रतिबंध लगा दिया।

 बाद में जब कुतुबुद्दीन ऐबक ने उसे खरीदने की इच्छा व्यक्त की तो मुहम्मद गोरी ने इल्तुतमिश को दिल्ली लाकर बेचने का आदेश दिया। इल्तुतमिश को दिल्ली लाया गया जहाँ ऐबक ने उसे अपने दास के रूप में खरीदा।


इल्तुतमिश


♦️दिल्ली में इल्तुतमिश ऐबक का विश्वासपात्र बन गया। उसकी योग्यता से प्रभावित होकर ऐबक ने 'सरजानदार' (शाही अंगरक्षकों का सरदार) तथा 'अमीरे शिकार' का महत्त्वपूर्ण प्रशासनिक पद प्रदान किया। 

♦️ कुतुबुद्दीन ऐबक ने उसे बदायूँ की 'इक्ता' प्रदान की, रैवर्टी के अनुसार जो उस समय दिल्ली साम्राज्य में सबसे उच्च थी। 1205-6 ई० में खोखरों के विरुद्ध युद्ध करते समय उसने ऐसे शौर्य एवं साहस का परिचय दिया कि मुहम्मद गोरी ने उसकी बहुत प्रशंसा की और ऐबक को यह आदेश दिया कि वह उसे दासता से मुक्त कर दे। कुतुबुद्दीन ऐबक के शासन काल में इल्तुतमिश बदायूं का राज्यपाल नियुक्त हुआ ऐबक ने अपनी एक पुत्री का विवाह भी उसके साथ कर दिया।


सिंहासनारोहण 


♦️ कुतुबुद्दीन ऐबक की 1210 ई० में अकस्मात मृत्यु के बाद लाहौर के तुर्क अमीरों ने आरामशाह को सिंहासन पर विठाया, किन्तु वह अक्षम और भोग-विलासी था। अतः सत्ता संभालते ही देश की विभिन्न हिस्सों में विद्रोह प्रारम्भ हो गये। कुबाचा ने मुल्तान एवं सिंध में अपने को स्वतन्त्र सुल्तान घोषित कर दिया, तो बंगाल में अली मर्दान स्वतंत्र शासक बन बैठा। 

♦️दिल्ली के तुर्क सरदारों के प्रमुख, सिपहसालार (सेनापति) अमीर अली इस्माइल ने बदायूं के राज्यपाल इल्तुतमिश को दिल्ली आकर 'सिंहासन' ग्रहण करने के लिए आमंत्रित किया। तत्पश्चात् इल्तुतमिश दिल्ली रवाना हुआ, जहाँ रास्ते में उसका संघर्ष आरामशाह से हुआ किन्तु युद्ध में आरामशाह बंदी बना लिया गया और उसकी बाद में हत्या कर दी गयी। 

♦️इल्तुतमिश निर्विरोध दिल्ली का सुल्तान बना और इस प्रकार इलबरी तुर्की का राज्य स्थापित हुआ। शम्सुद्दीन इल्तुतमिश ही प्रथम इलबारी तुर्क शासक था। सुल्तान के रूप में इल्तुतमिश के कार्य एवं उपलब्धियाँ


इल्तुतमिश के सिंहासन पर बैठने में कठिनाइयाँ -


♦️ राज्यारोहण के पश्चात् इल्तुतमिश को जबर्दस्त आंतरिक एवं बाहय समस्याओं का सामना करना पड़ा। इल्तुतमिश के तीन मुख्य प्रतिद्वन्द्वी थे गज़नी मं यल्हौज, मुल्तान में कुबाचा और बंगाल (लखनौती) में अली मर्दान, जिन्हें या तो स्वीकार करना था अथवा जिन्हें नष्ट करना था।

♦️ राजपूत स्वतन्त्रता के लिए निरन्तर प्रयास कर रहे थे। कालिंजर और ग्वालियर पहले ही स्वतन्त्र हो चुके थे, जालौर और रणथम्भौर के राजपूत शासकों ने स्वतन्त्रता की घोषणा कर दी थी। मंगोल-आक्रमण का भी खतरा था। तुर्क अमीरों का एक वर्ग (मुइज्जी और कुत्बी) भी इल्तुतमिश के विरोध में थे। 

