पह्लव वंश का इतिहास | Pahlav Vansh Ka Itihas | गोण्डोफर्नीज की उपलब्धियां | पार्थियन साम्राज्य

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 पह्लव वंश का इतिहास


पह्लव वंश का इतिहास अत्यन्त विवादग्रस्त है। संस्कृत साहित्य में शक (सीथियन) पहलव (पार्थियन) तथा यवन (वैक्ट्रियन) आक्रमणकारियों का नाम सामूहिक रूप से आता है और इन्हें विदेशी तथा बर्बर कहा गया है। 


शकों या सीथियनों का प्राचीनतम् उल्लेख डेरियस प्रथम के अभिलेखों में प्राप्त होता है। उसमें शकों की तीन अलग-अलग शाखाओं का उल्लेख है। पहलवों का इतिहास शकों के इतना निकट है कि कहीं-कहीं यह निश्चित करना कठिन हो जाता है कि कोई विशिष्ट राजा शक कुल का था या पार्थियन कुल का।

Pahlav Vansh Ka Itihas

पार्थियन मूलतः पर्नि जाति से सम्बिन्धित थे जो सिथियन प्रजाति की वाही नामक एक बड़ी शाखा का अंग थी। ये कुशल अश्वारोही और योद्धा थे। ये लड़ाकू प्रवृत्ति के थे। रक्तपात एवं हिंसा इनका शौक था। स्वाभाविक मृत्यु को ये घृणा की दृष्टि से देखते थे और युद्ध में लड़ते हुये मृत्यु को प्राप्त करना इन्हें अत्यन्त प्रिय था। 


तीसरी शती ई० पू० के मध्य अर्राकीज तथा टिरिडेटीज नामक दो भाइयों ने अन्य 5 सरदारों के नेतृत्त्व में ऊपरी टेगिस पर अधिकार कर लिया। इसी समय बैक्ट्रिया के डियोडोटस के आक्रमण के भय से ये पार्थिया के समीपवर्ती प्रदेशों की ओर बढ़े। इन्होंने यहाँ के स्थानीय शासक को मार दिया।


 दो वर्ष बाद अर्सक की मृत्यु हो गयी, लेकिन टेरीडेरीज के नेतृत्त्व में पार्थियनों ने रूस एवं ईरान के मध्य स्थित (ट्रांस कैस्पियन) प्रदेशों को जीत लिया। इस प्रकार टेरीडेटीज ने पर्वतीय क्षेत्र में अपनी पहली राजधानी स्थापित की, किंतु दो वर्ष बाद उसने अर्सक के नाम पर एक नये नगर की स्थापना की तथा शासक के रूप में अभिषिक्त हुआ। टेरीडेटीज ने कुल 37 वर्षों तक शासन किया तथा कालान्तर में अपनी राजधानी अर्सक से हटाकर टेक्टामपिलास ले आया।

टिरिडेटीज का उत्तराधिकारी अर्तबेनुस हुआ। उसे एण्टियोकस तृतीय ने परास्त किया और यह सिल्युसाइड की अधीनता मानने को विवश हुआ, किंतु एण्टियोकस रोमनों द्वारा पराजित हुआ और यह घटना अर्तवेनुस के लिये सुखद रही। उसका उत्तराधिकारी प्रियपेटियस 195 ई०पू०) हुआ। उसने अपने खोये हुये प्रान्तों को प्राप्त करने का पुनः सफल प्रयास किया।


पार्थियन साम्राज्य का संस्थापक :-


पार्थियन साम्राज्य का वास्तविक संस्थापक मिश्रदत्तीज प्रथम था जिसे 160 से 146 ई० पू० के लगभग अपने साम्राज्य का सुदृढ़ विस्तार किया। उसका उत्तराधिकारी फ्रातीज द्वितीय था। जिसने अपना साम्राज्य दजला से फरात तक फैलाया। वह अपने पिता के समान ही योग्य एवं प्रतिभाशाली विधिवेत्ता था। धिर्शमन ने उसकी तुलना फारस के साइरस से की है।


फ्रातीज का उत्तराधिकारी उसका चाचा अर्तवेनुस द्वितीय हुआ। उसने अपने साम्राज्य को विदेशी आक्रमणों से बचाने का प्रयास किया, किंतु अंततः असफल रहा। इसके समय में पार्थियन साम्राज्य निरन्तर संकटग्रस्त बना रहा।

पार्थियन साम्राज्य का सबसे शक्तिशाली शासक: गोण्डोफर्नीज


पहृव शासक गोण्डोफर्नीज की उपलब्धियां 


गोण्डोफर्नीज की मुद्राएँ जाब, सिंध, कान्धार, सीस्तान तथा काबुल घाटी से प्राप्त हुई हैं। इन प्रदेशों पर गोण्डोफनींज के अधिकार की पुष्टि अन्य साक्ष्यों से भी हो जाती है।


तख्ते-बाही लेख से पेशावर पर इसका अधिकार प्रमाणित होता है काबुल घाटी से इसकी शक शैली की मुद्राएँ मिली हैं जो यहाँ पर इसके अधिकार की पुष्टि करती हैं।


सुधाकर चट्टोपाध्याय ने हर्मियस की कुछ ऐसी मुद्राओं का उदाहरण दिया है जिनके पुरोभाग पर हर्मियस की आकृति के साथ पृष्ठ भाग पर खरोष्ठी पृष्ठ में 'कुजुल कैडफिसस कुषन' लेख उत्कीर्ण है। लगता है यूनानी शासक हर्मियस तथा कुजुल फैडफिसेस ने पार्थियन सम्राट के विरुद्ध एक संधि की थी, किन्तु अन्ततः पार्थियन शासक ही विजयी रहा तथा काबुल घाटी पर उसका अधिकार हो गया।

