प्राचीन भारत में वर्ण व्यवस्था | Varna system in hindi | वर्ण व्यवस्था | Varna vyavastha | भारत में वर्ण व्यवस्था | 4 वर्ण

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भारत में अति प्राचीन काल से वर्ण व्यवस्था का प्रचलन है। इस व्यवस्था को ‘हिन्दू वर्ण व्यवस्था’ के नाम से पुकारा जाता है। वर्ण व्यवस्था के अनुसार समस्त समाज को 4 वर्णों में विभाजित किया गया था— ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। वेदों, ब्राह्मणों, उपनिषदों, स्मृतियों, महाभारत, भगवद्गीता, रामायण आदि सभी ग्रन्थों में वर्णों का उल्लेख हुआ है।

विभिन्न ग्रन्थों में वर्ण व्यवस्था के उद्भव एवं विकास के सम्बन्ध में विभिन्न प्रकार से वर्णन हैं। यहाँ इस पर संक्षेप में प्रकाश डाला जा रहा है-

प्राचीन भारत में वर्ण व्यवस्था

वर्ण व्यवस्था का भारतीय साहित्य में उल्लेख :

प्राचीन भारत में वर्ण व्यवस्था (Varna system in hindi) का उल्लेख अनेक भारतीय साहित्य करते हैं। वर्ण व्यवस्था से सम्बंधित अनेक बातें हमें ऋग्वेद, अथर्ववेद, महाभारत, रामायण, गीता, शतपथ ब्राह्मण, ऐतरेय ब्राम्हण, उपनिषदों (बृहदारण्यकोपनिषद), सूत्र ग्रंथों स्मृतियों आदि प्राचीन भारतीय साहित्यों में प्राप्त होता है।

इनके अलावा प्राचीन भारत में वर्ण व्यवस्था का उल्लेख विदेशी यात्रियों जैसे- मेगस्थनीज तथा ह्वेनसांग आदि के यात्रा वृत्तांतों से भी प्राप्त होता है।

वर्ण व्यवस्था की उत्पत्ति :

वर्णाश्रम व्यवस्था का सम्बन्ध मनुष्य की प्रकृति तथा उसके प्रशिक्षण से था तथा यह हिन्दू सामाजिक संगठन का आधार स्तम्भ है। ‘वर्ण’ शब्द का तात्पर्य वृत्ति या व्यवसाय चयन से है। ऋग्वेद में ‘वर्ण’ शब्द ‘रंग’ के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है, जहाँ आर्यों को श्वेत वर्ण का तथा दास-दस्यु को श्याम वर्ण का बताया गया है।

वर्ण व्यवस्था की दैवी उत्पत्ति का सिद्धांत :

चार वर्णों की व्यवस्था की दैवीय उत्पत्ति सम्बन्धी सिद्धान्त का उल्लेख ऋग्वेद के दशम मण्डल के पुरुष सूक्त, महाभारत के शान्तिपर्व, रामायण, भगवद्गीता, विष्णुपुराण, वायु पुराण, मनुस्मृति में मिलता है। ऋग्वेद की वर्ण विषयक अवधारणा श्रम विभाजन के सिद्धान्त पर आधारित है जिसमें प्रत्येक वर्ण के कार्य का महत्व है।

गुण व कर्म के आधार पर वर्ण-व्यवस्था :

भगवत्गीता में कृष्ण नें बताया है कि “चारों वर्णों की उत्पत्ति गुण व कर्म के आधार पर की गई है। ” वायु पुराण में भी पूर्व जन्मों के कर्म को विभिन्न वर्णों की उत्पति का कारण बताया गया है। चातुवर्ण की उत्पति विषयक कर्म का सिद्धान्त सबसे महत्वपूर्ण है जब आर्य भारत में बस गये तो उन्होने भिन्न भिन्न कर्मों के आधार पर विभिन्न वर्गों का विभाजन किया।