♦️ खलीफा से भी मंसूर नहीं मिला था। प्रशासनिक व्यवस्था नष्ट हो चुकी थी। संक्षेप में नव-स्थापित तुर्की सल्तनत विनाश के कगार पर खड़ा था। इसकी सुरक्षा एक दृढ़ निश्चयी और कुशाग्र बुद्धि वाला व्यक्ति ही कर सकता था। सौभाग्य से इल्तुतमिश में ये सभी गुण विद्यमान थे, जिसके कारण वह नष्टप्राय तुर्की सल्तनत का जीर्णोद्धार करके उसकी नींव को सुदृढ़ करने में सफल हो गया। इसी कारण अनेक विद्वान तुर्की सल्तनत का वास्तविक संस्थापक इल्तुतमिश को मानते है।


कठिनाइयों को दूर करने हेतु किये गये प्रयास


अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से इल्तुतमिश के (1210-36 ई०) के शासनकाल को तीन भागों में बाँटा जा सकता है-


(1) प्रथमकाल (1210-20); इस अवधि में वह मुख्यतः अपने विरोधियों का दमन करने में व्यस्त रहा।

(2) द्वितीय काल (1221-27); इस अवधि में उसने मंगोल आक्रमण से उत्पन्न खतरे से दिल्ली को बचाया।

(3) तृतीय काल (1228-36); इस अवधि में वह अपनी व्यक्तिगत और वंशीय सत्ता के संगठन हेतु कार्य करता रहा।


प्रथम काल (1210-20)


♦️ (1) ताजुद्दीन यल्हौज का अन्त सुल्तान बनने के साथ ही इल्तुतमिश को अपने प्रतिद्वन्द्रियों से मुकाबला करना पड़ा। गजनी के शासक यल्हौज को जब ख्वारिज्म शाह ने गजनी से भगा दिया, तब यल्हौज लाहौर पहुँचा और उसने नासिरुद्दीन कुबाचा को वहाँ से खदेड़कर लाहौर पर अधिकार कर लिया। फरिश्ता के अनुसार यल्यूज पंजाब से थानेश्वर तक अपना अधिकार करने में सफल हो गया। यह स्थिति इल्तुतमिश के लिए घातक थी।

 ♦️ अतः इल्तुतमिश यल्दौज की शक्ति को रोकने के लिए दिल्ली से आगे बढ़ा, जहाँ तराईन के मैदान में दोनों के बीच (1215-16 ई०) में तराईन का तृतीय युद्ध हुआ, जिसमें यल्यूज पराजित हुआ। उसे गिरफ्तार कर बदायूं लाया गया और वहाँ उसका बध कर दिया गया।


♦️ इस प्रकार इल्तुतमिश के प्रबल प्रतिद्वन्द्वी का अन्त हो गया। इल्तुतमिश के लिए यह दोहरी विजय थी। उसकी सत्ता को ललकारने वाले सबसे भयंकर शत्रु का विनाश और गजनी से अन्तिम रूप से सम्बन्ध विच्छेद, जिसके फलस्वरूप दिल्ली का स्वतन्त्र अस्तित्व निश्चित हो गया।


♦️ (2) नासिरुद्दीन कुबाचा के विरुद्ध अभियान इल्तुतमिश का दूसरा मुख्य प्रतिद्वन्द्वी मुल्तान और उच्छ का शासक कुबाचा था। यल्दौज की मृत्यु का लाभ उठाकर कुबाचा ने लाहौर पर अपना पुनः नियंत्रण स्थापित कर लिया। तब इल्तुतमिश ने 1217 ई० में कुबाचा के विरुद्ध अभियान किया और लाहौर पर आक्रमण कर दिया। कुबाचा भाग खड़ा हुआ। इल्तुतमिश ने लाहौर पर अधिकार कर अपने पुत्र नासिरुद्दीन महमूद को शासक नियुक्त किया। इसी बीच मंगोल आक्रमणकारी जलालु‌द्दीन मंगबरनी के दिल्ली पर आक्रमण के संभावित खतरे को देखते हुए इल्तुतिमश कुवाचा की ओर ध्यान नहीं दे सका। 