रैप्सन का विचार है कि "इसमें कोई सन्देह नहीं कि उसके राज्य में पह्लव साम्राज्य अपनी शक्ति के सर्वोच्च शिखर पर था और संभव है कि इस साम्राज्य पर केवल एक व्यक्ति का ही नियन्त्रण था जो पूर्वी ईरान तथा उत्तरी पश्चिमी भारत दोनों में राज्य करता था, क्योंकि गोण्डोफर्नीज के सिक्कों में अर्थेन्ज एवं एजेज द्वितीय दोनों के सिक्के पाये जाते हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि वह उन दोनों राज्यों का उत्तराधिकारी था।"


किन्तु ऊपरी काबुल घाटी में गोण्डोफर्नीज की सबसे उल्लेखनीय सफलता शकों के विरुद्ध थी। पेशावर जिले में तख्त-ए-बाही प्रदेश से उसका एक अभिलेख प्राप्त हुआ है। इससे गांधार पर पार्थियन अधिकार की पुष्टि होती है। इस अभिलेख के साक्ष्य के आधार पर उसका राज्यकाल 21 ई० 43 ई० के बीच निर्धारित किया जा सकता है।


गोण्डोफर्नीज का नाम सेंट थामस के साथ भी सम्बन्धित रहा है। एक परम्परा के अनुसार पार्थियन लोगों में प्रचार (धर्म का) करने का कार्य सेंट थामस को सौंपा गया था।

किन्तु विद्वानों ने इस परंपरा की सत्यता को स्वीकार नहीं किया। डॉ० वी० ए० स्मिथ का मत है कि इस सम्बन्ध में प्रस्तुत किया गया सारा वर्णन केवल यही है कि भारत के राजा गोण्डोफनर्नीज को उसकी मृत्यु के बाद भी स्मरण करते रहे। यही सम्भव है कि एक ईसाई प्रचारक मण्डल उसके राज्य में उत्तर-पश्चिम सामंत पर रहने वाले इण्डोपार्थियन समुदाय में गया हो, किन्तु यह स्पष्ट रूप से कहा नहीं जा सकता कि इस मंडल का नेतृत्त्व स्वयं सेंट थामस ने किया था।


यह भी विचारणीय है कि गोण्डोफर्नीज के राज्य में किसी ईसाई सम्प्रदाय का चिन्ह नहीं मिलता।


डॉ० स्मिथ ने अपने विचारों का निष्कर्ष इन शब्दों में प्रस्तुत किया है, "पर्याप्त सोच- विचार के बाद मेरा यह मत है कि गोण्डोफर्नीज और मैजदायी के राज्यों में सेंट थामस के कार्यों और प्राणोत्सर्ग की कथा को स्वीकार नहीं करना चाहिये।"

गोण्डोफर्नीज के उत्तराधिकारी गोण्डोफर्नीज के उत्तराधिकारी एण्डागैसेज था। कुछ साय तक वह अपने चाचा के साथ उपशासक के रूप में शासन कर चुका था। इस बात की सूचना सिक्कों से मिलती है। स्वयं में उसका राज्यकाल बहुत छोटा था। उसके बाद पैकोर्ज राजा बना। शासन अवधि की दृष्टि से वह भी अल्पकालिक रहा, किन्तु अपने समय में वह शक्तिशाली स्थिति में बना रहा। एक अन्य शासक सेनावेयज की भी मुद्राएँ उपलब्ध होती हैं, किंतु यह नहीं स्पष्ट हो सका है कि भारत से उसका क्या सम्बन्ध था।


∆पार्थियन साम्राज्य का पतन :-


अर्तवेनुस द्वितीय के बाद मिश्रदत्तीज द्वितीय ने सत्ता ग्रहण की। यह अपने वंश का सर्वाधिक योग्य शासक था। उसके समय में कई विदेशी शक्तियाँ पार्थियन सत्ता के अधीन आ गईं। मिश्रदत्तीज द्वितीय के बाद शासन करने वाले शासकों में सिनैट्रेकस, फ्रातीज तृतीय तथा फ्रातीज चतुर्थ आदि के विषय में सूचनाएँ मिलती है, किन्तु इन राजाओं के विषय में अधिक ज्ञान नहीं है।

किन्तु इसके बाद पार्थियन सत्ता धीरे-धीरे कमजोर पड़ने लगी। पार्थियन गवर्नरों ने अपनी स्वतंत्रता घोषित कर दी तथा इनमें से कुछ ने भारतीय प्रदेशों पर भी अधिकार कर लिया। पेरीप्लस आफ़ इरीट्रियन सी के अनुसार सिन्धु घाटी में पार्थियनों का शासन था। भारतीय काबुल घाटी से प्राप्त बहुसंख्यक मुद्राओं से पता चलता है कि यहाँ भारतीय-यूनानी के बाद बहुत से पार्थियन शासकों ने राज्य किया। सम्भव है शकों के दबाव के कारण इन्हें भारत की ओर बढ़ना पड़ा हो इन्हें भारतीय साहित्य में पहलव तथा पार्थव कहा गया है।

पहृव सत्ता के अंतिम अवशेषों के रूप में चाँदी के कुछ सिक्के उपलब्ध होते हैं। ये सिक्के मार्शल को तक्षशिला में सिरकप से प्राप्त हुये हैं, किन्तु पहव सत्ता का लोप होने के बाद भी उत्तर-पश्चिम भारत विदेशी सत्ता से मुक्त नहीं हो सका।


पह्लव सत्ता के ध्वस्त अवशेषों पर कुषाणों ने अपना विशाल साम्राज्य स्थापित किया।

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