ऋग्वेद की रचना कब हुई | Age of Rig Veda | Veda | When was the Vedas composed | वेदों की उत्पत्ति कब हुई? वेदों का इतिहास | वेदों की रचना कब हुई (संबंधी 9 मत) | वेदों का रचनाकाल

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ऋग्वेद (Rig veda) संसार में सबसे प्राचीन पुस्तक है। इसके रचनाकाल के विषय में इतिहासकार पूर्णत: असहमत हैं।

ऋग्वेद(Rig-veda)

इसके रचना काल के बारे में विद्वानों में शताब्दियों के स्थान पर सहस्राब्दियों का अन्तर है। कुछ लोग इसका रचना-काल 1000 ई०पू० के लगभग बताते हैं। कुछ विद्वान इसकी तिथि 3000 और 2500 ई०पू० के लगभग बताते हैं। कुछ विद्वान इसकी तिथि 3000 और 2500 ई०पू० के मध्य निश्चित करते हैं।

ऋग्वेद की रचना कब हुई ? Age of Rig veda

(1) मैक्स मूलर (Max Mueller) का मत : प्रो० मैक्स मूलर (Max Mueller) का मत था कि ऋग्वेद की रचना 1000 ई०पू० तक पूर्ण हो गई होगी। उन्होंने ब्राह्मण काल के लिए 200 वर्ष निर्धारित किए, 200 वर्ष मन्त्र-काल के लिए और 200 वर्ष स्वयं ऋग्वेद की रचना के लिए।

गिफर्ड भाषण-माला के अन्तर्गत भौतिक धर्म सम्बन्धी 1889 के अपने भाषण में प्रो० मैक्स मुल्लर ने कहा था, “हम यह नहीं कह सकते कि इसकी रचना कब शुरू हुई। वैदिक श्लोकों की रचना ईसा से 1000, 1500, 2000 या 3000 वर्ष पूर्व हुई, यह निश्चय करना संसार की किसी शक्ति के लिए सम्भव न होगा।” 

यह कहा गया है कि वेदों की उत्पत्ति के विभिन्न साहित्यिक युगों में से प्रत्येक के लिए 200 वर्ष निर्धारित करना केवल साहित्यिक है। विद्वान आजकल प्रो० मैक्स मुलर के विचार को स्वीकार नहीं करते।

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(2) जे० हैर्तल का मत : जे० हैर्तल (J. Hertel) के विचार हैं कि ऋग्वेद का आरम्भ उत्तर-पश्चिमी भारत में नहीं बल्कि ईरान में हुआ। वह समय जोरोस्टर के समय से अधिक दूर नहीं था। जोरोस्टर का काल 550 ई०पू० के लगभग था।

(3) जी० ह्यूसिंग का मत : जी० ह्यूसिंग (G. Husing) ने लिखा है कि लगभग 1000 ई०पू० से भारतीय आर्मेनिया से अफ़गानिस्तान की ओर आने लगे और ऋग्वैदिक काल का प्रारम्भ अफ़गानिस्तान में हुआ। यह उसके बाद की घटना है कि उन्हें और भी भारत की ओर खदेड़ दिया गया।

एच० ब्रूनहॉफ़र (H. Fraunhofer) के सुझाव पर चलते हुए ह्यसिंग ने यह कल्पना की कि ऋग्वेद में उल्लिखित राजा कनित पृथुश्रवस (Kanita Prthusravas) सिथियन राजा कनितस ही है। राजा कनितस का उल्लेख एक यूनानी अभिलेख तथा मुद्रा पर प्राप्त हुआ है। उसका काल दूसरी शती ई०पू० था। सिंग ने यह निष्कर्ष निकाला कि “दूसरी शती ई०पू० में भी इन स्तोत्रों का संकलन पूर्ण नहीं हुआ था।”

(4) जैकोबी का मत : प्रो० जैकोबी (Jacobi) का विचार है कि “ऋग्वेद की रचना ई०पू० तीसरी सहम्राब्दी में हुई होगी। यह परिणाम उन्होंने नक्षत्रीय गणना के आधार पर निकाला। तिथियों को निर्धारित करने में भारतीय साहित्य में दी गई नक्षत्रीय जानकारी का प्रयोग करना कोई नया विचार नहीं है।