द्वितीय काल (1221-27)


♦️ मंगोल चंगेज खाँ और मंगबरनी इल्तुतमिश जब कुबाचा के विरुद्ध अभियान में लगा था, तभी उसे मंगोल आक्रमण का खतरा उठाना पड़ा। मंगोल चंगेज खाँ ने मध्य-एशिया पर अपना अधिकार कर लिया। ख्वारिज्मशाह को भी चंगेज खाँ का प्रकोप झेलना पड़ा और ख्वारिज्म पर चंगोल खाँ ने अधिकार कर लिया। ख्वारिज्मशाह का बड़ा पुत्र मंगबरनी चंगेजखाँ के चंगुल से भागकर सिन्धुघाटी पहुँचा, किन्तु उसका पीछा करते हुए चंगेल खाँ भी सिन्धुघाटी तक आ गया।

♦️ चंगेज खाँ ने इल्तुतमिश के पास अपने दूत इस, संदेश के साथ भेजा कि वह मंगबरनी की कोई सहायता नहीं करे। अतः, जब मंगबरनी ने अपने दूत आइनुलमुल्क को भेजकर अपनी सहायता की प्रार्थना की तो इल्तुतमिश ने कूटनीति का परिचय देते हुए कहा कि "उसके प्रदेश में उसके समान शासक के अनुकूल जलवायु वाला कोई स्थान नहीं है, खेद प्रकट किया।" और आइनुलमुल्क की हत्या करवा दी और मंगबरनी को वापस जाने को कहा।

 नाराज मंगबरनी ने खोखरों से वैवाहिक सम्बन्ध बना लिये और पंजाब, सिंध में अपनी शक्ति का विस्तार करने लगा। बाध्य होकर इल्तुतमिश स्वयं अपनी सेना के साथ मंगबरनी के विरुद्ध अभियान पर चल पड़ा। किन्तु मंगबरनी उससे बचकर भारतवर्ष से वापस चला गया। (1224 ई०) चंगेज खाँ जब तक जीवित रहा (मृत्यु 1227 ई०), इल्तुतमिश के सिंधुघाटी में अपनी सत्ता प्रसार का कोई प्रयत्न नहीं किया। उसकी इस नीति से स्पष्ट था कि वह चंगेज खाँ को नाराज नहीं करना चाहता था। इस प्रकार इल्तुतमिश की साझीदारी से नवस्थापित तुर्की राज्य मंगोल आक्रमण से बच गया।


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तृतीय काल (1228-36)


♦️ (1) बंगाल और बिहार के विरुद्ध अभियान ऐबक के समर्थन से बंगाल में अली मर्दान ने अपनी सत्ता स्थापित कर ली थी, किन्तु उसकी मृत्यु के पश्चात् फैली अव्यवस्था का लाभ उठाकर खल्जी सरदारों ने उसकी हत्या कर लगभग 1211 ई० में हुसामुद्दीन एवज खल्जी को बंगाल का शासक बनाया। एवज़ ने 'सुल्तान गयासुद्दीन' की उपाधि धारण करके एक स्वतन्त्र शासक की तरह शासन करना शुरू किया और इल्तुतमिश की व्यस्तता का लाभ उठाकर बिहार में अपनी शक्ति का विस्तार किया और जाजनगर, तिरहुत, बंग और कामरूप के राज्यों से खराज वसूल किया।