जो व्यक्ति यज्ञादि कर्म करते थे उन्हें ‘ब्रह्म’ जो युद्ध में निपुण थे उन्हें ‘क्षत्र’ तथा शेष जनता को ‘विश’ कहा गया। वर्ण-व्यवस्था का यह प्रारम्भिक स्वरूप था ऋग्वेद के दशम मण्डल के पुरुष सुक्त में सर्वप्रथम ‘शुद’ वर्ण का उल्लेख मिला है। रामशरण शर्मा के अनुसार, ”शूद्र वर्ण में आर्य तथा अनार्य दोनों ही वर्गों के व्यक्ति सम्मिलित थे।

आर्थिक सामाजिक विषमताओं ने दोनों ही वर्ग में श्रमिक वर्ग हो जन्म दिया। कालान्तर में सभी श्रमिकों को ‘शूद’ कहा जाने लगा।” अथर्ववैदिक काल के अन्त में शूद्रों को समाज में एक वर्ग के रूप में मान्यता मिला गई।

वर्ण व्यवस्था का आधार ‘जन्म’ :

महाकाव्य काल (ईसा पूर्व पाँचवी शताब्दी) तक आते वर्ण व्यवस्था का आधार कर्म त्याग जन्म लिया गया तथा वर्गों के स्थान पर विभिन्न जातियों की उत्पति हो गई।

वर्ण व्यवस्था का विकास :

प्राचीन भारत में वर्ण व्यवस्था के विकास को हम निम्न चरणों में बांट कर समझ सकते हैं-

ऋग्वैदिक काल में वर्ण व्यवस्था :

वस्तुत: ऋग्वैदिक समाज की वर्ण व्यवस्था उन्मुक्त थी। यह जन्म या वंश आधारित नहीं बल्कि गुण व कर्म आधारित थी ‘शूद्र’ तथा ‘वैश्य’ शब्दों का सर्वप्रथम प्रयोग ऋग्वेद के ‘पुरुष सूक्त’ में मिलता है।

उत्तर वैदिक कालीन वर्ण व्यवस्था :

उत्तरवैदिक काल तक आते आते समाज में चतुर्वर्ण व्यवस्था की स्पष्टतः प्रतिष्ठा हो गई। इस काल में हम प्रथम बार विभिन्न वर्गों के बीच भेदभाव देखते है। ‘शूद्र’ वर्ग को इसी समय एक पृथक वर्ग के रूप में मान्यता मिली। उसे तीनों वर्गों का सेवक बताया गया तथा धार्मिक क्रियाओं के अयोग्य घोषित किया।

शतपथ ब्राह्मण में ब्राह्मण.. क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र को बुलाने के भिन्न-भिन्न तरीके बताये गये हैं। अग्नि व ब्रहस्पति को ब्राह्मणों, इन्द्र, वरूण, यम को क्षत्रियों, वसु, रूद्र, विश्वदेव को वैश्यों तथा पूषन को शूदों का देवता माना गया।

तैत्तिरिय संहिता, ऐतरेय ब्राह्मण तथा ताण्ड्य महाब्राह्मण ने स्पष्ट कहा की शूद्र देवहीन है और यज्ञ करने योग्य नहीं है। यद्यपि वर्णों के मध्य भेदभाव की भावना का उदय हो गया था।

किन्तु अभी वर्णों की यह सामाजिक व्यवस्था इतनी जटिल नही हुई थी। कवच, वत्स तथा सत्यकाम जाबाल जैसे निम्न वंशीय पुरूषों के ब्राह्मण हो जाने के उदाहरण मिलते है।

सूत्र काल में वर्ण व्यवस्था का स्वरूप :

सूत्र काल (600ई.पू.-300ई.पू.) में वर्ण व्यवस्था को सुनिश्चित आधार प्रदान किया गया तथा प्रत्येक वर्ण के कर्तव्यों का निर्धारण किया गया। श्रौतसूत्रों, गृहसूत्रों, तथा धर्मसूत्रों में वर्ण क्रमशः कठोर व जटिल होती गई। धर्मसूत्रों में अस्पृश्यता का प्रारम्भिक स्वरूप प्राप्त होता है। वशिष्ठ धर्मसूत्र में शुद्ध को ‘श्मशान के समान अपवित्र’ कहा गया हैं। वह विद्याध ययन तथा संस्कारों से वंचित कर दिया गया।