लुड्विग (Ludwig) ने सूर्य-ग्रहण के आधार पर भी ऐसी चेष्टा की थी। यज्ञों का समय निश्चित करते समय प्राचीन भारत के पुरोहित जंत्री भी बनाते थे यज्ञों का ठीक-ठीक समय निश्चित करने के लिए उन्हें आकाश-मण्डल का सूक्ष्म अध्ययन करना पड़ता था। इसलिए ब्राह्मणों और सूत्रों में हमें बहुत-सी नक्षत्रीय जानकारी प्राप्त होती है। नक्षत्रों का चलन बहुत महत्त्वपूर्ण था। वैदिक साहित्य में ऐसे संदर्भ हैं जिनमें यह कहा गया है कि अमुक यज्ञ “इस विशेष नक्षत्र के अधीन होगा,” अर्थात् जब इस नक्षत्र का चन्द्र के साथ मिलन होगा।

जैकोबी तथा बाल गंगाधर तिलक इस निर्णय पर पहुँचे हैं कि ब्राह्मण-काल में कृत्तिका नक्षत्र उस समय उदय होता था जब बसन्त में विषुव होता था अर्थात् दिन और रात बराबर होते थे वैदिक ग्रन्थों में एक पुरानी समय-सारिणी के संकेत मिलते हैं जब बसन्त ऋतु के मृगशीर्ष नक्षत्र में दिन रात बराबर होते थे प्रतीत होता है कि 500 ई०पू० के लगभग बसन्त विषुव कृत्तिका नक्षत्र में पड़ता था और 4500 ई०पू० में मृगशीर्ष में पड़ता था।

तिलक ने वैदिक साहित्य की तिथि 6000 ई०पू० निश्चित की। जैकोबी ने सभ्यता के प्रारम्भ का निश्चिय करते हुए कहा कि सभ्यता की प्रौढ़ और बहुत बाद की रचनाओं में से ही लगभग 4500 ई०पू० में हमें ऋग्वेद के श्लोक प्राप्त हुए। सभ्यता का यह काल 4500 और 2500 ई०पू० के मध्य ठहरता है।

जैकोबी ने प्राप्त श्लोकों की तिथि इस काल के उत्तरार्द्ध में निश्चित की। गृह्यसूत्रों में एक ऐसी रीति का उल्लेख मिलता है जिसके अनुसार वर तथा वधू को सितारों के निकलने तक बैल की खाल पर बैठना पड़ता था। फिर वर अपनी वधू को ध्रुव तारा दिखाता था और साथ ही यह प्रार्थना करता था, “मेरे घर में रह कर स्थिर रहना।” वधू उसका यह उत्तर देती थी, “तुम भी स्थिर हो, मैं कामना करती हूँ कि अपने पति के घर में मैं स्थिर रह सकूँ ।”

इस विवाह-प्रथा का प्रचलन तभी हुआ होगा जब ध्रुवतारा आकाशीय ध्रुव के इतना निकट था कि वह स्थिर दिखाई देता था आकाशीय भूमध्य रेखा के सामयिक परिवर्तन के साथ-साथ उत्तरी ध्रुव भी दूर हो जाता है। एक के बाद एक सितारा उत्तरी ध्रुव की और चला जाता है और उत्तरी तारा या ध्रुव तारा बन जाता है। समय के साथ केवल एक ही सितारा उत्तरी ध्रुव के इतना निकट पहुँच जाता है कि उसे ‘ध्रुव’ भी कहा जा सकता है।

वर्तमान काल में उत्तरी गोलार्द्ध का ध्रुव तारा ऐल्फ़ा है। वैदिक युगीन ध्रुव तारा यह नहीं हो सकता क्योंकि आज से 2000 वर्ष पहले यह सितारा उत्तरी ध्रुव से इतना दूर था कि इसे ‘ध्रुव ‘ कहा कठिन है। 2730 ई०पू० में ध्रुव तारा के नाम का एक और सितारा भी मिलता है। उस समय में ऐल्फा डैकोनिस 500 वर्ष तक ध्रुव के इतना निकट रहा कि जो लोग इसे केवल आँखों से ही देखते थे उन्हें यह बिलकुल स्थिर दिखाई देता होगा।