♦️ जैसे ही पश्चिमोत्तर सीमांत का क्षितिज स्पष्ट हुआ इल्तुतमिश ने पूर्वी क्षेत्रों की ओर ध्यान देना शुरू किया। 1225 ई० में दक्षिणी बिहार पर आक्रमण किया, एवज़ खल्जी ने इल्तुतमिश की अधीनता स्वीकार्य कर युद्ध की क्षतिपूर्ति दिया। इल्तुतमिश ने 'मलिकजानी' को बिहार का राज्यपाल नियुक्त किया, किन्तु इल्तुतमिश के वापस होते ही एवज़ खल्जी ने मालिक जानी को पराजित कर पुनः स्वतन्त्र शासक बन बैठा। 

♦️ अब इल्तुतमिश ने अपने पुत्र अवध के राज्यपाल नासिरुद्दीन महमूद को बंगाल पर आक्रमण करने का आदेश दिया। नासिरुद्दीन महमूद ने 1226 ई० में लखनौती पर आक्रमण कर हुसामुद्दीन एवज़ खल्जी को मार डाला। अब महमूद को लखनौती (बंगाल) का राज्यपाल नियुक्त किया गया। महमूद की मृत्यु के बाद लखनौती में पुनः विद्रोह हुआ। अतः 1229-30 ई० में इल्तुतमिश ने बंगाल पर आक्रमण कर शान्ति व्यवस्था स्थापित की तथा अलाउद्दीन जानी को बंगाल का राज्यपाल नियुक्त किया। बंगाल अब दिल्ली सल्तनत का एक अभिन्न अंग बन गया। 


♦️ (2) राजपूतों राज्यों से संघर्ष इल्तुतमिश ने अब राजपूतों की तरफ ध्यान दिया। 1225 ई० तक इल्तुतमिश पश्चिमोत्तर सीमा की उलझनों में व्यस्त था। इसका लाभ उठाते हुए राजपूतों ने अपनी स्वतन्त्रता की घोषणा करनी शुरू की और कर देना बन्द कर दिया। राजपूताना में चौहानों का प्रभाव बढ़ गया था और जालौर में उदयसिंह तथा रणथंभौर में बल्लनदेव ने इतनी शक्ति प्राप्त कर ली थी कि अन्य पड़ोसी राजाओं ने उनका आधिपत्य स्वीकार कर लिया था। 

♦️ मध्य भारत तथा बुन्देलखण्ड में चंदेलो और परिहारों की शक्ति काफी बढ़ गयी और कालिंजर तथा ग्वालियर के अतिरिक्त बयाना, अजमेर तथा तहनगढ़ पर भी तुर्की का अधिकार ढीला पड़ गया था।


♦️ ऐसी स्थिति में सर्वप्रथम इल्तुतमिश ने 1226 ई० में रणथम्भौर पर आक्रमण कर अधिकार किया, फिर 1227 ई० में मंडोर दुर्ग पर विजय प्राप्त की। तत्पश्चात् जालौर, अजमेर, बयाना, तहनगढ़ तथा साँभर पर भी इल्तुतमिश ने अधिकार कर लिया। परन्तु गुजरात के सोलंकियों तथा नागदा के गुहिलौतों ने उसकी सेनाओं को परास्त करके अपनी स्वतन्त्रता बनाये रखी।

♦️ 1231 ई० में इल्तुतमिश ने ग्वालियर पर आक्रमण कर शासक मंगलदेव को पराजित कर 1232 ई० में ग्वालियर पर अधिकार कर किया। शासन प्रबन्ध करने हेतु मुहम्मद जुनैदी को 'अमीरे-वाद' और सिपहसालार रशीदुद्दीन को कोतवाल नियुक्त किया।


♦️ ग्वालियर विजय के पश्चात् इल्तुतमिश ने 1233 ई० में चंदेलों के विरुद्ध और 1234- 35 ई० में उज्जैन तथा भिलसा की ओर सेनाएं भेजी। भिलसा के दुर्ग और नगर पर अधिकार कर लिया गया और उज्जैन के महाकाल मन्दिर तोड़ दिया गया। विक्रमाजीत की मूर्ति और प्राचीन ऐतिहासिक अवशेष दिल्ली लाये गये।