किन्तु गौतम धर्मसूत्र ने उदारता दिखाते हूए ‘वार्ता’ (कृषि, व्यापार तथा पशुपालन) को ‘शूद्र’ का वर्ण धर्म बताया है। ऐसा ब्राह्मण और वैश्य भी जिसका उपनयन संस्कार न हुआ हो वे सावित्री उपदेश के अयोग्य हो जाने के कारण ‘पतितसावित्रीक’ ‘व्रात्य’ कहलाये थे।

बोधायन धर्मसूत्र के अनुसार पतितः सावित्रीक व्यक्ति ‘व्रात्यस्तोम’ कर लेता हो तो वह पुनः वर्ण के अन्तर्गत स्वीकृत हो जाता था।

महाकाव्यों के काल में वर्ण व्यवस्था :

महाकाव्यों में वर्ण व्यवस्था (Varna vyavastha) का जो स्वरूप मिलता है वह उत्तरवैदिक काल जैसा ही है। विदुर, मातंग आदि कुछ शूद्रों ने इस समय सत्कर्मों से समाज में प्रतिष्ठित स्थान प्राप्त किया। युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ के अवसर पर भगदत्त जैसे म्लेच्छ शूद्र राजाओं को आमन्त्रित किया।

धर्मशास्त्रों (स्मृतियाँ) के समय वर्ण व्यवस्था :

धर्मशास्त्रों (स्मृतियाँ) के काल में वर्ण को पूर्णतया जन्मना माना गया। स्मृति ग्रन्थों में विभिन्न वर्णों के व्यवसायों व कर्त्तव्यों की व्याख्या मिलती है। कौटिल्य ने लिखा है- स्वधर्म का पालन करने से स्वर्ग तथा मोक्ष की प्राप्ति होती है, इसके विपरीत होने पर वर्णसंकरता उत्पन्न होती है।

जिससे संसार का विनाश हो जाता है। मनुस्मृति में शकों को ‘व्रात्य क्षत्रिय’ माना है जो धर्मच्युत थे। मनुस्मृति में वर्ण व्यवस्था के सिद्धान्तों का स्पष्टतः निर्धारण मिलता है।

गुप्त व गुप्तोत्तर काल में वर्णों की व्यवस्था :

गुप्त काल तक वर्ण व्यवस्था की नमनीयता बनी रही। स्मृतियों में अनुलोम तथा प्रतिलोम विवाहों का विधान है। तथा प्रथम को मान्यता प्रदान की गई है। गुप्तोत्तर काल में बाह्य आक्रमणों के कारण समाज में अव्यवस्था फैली, जिससे वर्ण व्यवस्था को ठोस आधार पर प्रतिष्ठित करने के प्रयास हुए।

मधुवन तथा बाँसखेड़ा लेखों से ज्ञात होता है कि प्रभाकरवर्धन ने समाज में वर्णाश्रम धर्म को प्रतिष्ठित किया था। हर्षचरित में ज्ञात होता है कि हर्ष वर्णाश्रम धर्म का पोषक था।

निष्कर्ष :

इस प्रकार हम कह सकते हैं कि वर्ण व्यवस्था का आधार प्रारंभ में गुण, कर्म व व्यवसाय था जोकि कालांतर में जन्माधारित हो गया। इसका विकास ऋग्वैदिक काल के उन्मुक्त रूप से लेकर धर्मशास्त्रों व गुप्तों के समय तक आते आते काफी परिवर्तन को प्राप्त हुआ।

इस समय तक आते आते प्राचीन भारतीय वर्ण-व्यवस्था सकारात्मक प्रभाव न करके नकारात्मकता को प्राप्त कर ली। यह वर्णव्यवस्था जाति रूप में परिवर्तित होकर जाति व्यवस्था के रूप में अब तक विद्यमान है।

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