इस गणना के आधार पर ‘ध्रुव’ संज्ञा तथा उपर्युक्त विवाह-प्रथा की उत्पत्ति को ईसा पूर्व तीसरी सहस्राब्दी पूर्वार्द्ध में निश्चित किया गया है। उस विवाह-प्रथा का उल्लेख ऋग्वेद में नहीं है, इसलिए प्रो० जैकोबी इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि “विवाह संस्कार में ध्रुव का प्रयोग ऋग्वैदिक काल में नहीं होता था बल्कि उससे अगले युग में होता था, इसलिए वैदिक सभ्यता काल ई०पू० तीसरी सहस्राब्दी से भी पहले था।”

जैकोबी तथा तिलक के आलोचकों का कथन है कि भारतवासी सितारों की चन्द्र के प्रति स्थिति को ही ध्यान में रखते थे और उन सितारों की सूर्य के प्रति स्थिति से उन्हें कोई सरोकार न था। प्राचीन साहित्य में विधुवों के अध्ययन के बारे में कोई भी संकेत नहीं मिलता।

1250 ई०पू० के लगभग भारत के आकाश-मण्डल में लघु ऋक्ष के एक सितारे को ध्रुव तारे के रूप में दिखाई देने की संभावना को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। ऋग्वेद में उपर्युक्त विवाह-प्रथा का उल्लेख न होने से ही किसी प्रकार की धारणा बना लेना ठीक नहीं है क्योंकि ऋग्वेद के श्लोकों में वैवाहिक प्रथाओं सम्भवत: कुछ भी उल्लेख नहीं किया गया है।

(5) अन्य मत : एक अन्य विचार है कि आर्यों की दक्षिण-विजय सातवीं या आठवीं शती ई०पू० हुई होगी क्योंकि यह माना जाता है कि आपस्तम्ब और बौधायन वैदिक शाखा का जन्म दक्षिण भारत में हुआ। 700 ई०पू० के लगभग दक्षिण-विजय के साथ यह विचार असम्भव प्रतीत होता है कि इण्डो-आर्य 1200 या 1500 ई०पू० के लगभग भारत के उत्तरी भाग में और पूर्वी अफ़गानिस्तान में रहते थे।

500 से 800 वर्ष के अन्दर ही समस्त उत्तरी भारत पर विजय प्राप्त करना और फिर अपना राज्य स्थापित करना आर्यों के लिए सम्भव न होता। आर्यों में स्वयं भी फूट थी और आदिवासियों ने भी उनका कड़ा विरोध किया। इसलिए उनका विकास धीरे-धीरे ही हुआ होगा।

ओल्डनबर्ग (Oldenberg) ने लिखा है कि 700 वर्ष का समय आर्यों के लिए काफी था। “यह स्मरण रखना चाहिए कि 400 वर्ष में उत्तरी तथा दक्षिणी अमरीका में क्या-क्या रवर्तन हो गए हैं।” डॉ० विण्टरनिट्ज को ओल्डनबर्ग का विचार मान्य नहीं है। उनका विचार है कि आर्यों को अपने कार्य के लिए कम से कम इससे दुगने समय की आवश्यकता थी।

(6) ब्लूमफ़ील्ड : ब्लूमफ़ील्ड (Bloomfield) की मान्यता है कि ऋग्वेद की 40,000 पंक्तियों में से 5,000 तो दुहराई गई हैं। इससे ज्ञात होता है कि जब ऋग्वेद की रचना हुई थी उस समय कई चलायमान पंक्तियाँ थीं जिन्हें ऋग्वेद के श्लोकों का कोई भी रचयिता उसमें जोड़ सकता था। वैदिक गद्यों की भाषा की अपेक्षा ऋग्वेद के श्लोकों की भाषा बहुत ही पुरातन है। ब्राह्मणों, आरण्यकों तथा उपनिषदों में न केवल ऋग्वेद के श्लोकों को ही मान्यता दी गई है बल्कि अन्य संहिताओं के मन्त्रों तथा स्तुतियों की भी प्राचीन काल की धार्मिक पुस्तकों के रूप में कल्पना कर ली गई है।