♦️ कटेहर, दोआब, अवध तथा बिहार में भी राजपूतों से संघर्ष हुआ और राजपूत राजाओं को कर देने पर बाध्य किया। उनके प्रमुख गढ़ों पर अधिकार कर लिया। इस प्रकार इन क्षेत्रों में राजपूतों के विद्रोह को दबा दिया गया।


♦️ (3) कुबाचा का अन्त मंगोल आक्रमणकारी चंगेज खाँ और मंगबरनी के सिंघनदी तक पहुँचने पर इनके दिल्ली पर संभावित आक्रमण को देखते हुए इल्तुतमिश ने बीच में ही 1217 ई० में लाहौर से वापस लौट आया था। किन्तु मंगोल के भारत से वापस लौटने के बाद 1226 ई० में इल्तुतमिश ने भटिण्डा, सुरसती और लाहौर पर आक्रमण कर अधिकार कर लिया। 1228 ई० में मुल्तान और उच्छ पर एक साथ आक्रमण किया।

♦️ कुबाचा ने 4 मई 1228 ई० को अपने हथियार डाल दिया और भाग खड़ा हुआ और अपने पुत्र अलाउद्दीन बहरामशाह को इल्तुतमिश के समक्ष संधि करने के लिए भेजा, इल्तुतमिश ने बिना शर्त समर्पण करने के लिए कहा, किन्तु समर्पण की जगह कुबाचा ने सिंध नदी में कूदकर जान देना अधिक उचित समझा। अब इल्तुतमिश ने सिंथ और पंजाब में अपनी सत्ता संगठित की। देवल और सिध के शासक मलिक सिनानुद्दीन हब्श ने इल्तुतमिश की अधीनता स्वीकार्य कर ली। अब इल्तुतमिश की सत्ता मकरान तक विस्तृत हो गयी।


♦️ (4) खलीफ़ा से मानाभिषेक (मंसूर) की प्राप्ति इल्तुतमिश के कार्यों से प्रभावित होकर बगदाद के अब्बासी ख़लीफा इमाममुस्तसिर विल्ला ने अपने राजदूत के माध्यम से 18 फरवरी, 1229 को दिल्ली के सुल्तान के रूप में मानाभिषेक पत्र इल्तुतमिश को प्रदान किया और उसे 'नासिर-अमीर-उल-मोमिनीन' (मुसलमानों का प्रधान अथवा खलीफ़ा का सहायक) की उपाधि प्रदान की। खलीफ़ा की स्वीकृत से इल्तुतमिश दिल्ली सल्तनत का वैधानिक सुल्तान बन गया, उसकी प्रतिष्ठा बढ़ गयी और उसके विरोधी शान्त हो गये।


♦️ इल्तुतमिश 1236 ई० में बूमियान के अभियान में गया जो मंगबरनी के एक अधिकारी सैफुद्दीन हसन क़र्लिंग के अधिकार में था। मंगोल मंगबरनी को पराजित नहीं कर सके थे और वह गजनी तथा सिंध के बीच के प्रदेश पर शासन पर रहा था। इस अभियान में इल्तुतमिश बीमार पड़ा और उसे ज्योतिषीय समय पर पालकी में बैठकर राजधानी दिल्ली लाया गया जहाँ 30 अप्रैल 1236 ई० को उसकी मृत्यु हो गयी। उसे दिल्ली में कुतुब मस्जिद के निकट बनी लाल बलुआ पत्थर की कब्र में दफन किया गया।


इल्तुतमिश के प्रशासनिक सुधार इल्तुतमिश ने साम्राज्य विस्तार कर उसे संगठित करने का भी प्रयास किया। इस उद्देश्य से उसने प्रचलित प्रशासनिक व्यवस्था में सुधार किये जो निम्न है-


