कुतुबुद्दीन ऐबक (1206-1210) | Qutubuddin Aibak | कुतुबुद्दीन ऐबक की उपलब्धियां

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कुतुबुद्दीन ऐबक का आरंभिक जीवन - 

कुतुबुद्दीन ऐबक
कुतुबुद्दीन ऐबक : गुलाम वंश 

मुईजुद्दीन मुहम्मद गोरी के गुलामों में सबसे योग्य और विश्वसनीय कुतुबुद्दीन ऐबक था। कुतुबुद्दीन ऐबक नामक तुर्क जनजाति का था। वह तुर्किस्तान का रहनेवाला था। बचपन में ही दास के रूप में वह नैशापुर के बाजार में लाया गया। वहाँ उसे काजी फखरूद्दीन अब्दुल अजीज कूफी ने खरीद लिया। काजी ने उसकी उचित ढंग से देखभाल की तथा उसे धनुर्विद्या और घुड़सवारी की शिक्षा दी। 


ऐबक ने कुरान पढ़ना भी सीख लिया और इसीलिए वह कुरानख्खां (कुरान का पाठ करने वाला) के नाम से भी प्रसिद्ध हुआ। बाद में वह नैशापुर से गजनी ले जा कर बेच दिया गया। उसे मुहम्मद गोरी ने खरीद लिया। मुहम्मद गोरी की सेवा में आने के बाद कुतुबुद्दीन के जीवन में महान परिवर्तन आया।



अपनी प्रतिभा, लगन, ईमानदारी और स्वामिभक्ति के बल पर कुतुबुद्दीन ने गौरी का विश्वास प्राप्त कर लिया। गोरी ने उसे अमीर-ए-आखर (शाही घुड़साल का अधिकारी) के पद पर प्रोन्नत कर दिया। इस पद पर रहते हुए ऐबक ने गोर, बामियान और गजनी के युद्धों में सुलतान की सेवा की। बाद में तराईन के युद्ध में उसने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। उसके कार्यों से प्रसन्न होकर गोरी ने उसे क्रमशः कुहराम और समाना का प्रशासक नियुक्त किया। वस्तुतः 1192-1206 ई० तक उसने गोरी के प्रतिनिधि के रूप में उत्तरी भारत के विजित भागों का प्रशासन संभाला।


 इसी अवधि में ऐबक ने उत्तरी भारत में तुर्की शक्ति का विस्तार भी किया। उसने राजपूत राज्यों से संघर्ष किया, गहड़वालों को पराजित किया, गुजरात, बयाना, ग्वालियर के युद्धों में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई तथा 1205 ई० में खोखरों के विरुद्ध मुहम्मद गोरी का हाथ बँटाया। वस्तुतः गोरी की सैनिक योजनाओं को मूर्तरूप ऐबक ने ही दिया। इसलिए भारतीय तुर्क अधिकारी उसे ही अपना प्रधान मानने लगे थे, क्योंकि गोरी सदैव ही मध्य एशिया की राजनीति में उलझा रहा।


अनेक इतिहासकारों की मान्यता है कि मुहम्मद गोरी ने ऐबक को भारत में अपना प्रतिनिधि शासक नियुक्त किया था। उनका मानना है कि खोखरों के दमन के पश्चात गजनी वापस जाते समय मुहम्मद गोरी ने ऐबक को औपचारिक रूप से मलिक और भारतीय प्रांतों का वली अहद (उत्तराधिकारी) नियुक्त किया। इस धारणा को मानने के लिए स्पष्ट प्रमाण उपलब्ध नहीं है। 



हबीब और निजामी के अनुसार मुहम्मद गोरी ने अपना प्रतिनिधि या उत्तराधिकारी नियुक्त नहीं किया। अचानक मृत्यु हो जाने के कारण वह ऐसा नहीं कर पाया। साथ ही संभवतः उसकी योजना अपने अधीन तीन स्वतंत्र अधिकारियों को रखने की थी। इस धारणा की पुष्टि बाद के घटनाक्रम से होती है। गोरी यद्यपि अपने गुलामों पर अत्यधिक भरोसा करता था, तथापि उसने न तो बल्दौज और न ही कुतुबुद्दीन को दासता से मुक्त किया था। अतः कुतुबुद्दीन को सत्ता प्राप्त करने के लिए कड़ा संघर्ष करना पड़ा। 