भाषाओं, साहित्यिक तथा सांस्कृतिक आधार पर यह कल्पना की गई है कि ऋग्वेद के प्राथमिक श्लोकों की रचना तथा सारे श्लोकों को एक संहिता के रूप में एकत्र करने के मध्य काल में कई शताब्दियाँ बीत गई होंगी। ब्राह्मणों की उत्पत्ति में भी कई शताब्दियाँ लगी होंगी। उपनिषद् भी विभिन्न युगों की रचनाएँ हैं उनमें भी गुरुओं की पोढ़ियाँ हैं और एक लम्बी परम्परा का वर्णन है।

इस सबके होते हुए भी यह ध्यान देने योग्य बात है कि वैदिक साहित्य के सम्पूर्ण युग में आर्यों ने सिन्धु से गंगा तक का क्षेत्र ही विजित किया। यदि इस छोटे से क्षेत्र पर विजय पाने में आर्यों को कई शताब्दियाँ लगीं तो मध्य तथा दक्षिण भारत की विजय में तो उन्हें कई और शताब्दियाँ लगी होंगी। इन परिस्थितियों में 700 वर्ष का समय बहुत कम प्रतीत होता है।

ओल्डनबर्ग ने लिखा है कि पूर्वतम उपनिषदों और पूर्वतम बौद्ध साहित्य के मध्य कई शतियाँ बीत गई होंगी। बौद्ध साहित्य में तो वेदों और वेदांगों की पूर्व-कल्पना कर ली गई है। 500 ई०पू० लगभग जब बौद्ध धर्म का उदय हुआ तो समस्त वैदिक साहित्य अस्तित्व में आ चुका था। इन तथ्यों के आधार पर वैदिक साहित्य का आरम्भ 1000 ई०पू० के लगभग हुआ प्रतीत होता है।

(7) प्राचीन हिट्टाइट राज्य की राजधानी बोगाजकोई में पाई गई मिट्टी की पट्टिकाओं से ऋग्वेद के काल पर कुछ प्रकाश पड़ता है। यह खोज 1907 में एशिया माइनर में हा गो विंक्लर ने की। चौदहवीं शती ई०पू० के आरम्भ में हिट्टाइट शासक और मिटानी के शासन के बीच की गई सन्धियाँ भी इन पट्टिकाओं में सम्मिलित हैं इन सन्धियों में कुछ देवताओं का रक्षकों के रूप में उल्लेख हुआ है उन देवताओं के नाम हैं मित्र, वरुण, इन्द्र और नासत्यस ।

स्पष्ट है कि ये नाम वही हैं जो ऋग्वेद में उाल्लखित हैं। इससे यह निष्कर्ष निकाला गया है कि पूर्वतम वैदिक श्लोकों की रचना “संभव: लगभग 1500 ई०पू० के बाद नहीं हुई थी।” लेकिन ओल्डनबर्ग का विचार हैं कि इस खोज से ऋग्वेद के लिए अधिक प्राचीनता स्वीकार करने का कोई कारण प्राप्त नहीं होता। उनका विचार है कि “ये देवता भारतीयों से मिलते-जुलते किन्हीं पश्चिमी आर्यों के हैं जिन्हें उन्होंने किसी सामान्य अतीत से प्राप्त किया था जैसा कि भारतीयों ने भी अपने देवता उसी स्रोत से प्राप्त किए।”

किन्त डॉ० विण्टरनिट्ज़ का विचार है कि वरुण और मित्र का मिश्रण तथा इन्द्र और नासत्यस का मिश्रण केवल वेदों में ही देखने को मिलता है । जैकोबी, स्टेन नो और हिलब्रैण्ड्ट (Hillebrandt) का भी यही विचार है कि उपर्युक्त देवता भारतीय देवता हैं और किसी अन्य धारणा को स्वीकार करने के लिए कोई कारण नहीं है।