(1) सुल्तान की शक्ति एवं प्रतिष्ठा में वृद्धि (तुर्कान-ए-चिहलगानी का गठन)- 


इल्तुतमिश ने सबसे पहली आवश्यकता इस बात की समझी कि शासक का पद और उसकी प्रतिष्ठा देश में सर्वोपरि हो। उसने सत्ता प्राप्त करते ही अनुभव किया कि जिन व्यक्तियों की उन्नति मुइज्जुद्दीन मुहम्मद गोरी अथवा कुत्बुद्दीन ऐबक की कृपा से हुई थी. उनमें अनेक सरदार उसकी श्रेष्ठता स्वीकार करने को उद्यत नहीं थे। अतः उसने यह समझ लिया कि अधीन कर्मचारियों की पूर्ण स्वामिभक्ति प्राप्त करने का उचित साधन यही है कि प्रायः सभी पदों पर उन्हें नियुक्त किया जाएँ जो अपनी उन्नति के लिए पूर्णतः उसी की कृपा पर निर्भर रहे।

 ♦️ इसे ध्यान में रखते हुए इल्तुतमिश ने अपने विश्वासपात्र लोगों को लेकर "तुर्कान-ए-चिहलगानी" (चालीस गुलामों का दल) की स्थापना की और प्रायः सभी महत्त्वपूर्ण पद इन्हें प्रदान किये। मुइज्ज़ी और कुत्बी अमीरों में से विरोधी अमीर युद्ध में मार डाले गये अथवा उन्हें पदों से बर्खास्त कर दिया गया। इस कारण शेष अमीर भी इल्तुतमिश के अधीन हो गये। चालीस गुलामों के बढ़ते हुए प्रभाव को देखकर उन्होंने समझ लिया कि यदि वे उन्हीं के समान स्वामिभक्त सिद्ध न हुए तो सुल्तान उन्हें भी निकाल देगा। इस भाँति इल्तुतमिश ने अमीरों का एक नया दल संगठित करके सम्राट की शक्ति और प्रतिष्ठा को बढ़ा दिया।


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(ii) इक्तादारी व्यवस्था - 


इल्तुतमिश द्वारा निर्मित शासन-व्यवस्था में 'इक्ताओं' का प्रमुख स्थान था। साहित्यिक दृष्टि हे से से 'इक्ता' का अर्थ भू-क्षेत्र हैं, किन्तु व्यावहारिक दृष्टि से 'इक्ता' वह भूमि होती थी, जो किसी व्यक्ति को शासक द्वारा प्रदान की जाती थी। 

दिल्ली सल्तनत के सुल्तानों, विशेषकर इल्तुतमिश ने, भारतीय सामंतशाही के विनाश तथा साम्राज्य के दूरवर्ती प्रदेशों को सीधे केन्द्र से जोड़ने के एक साधन के रूप में 'इक्ता' व्यवस्था को प्रारम्भ किया। इससे यातायात और परिवहन सम्बन्धी कठिनाइयाँ सुलझाई गयी। नवीन अधिकृत प्रदेशों में भूमि कर वसूल करने की व्यवस्था की गयी और साम्राज्य के समस्त प्रदेशों में शान्ति व्यवस्था बनाये रखना संभव हो सका।


♦️ इल्तुतमिश ने भारी संख्या में तुर्की को इक्ताए प्रदान की। उसका उद्देश्य यह था कि जीते गये प्रान्तों पर नियंत्रण रखा जाय और भारतीय सामंतवादी व्यवस्था को समाप्त किया जाय। 'इक्ताओं' के स्वामियों का एक स्थान से दूसरे स्थान पर तबादला कर उनके 'इक्ता' प्रणाली की नौकरशाही विशेषता पर बल दिया। इसके अतिरिक्त इल्तुतमिश पहला तुर्क शासक था, जिसने 'दोआब' के आर्थिक महत्त्व को समझा। वहाँ 2000 तुर्क सैनिक नियुक्त कर उसने तुर्क राज्य के लिए उत्तर भारत के सबसे सम्पन्न प्रदेश पर आर्थिक एवं