कुतुबुद्दीन ऐबक का राज्यारोहण - 


मुइजुद्दीन मुहम्मद गोरी की जिस समय (1206 ई०) मृत्यु हुई उस समय उसके भारतीय क्षेत्रों का प्रबंध कुतुबुद्दीन ऐबक के हाथों में था। गोरी की मृत्यु के पश्चात उसके उत्तराधिकार का प्रश्न हल नहीं हुआ। गोरी का भतीजा गयासुद्दीन मुहम्मद गोर का शासक बन बैठा। उसकी स्थिति अत्यंत नाजुक थी। गोर साम्राज्य के अवशेषों पर कब्जा जमाने के लिए तीन व्यक्ति लालायित थे— ताजुद्दीन यल्दूज, नसिरुद्दीन कुबाचा तथा कुतुबुद्दीन ऐबक।


 कुतुबुद्दीन ऐबक का अब भी भारतीय प्रदेशों पर अधिकार था। राज्य की अव्यवस्थित अवस्था को देखकर उसने भारत में स्वतंत्र राज्य की स्थापना की चेष्टा की उसने गयासुद्दीन के पास 1 यह खबर भेजी की अगर वह ऐबक को भारत का शासक स्वीकार कर ले, तो ऐबक उसे ख्वारिज्मशाह के विरुद्ध सहायता देगा। सुलतान ने उसकी बात मानकर उसे भारत का शासक स्वीकार कर लिया। सुल्तान की अनुमति प्राप्त करने के पश्चात ऐबक का राज्याभिषेक 25 जून, 1206 को लाहौर में हुआ, यद्यपि उसने दिल्ली को अपनी राजधानी बनाई। आरंभ में ऐबक की स्थिति केवल मलिक एवं सिपहसालार की ही रही। इसीलिए वह अपने नाम के सिक्के नहीं ढलवा सका, परंतु 1208 ई० में सुलतान ने उसे दासता से मुक्त कर वैध रूप से दिल्ली का स्वतंत्र सुलतान स्वीकार कर लिया। इतना ही नहीं, उसने ऐबक के पास सिंहासन, छत्र, दूरबाश, पताका एवं नक्कारा भेजकर उसे सुलतान की पदवी से भी विभूषित किया। इस प्रकार, भारत में दिल्ली सल्तनत की स्वतंत्र सत्ता स्थापित हुई।

कुतुबुद्दीन ऐबक | Qutubuddin Aibak
1206 का भारत

कुतुबुद्दीन ऐबक की समस्याएँ एवं उनका निराकरण- 


जिस समय ऐबक सुलतान बना, उस समय उसके अधीन भारत के अनेक इलाके थे। उत्तर-पश्चिम सीमा से मध्य भारत तक उसका राज्य विस्तृत था (देखें मानचित्र 1)। इसके अंतर्गत मुलतान, उच्छ, नहरवाला, सियालकोट, लाहौर, तबरहिंद, तराईन, अजमेर, हांसी, सरसुती, कुहराम, मेरठ, कोयल, दिल्ली, बदायूँ, भीरा, बनारस, कन्नौज, कालिंजर, अवध और मालवा के क्षेत्र थे। पूर्वी भारत में बिहार और बंगाल भी तुर्की राज्य में शामिल था।


 बंगाल पर तुर्कों का ही अधिकार था, परंतु तुर्कों की सत्ता शिथिल पड़ती जा रही थीं। ऐबक के प्रतिद्वंद्वी यल्दूज, कुबाचा और बंगाल-बिहार के खिलजी अपनी शक्ति और प्रभाव बढ़ाने के प्रयास में लगे हुए थे। ऐबक के सामने अन्य समस्याएँ भी थीं। गोरी के राज्य पर अधिकार कर लेने से मुइज्जी और कुतुबी अमीर भी उससे नाखुश थे। राजपूत राज्य स्वतंत्रता प्राप्ति का प्रयास कर रहे थे। कालिंजर और ग्वालियर स्वतंत्र हो चुके थे। बंगाल-बिहार में खिलजी और सेनवंशी शासक अपना प्रभाव बढ़ा रहे थे। प्रशासनिक व्यवस्था नष्ट हो चुकी थी। ऐसी स्थिति में ऐबक ने अपना सारा ध्यान अपनी स्थिति सुदृढ़ करने की तरफ लगाया। उसने साम्राज्य विस्तार के बदले विजित क्षेत्रों की सुरक्षा और प्रशासनिक गठन को अपना लक्ष्य बनाया।