(8)  एल एल अमन्ना (Tell el Amarna) में पाए गए पत्रों में संस्कृत आकृति के कुछ नाम पाए गए हैं ये पत्र बोग़ाज़कोई अभिलेखों के युग के हैं। कैस्साइट (Kassite) जाति के कुछ शासकों के नाम संस्कृत के थे। शूर्य (सूर्य) और मारितस (मारुतस) राजा 1746 और 1180 ई०पू० के बीच बेबिलोनिया में राज करते थे। लगभग 700 ई०पू० के असुरबनिपाल के पुस्तकालय में से असीरिया में पूजे जाने वाले देवी-देवताओं की सूची मिली है। इस सूची में असरमज़ास (Assaramazas) भी सम्मिलित है जिसका पर्याय अहुरमज्दा (Ahurmazda) जैन्द-अवेस्ता (zend avesta) में मिलता है।

(9) डॉ. विण्टरनिट्ज़ का विचार है कि नक्षत्रीय गणना के आधार पर ऋग्वेद की आयु का निर्णय करने की चेष्टाएँ अवश्य ही असफल होंगी क्योंकि इस वेद के कई परिच्छेदों के एक से अधिक अर्थ निकाले जा सकते हैं। नक्षत्रीय गणनाएँ तो ठीक हो सकती हैं लेकिन सम्बन्धित वैदिक सन्दर्भों की निश्चित रूप से व्याख्या नहीं की जा सकती। उनके विभिन्न अर्थ निकाले जा सकते हैं, इसलिए उनके आधार पर कोई निश्चित निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता।

 वेदों और जैन्द-अवेस्ता 1. के परस्पर सम्बन्ध और उसी प्रकार वैदिक भाषा तथा प्राचीन संस्कृत के पारस्परिक सम्बन्ध के विषय में भाषा के तथ्य किसी वास्तविक परिणाम पर नहीं पहुँचाते। वे केवल यही काम करते हैं कि उनकी उपस्थिति के कारण नक्षत्रीय गणनाओं 44 और भूगर्भीय कल्पनाओं के आधार पर वेदों को हम बहुत प्राचीनता प्रदान नहीं करते।

विण्टरनिट्ज़ ने लिखा है : “इस विकास का आरम्भ हमें शायद 2000 या 2500 ई०पू० के लगभग निश्चित करना होगा और अन्त में 750 और 500 ई०पू० के मध्य में। किन्तु सबसे अच्छा रास्ता तो यह है कि किसी भी निश्चित तिथि से बच कर ही निकल जाना चाहिए और बहुत ही पुराने और बहुत ही नये युग के उग्र विचारों से दूर रहना चाहिए।”

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निष्कर्ष:- यदि निष्कर्षतः देखें तो उपरोक्त तर्कों अथवा मतों के आलोक में यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि ऋग्वेद की रचना के कालानुक्रम का वास्तविक व सटीक जानकारी कर पाना मुश्किल है। किंतु उक्त मतों के अनुसार यदि बात करें तो ऋग्वेद की रचना को 1800 ई.पू. से 1200 ई.पू. के मध्य माना जा सकता है। 

यदि इस तिथि को और clearify करें तो इसे 1500ई०पू० से 1200 ई०पू० के अंतर्गत रखा जा सकता है।
किन्तु ज्ञातव्य है कि 1000 ई०पू० के आस पास ऋग्वेद संहिता में कुछ महत्वपूर्ण सुधार हुए। अतः कुछ विद्वान ऋग्वेद के रचना की तिथि को 1500 ई० पू० से 1000 ई० पू० रखते हैं जो कि अब तक कि सर्वमान्य तिथि है।
तथा इसी काल (1500-1000 ई.पू.) को ऋग्वैदिक काल भी कहा जाता है।

धन्यवाद🙏

आकाश प्रजापति

(कृष्णा)

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