(iii) सैन्य व्यवस्था इल्तुतमिश ने दिल्ली सल्तनत की शाही सेना का स्वरूप


♦️ प्रशासनिक नियंत्रण स्थापित किया। निश्चित किया। सेना में नियुक्ति, वेतन, भुगतान तथा प्रशासन केन्द्रीय सरकार के अधीन था। यह तथ्य कि फ़खे मुदाब्बिर ने युद्धकला पर इल्तुतमिश को समर्पित पुस्तक लिखने का विचार किया। यह इस बात का प्रमाण है कि इल्तुतमिश की सैन्य संगठन में रुचि अधिक थी। सुल्तान सेना का मुख्य सेनापति था और प्रान्तों में 'मुक्ता' अपनी सेना का नेतृत्व करते थे।


(iv) न्यायिक-व्यवस्था - 


इल्तुतमिश ने न्यायिक व्यवस्था में भी महत्त्वपूर्ण योगदान किया। उचित न्याय के लिए राजधानी दिल्ली तथा सभी प्रमुख नगरों में काज़ी तथा अमीरेदाद नियुक्त किये गये। इनके फैसलों के विरुद्ध जनता प्रधान काज़ी की अदालत में अपील कर सकता था। परन्तु सुल्तान ही अन्तिम एवं सर्वोच्च न्यायाधीश था।

 ♦️ इल्तुतमिश की न्याय- व्यवस्था के बारे में अफ्रीकी यात्री इब्नबतूता लिखता है "सुल्तान के महल के सम्मुख संगमरमर के दो सिंहों की मूर्तियाँ रखी रहती थी, जिनके गले में घंटिया लटकी रहती थी। पीड़ित व्यक्ति इन घंटियों को बजाता था। उसकी फरियाद सुनकर तुरन्त न्याय की व्यवस्था की जाती थी। यह व्यवस्था केवल रात के लिए थी। दिन में केवल लाल वस्त्र पहनकर आने से ही समझ लिया जाता था कि इस व्यक्ति को कुछ कष्ट है। सुल्तान के आदेशानुसार तुरन्त उसकी फ़रियाद सुनी जाती थी।"


(v) मुद्रा-व्यवस्था - 


♦️ इल्तुतमिश पहला तुर्क शासक था, जिसने शुद्ध अरबी सिक्के चलाए। उसने दो प्रमुख सिक्कों 'चाँदी का 'टंका' और ताँबे का 'जीतल' प्रचलित किये। चाँदी का टंका 175 ग्रेन का होता था। बाद में बलवन ने इसी वजन के सोने के सिक्के चलाए, परन्तु इल्तुतमिश के काल में सोने के सिक्कों में सुधार नहीं हुआ। इल्तुतमिश ने सिक्कों पर 'खलीफा' का नाम अंकित करवाया और टंकों पर टकसाल का नाम खुदवाने की प्रथा इल्तुतमिश ने प्रारम्भ की।

♦️ नेल्सन राइट ने लिखा है- "इल्तुतमिश एक महान मुद्रा विशेषज्ञ था। विदेशों में प्रचलित टंकों पर टकसाल का नाम लिखने की परम्परा को भारतवर्ष में प्रचलित करने का श्रेय इल्तुतमिश को दिया जा सकता है।"


(vi) राजवंशीय राजतन्त्र की स्थापना -


 ♦️ इल्तुतमिश ने ईरान की राजतंत्रीय परम्पराए को सल्तनत के वातावरण में समन्वित किया। इल्तुतमिश ने ईरानी राजतंत्रीय सिद्धान्तों का प्रतिपादन करने वाली "आदाबुस्स सलातीन" और 'मआसिरुस्सलातीन' नामक पुस्तकों को बगदाद से अपने पुत्रों को पढ़ने के लिए मंगवाया था। अपनी पुत्री रजिया को अपने जीवन काल में ही अपना उत्तराधिकारी नामित करना इसी परम्परा की सल्तनत में स्थापना का प्रयास था।