यल्दूज से संबंध-


मुईजुद्दीन मुहम्मद गोरी के गुलामों में कुतुबुद्दीन के अतिरिक्त यल्लूज की भी विशेष हैसियत थी। वह भी अपने-आपको मृत सुलतान का उत्तराधिकारी मानता था। उसे भी मुहम्मद गोरी के उत्तराधिकारी सुलतान गयासुद्दीन महमूद ने दासता से मुक्त कर स्वतंत्र कर दिया था। साथ ही उसे गजनी और मध्य एशियाई क्षेत्रों पर शासन करने की अनुमति प्रदान कर दी थी। इससे यल्दूज के हौसले बढ़ गए। अब वह अपने को मुहम्मद गोरी के वास्तविक उत्तराधिकारी के रूप में देखने लगा। वह पंजाब और अंततः दिल्ली पर अधिकार करने की योजना बनाने लगा, क्योंकि ये क्षेत्र मुहम्मद गोरी के अधिकार में थे। यह स्थिति कुतुबुद्दीन के लिए संकटपूर्ण थी। यल्दुज ने उसके अस्तित्व को ही चुनौती दे डाली थी। अतः ऐबक ने वीरतापूर्वक यल्दूज का सामना करने का निश्चय किया।

सुलतान द्वारा मुक्तिपत्र एवं गजनी पर शासन करने का फरमान प्राप्त करने के बाद यन्दूज ने पंजाब पर अधिकार करने के लिए गजनी से प्रस्थान किया। उसने लाहौर पर आक्रमण किया। कुतुबुद्दीन ने युद्ध में यल्दूज को पराजित कर उसे भारत से बाहर खदेड़ दिया। इतना ही नहीं, आगे बढ़ कर उसने गजनी पर भी अधिकार कर लिया (1208 ई०) । गजनी पर कुतुबुद्दीन अधिक समय तक नियंत्रण नहीं रख सका। स्थानीय सरदारों के विरोध के कारण ऐबक को गजनी छोड़कर वापस लाहौर लौटना पड़ा। थल्दूज ने पुनः गजनी पर अधिकार कर लिया लेकिन वह पुनः ऐबक के समय में पंजाब पर आक्रमण करने की हिम्मत नहीं जुटा सका। कुतुबुद्दीन भी अपने एक प्रबल प्रतिद्वंद्वी से निश्चिंत हो गया। उसकी स्थिति अब पहले से अधिक मजबूत बन गई।


कुबाचा से संबंध - 


कुतुबुद्दीन का दूसरा प्रतिद्वंद्वी नासिरुद्दीन कुवाचा था। वह मुलतान और उच्छ का प्रशासक था। मुहम्मद गोरी की मृत्यु के बाद वह भी स्वतंत्र शासक की हैसियत से शासन करने लगा। उसने सिंध पर भी अधिकर कर लिया। कुतुबुद्दीन को उससे भी खतरा था। इसलिए ऐबक ने उसके साथ भी अपने संबंध निश्चित किए यल्दूज के विपरीत कुबाचा के साथ ऐबक ने मैत्रीपूर्ण एवं कूटनीतिक चाल चली। उसने कुबाचा के साथ अपनी पुत्री का विवाह कर दिया। इससे दोनों की कटुता समाप्त हो गई। कुबाचा ने ऐबक की अधीनता स्वीकार कर ली। ऐबक ने इस प्रकार एक अन्य प्रभावशाली प्रतिद्वंद्वी को अपने पक्ष में मिलाकर अपनी स्थिति सुदृढ़ कर ली।


कुतुबुद्दीन ऐबक और अली मर्दान-


मुहम्मद गोरी के समय में ऐबक जिस समय मध्य भारत में तुर्की सत्ता का विस्तार कर रहा था ठीक उसी समय गोरी के एक अन्य सरदार इख्तियारूद्दीन मुहम्मद-बिन-बख्तियार खिलजी ने पूर्व में तुर्की सत्ता की स्थापना की। उसने 1197-1202 ई० के मध्य बिहार को अपने नियंत्रण में ले लिया। बिहार से आगे बढ़ कर उसने नदिया (बंगाल) पर अधिकार कर लिया तथा लखनौती में तुर्की राज्य की स्थापना की। इख्तियारूद्दीन खिलजी की हत्या बाद में अली मर्दान ने कर दी और बंगाल में एक स्वतंत्र सुलतान के समान शासन करने लगा परंतु, उसकी स्थिति सुदृढ़ नहीं थी। खिलजी सरदार उसका बराबर विरोध करते रहते थे। अतः, इख्तियारुद्दीन ने ऐबक से सहायता माँगी।