♦️ इल्तुतमिश ने जिस राजतंत्रीय शासन व्यवस्था को सल्तनत में स्थापित किया था, उसकी शक्ति और आधार विशेषतः एक सैनिक और प्रशासनिक सेवा पर आधारित था। मिन्हाजुस्सिराज के अनुसार प्रशासनिक और सैनिक अधिकारी दो दलों में विभक्त थे। पहला, तुर्कदास अधिकारी (तुर्कान पाक अस्ल') और दूसरा, ताज़ीक अर्थात्, कुलीनवंशीय अतुर्क विदेशी (ताज़िकाने गुजीदा वस्ल')। मिन्हाजुस्सिराज को प्रधान क़ाज़ी तथा सद्रजहाँ के पद पर और फ़खरुल्मुल्क इसामी को वज़ीर के पद पर नियुक्त करना इसी नीति के अंग है।


धार्मिक नीति - 


♦️ मिन्हाजुस्सिराज के अनुसार व्यक्तिगत जीवन में इल्तुतमिश धार्मिक प्रवृत्ति वाला व्यक्ति था। उसका धार्मिक विश्वास प्रशंसनीय था और उसका हृदय आध्यात्मिक भावनाओं से प्रभावित होता था। रात के समय वह बहुत देर तक प्रार्थना और ध्यान में मग्न रहता था। वह सय्यद नूरुद्दीन मुबारक गज़नवी के प्रवचन सुनता था। किन्तु अपनी राज्य की नीति-निर्धारण में धर्म को कभी प्रभावी नहीं होने दिया। रजिया को अपना उत्तराधिकारी घोषित करते समय उसने 'उलमा' से परामर्श तो लिया, लेकिन स्वयं निर्णय लिया। वह सूफी संतों का सम्मान करता था।


साहित्य और कला प्रेमी


♦️ इल्तुतमिश साहित्य और कला प्रेमी भी था। वह विद्वानों और योग्य व्यक्तियों का सम्मान करता था। उसने समकालीन विद्वान मिन्हाजुस्सिराज और मलिक ताजुद्दीन को संरक्षण प्रदान किया। निजामुल-मुल्क, मुहम्मद जुनैदी, कुतुबुद्दीन हसन गोरी और फखरुल-मुल्क इसामी जैसे योग्य व्यक्ति उसके दरबार में सम्मान प्राप्त किये हुए थे।


♦️ इल्तुतमिश मध्यकालीन दिल्ली का वास्तविक निर्माता था जो कुछ समय को छोड़कर 1857 तक मध्ययुगीन राजनीति का केन्द्र बिन्दु बनी रही। इल्तुतमिश ने ही लाहौर के स्थान पर दिल्ली को अपनी राजधानी बनाया और उसे भव्य रूप प्रदान कर सांस्कृतिक गतिविधियों का केन्द्र बनाया। यही कारण है कि दिल्ली सल्तनत के साहित्य में दिल्ली को 'हज़राते दिल्ली' (प्रतिभाशाली दिल्ली) अथवा 'नगर' नाम से उल्लेख किया गया है।

♦️ मिन्हाजुस्सिराज लिखता है- "दिल्ली में संसार के विभिन्न प्रदेशों से लोग एकत्रित हुए यह नगर इस पवित्र शासक द्वारा प्रदत्त बहुसंख्यक अनुदानों और असीम कृपाओं से संसार के विभिन्न भागों के ज्ञानियों, चरित्रवानों और विशेषज्ञों के लिए शरणस्थली बन गया।"


♦️ इल्तुतमिश ने दिल्ली में विभिन्न तालाब, मुदरसे, मुस्जिदें, खनकाह आदि का भी निर्माण करवाया। उसने दिल्ली की प्रसिद्ध इमारत 'कुतुबमीनार', जिसकी ऐबक के समय में नींव रखी गयी थी, को 1231-32 ई० में पूर्णता प्रदान किया (कुतुबमीनार का निर्माण प्रसिद्ध चिश्ती सूफी संत कुत्बुद्दीन चख्तियार काकी खल्जी की स्मृति में किया में किया गया था) कुतुबमीनार के दक्षिण में हौज शम्सी का निर्माण भी कराया।


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