ऐबक भी बंगाल पर अपना नियंत्रण स्थापित करना चाहता था। उसे एक सुनहरा मौका मिल गया। उसने अली मर्दान को सैनिक सहायता दे कर उसे लखनौती में अधीनस्थ शासक के रूप में स्थापित किया। अली मर्दान और अन्य खिलजी सरदारों ने ऐबक की अधीनता स्वीकार कर ली। इस तरह बंगाल पर भी ऐबक का प्रभाव स्थापित हो गया।


राजपूत राज्यों के प्रति कुतुबुद्दीन ऐबक की नीति —


 अपनी आंतरिक स्थिति मजबूत कर ऐबक ने उन विद्रोही राजपूत राज्यों की ओर ध्यान दिया जिन्होंने गोरी की हत्या से उत्पन्न स्थिति का लाभ उठा कर स्वतंत्र सत्ता स्थापति कर ली थी और तुर्की राज्य को निरंतर चुनौती दे रहे थे। कालिंजर और ग्वालियर हाथ से निकल थे। बदायूँ और फर्रूखाबाद से तुर्कों को निकाल दिया गया था। अंतर्वेदी के राज्यों ने कर देना बंद कर दिया था। अतः, ऐबक के लिए इन राज्यों की तरफ ध्यान देना आवश्यक हो गया।

 ऐबक ने बदायूँ पर पुनः अधिकार किया। वहाँ इल्तुतमिश को प्रशासक बहाल किया गया। जिन राजाओं ने कर देना बंद कर दिया था उनसे पुनः कर वसूला जाने लगा और तुर्की सत्ता स्थापित की गई। ऐबक अपनी असामयिक मृत्यु के कारण कालिंजर और ग्वालियर पर पुनः अधिकार नहीं कर सका। 1210 ई० में चौगान खेलते समय घोड़े से गिर कर उसकी मृत्यु हो गई।

कुतुबुद्दीन ऐबक का योगदान –


 दिल्ली सल्तनत का संस्थापक ऐबक ही था। यद्यपि वह छोटी - अवधि के लिए ही सुलतान बना, तथापि इसी बीच उसने तुर्की शासन की नींव डाल दी। गोरी के सहायक के रूप में उसने भारत में अनेक प्रदेश जीते। वस्तुतः, गोरी से अधिक विजय ऐबक ने हासिल की। उसने अपने राज्य में शांति और व्यवस्था भी कायम की। अपनी दानशीलता के कारण वह 'लाख बख्श' (लाखों का दान करनेवाला) के नाम से विख्यात था। उसमें राजनीतिक दूरदर्शिता भरी हुई थी। वह साहित्य और कला का संरक्षक था। हसन निजामी और फर्रुखमुद्दीर उसके दरबार के प्रसिद्ध विद्वान थे। 


मस्जिद निर्माण


उसने दो प्रसिद्ध मस्जिदों का निर्माण भी करवाया – दिल्ली का 'कुवत-उल-इस्लाम' और अजमेर का 'ढाई दिन का झोपड़ा' । उसने कुतुबमीनार बनवाने का कार्य भी आरंभ किया, परंतु इसे वह पूरा नहीं कर सका । ऐबक को प्रशासन की ओर ध्यान देने का अवसर ही नहीं मिल सका। वह सिर्फ चार वर्षों के लिए शासक बना। इस अवधि में भी उसका अधिकांश समय नवजात तुर्की राज्य की सुरक्षा में ही व्यतीत हुआ। यही उसकी सबसे बड़ी उपलब्धि है। उसके द्वारा स्थापित नींव पर ही आगे इल्तुतमिश और बलबन ने सल्तनत की भव्य इमारत खड़ी की। ऐबक में साहस, वीरता और कूटनीतिज्ञता भरी हुई थी।


 डॉ० हबीबुल्ला ऐबक की प्रशंसा करते हुए कहते हैं कि "ऐबक में तुकों की निर्भिकता और पारसियों की परिष्कृत अभिरुचि तथा शालीनता पाई जाती है।" बाद के इतिहासकार फरिश्ता और अबुल फजल भी ऐबक की प्रशंसा करते हैं।

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