एलोरा एक गुफा मन्दिर है जो राष्ट्रकूटों द्वारा बनवाया गया था। यह महाराष्ट्र के औरंगाबाद में स्थित है। यहाँ बौद्ध, ब्राह्मण तथा जैन तीनों महान धर्मों की अपूर्व स्मृतियाँ हैं। ये गुफायें बहुत बड़ी चट्टान को खोदकर बनाया हुआ विशाल आकार, विस्तृत आँगन, विशाल स्तम्भ तथा खम्भे, भूल-भुलैया, गलियारा अपने में आश्चर्य लिए हुए हैं।
बड़े-बड़े स्थापत्य अतिशय अलंकृत और साज-सज्जा इत्यादि से समन्वित पहाड़ी को ऊपर से नीचे काटकर बनाया गया है। यहाँ का विश्व-विख्यात कैलाश मन्दिर संसार में वास्तुकला की दृष्टि से एक आश्चर्य है। एलोरा गुफाओं में दक्षिणी किनारे की तरफ 12 गुफायें बौद्ध की हैं जो खुदाई के विकास में ब्राह्मण तथा जैन की अपेक्षा सुन्दर एवं सजीव है। ये गुफायें सम्भवतः 200 वर्ष की क्रिया-कलापों की अन्तिम गुफाओं से जो चैत्य है, एकदम मिलती-जुलती हैं। फिर भी बाहरी भाग की बनावट में काफी अन्तर दिखाई पड़ता है।
एलोरा के कैलाश मंदिर की विशेषताएं : Features of Kailash Temple Of Ellora
राष्ट्रकूटों ने आठवीं से लेकर दसवीं शताब्दी के मध्य लगभग तीन सौ वर्षों तक शासन किया। कला के क्षेत्र में राष्ट्रकूटों का उल्लेखनीय योगदान माना जाता है। राष्ट्रकूटों की राजधानी मान्यखेट से अभी तक कला के कोई उल्लेखनीय पुरातात्विक अवशेष नहीं प्राप्त हुए हैं किन्तु एलोरा (वेरुल), एलीफेण्टा, जोगेश्वरी तथा मण्डपेश्वर में राष्ट्रकूट कला के महत्त्वपूर्ण स्मारक स्थित हैं। इनमें से एलौरा तथा एलीफेण्टा अपने गुफा स्थापत्य एवं मूर्ति-शिल्प के लिए विश्वविख्यात हैं।
यहाँ पर बौद्ध चैत्य एवं विहार, हिन्दू मन्दिर तथा जैन देवालय कुल मिलाकर 34 की संख्या में पर्वत को तराश कर बनाये गए थे। ये दक्षिण से उत्तर की ओर लगभग दो किलोमीटर के क्षेत्र में फैले हुए हैं। इनमें से दक्षिण में गुफा संख्या 1 से 12 तक बौद्ध धर्म से सम्बन्धित चैत्य तथा विहार हैं, बीच में गुफा संख्या 13 से 29 तक शैलकृत हिन्दू मन्दिर हैं। इसके पश्चात् उत्तर दिशा में थोड़ी दूर पर गुफा संख्या 30 से 34 तक जैन देवालय हैं।
बौद्ध गुफाएँ एलोरा में बौद्ध शैली की गुफा वास्तुकला का भी उल्लेखनीय विकास हुआ, यद्यपि किसी भी राष्ट्रकूट नरेश ने बौद्ध धर्म को संरक्षण प्रदान नहीं किया था। एलोरा की 12 बौद्ध गुफाओं में से केवल गुफा संख्या 10 चैत्यगृह है, शेष विहार हैं। एलोरा का चैत्यगृह शिल्प-देवता विश्वकर्मा को समर्पित है, इसे विश्वकर्मा गुफा कहा जाता है। यह अजन्ता के चैत्यगृहों से बड़ा है।
इसका मुखमण्डप दो मंजिला है। इसमें 28 स्तम्भ हैं और स्तम्भ तथा भित्ति के मध्य प्रदक्षिणापथ है। एलोरा के विहारों में से अधिकांश में सामने एक बरामदा, उसके बाद सभाकक्ष के दोनों ओर भिक्षुओं के आवास के लिए कोठरियों के स्थान पर लम्बे बरामदे हैं जिनकी दीवालों पर पाँच-पाँच रथिकाएँ हैं जिनमें बुद्ध की मूर्तियाँ प्रतिष्ठित की गयी हैं। गुफा संख्या 5 वर्गाकार न होकर आयताकार है। इसके सभाकक्ष में 24 स्तम्भ हैं जिनमें से चार स्तम्भ सामने की ओर हैं तथा दोनों किनारों पर 9-9 स्तम्भों की पंक्तियाँ हैं।
सभा के पीछे गर्भगृह और अन्य विहारों की तरह ही अगल-बगल में कोठरियाँ हैं। सभाकक्ष (मण्डप) के बीच में लम्बाई में दो समानान्तर चबूतरे हैं। एलोरा की बौद्ध गुफा संख्या 1 से 5 को कालक्रम की दृष्टि से प्रारम्भिक गुफा समूह में रखा जाता है। गुफा संख्या 6 से 12 को परवर्ती गुफा समूह में रखा जाता है जिस में चैत्यगृह एवं विहार दोनों सम्मिलित हैं। द्वितीय वर्ग की गुफा संख्या 10 विश्वकर्मा गुफा चैत्यगृह है। द्वितीय वर्ग की विहार गुफाओं में वास्तुकला की दृष्टि से विकास परिलक्षित होता है।
इनमें से गुफा संख्या 11 तथा 12 के विहार सब से विशाल हैं तथा दोनों ही तिमंजिले (त्रिभूमिक) हैं। प्रवेश द्वार के सामने आँगन है और आँगन के सामने आठ-आठ स्तम्भों पर आधारित तीन मुखमण्डप हैं जिनसे मण्डप (सभाकक्ष) में प्रवेश किया जाता है। मण्डप के दोनों ओर कोठरियों हैं तथा पीछे की ओर गर्भगृह है। अगल-बगल की कोठरियों में से एक में से ऊपर की ओर जाने का रास्ता है।
द्वितीय मंजिल आयताकर है। तृतीय खण्ड (मंजिल) में सामने 8-8 स्तम्भों की दो पंक्तियों पर आधारित एक विशाल बरामदा है जिसके बीच के स्तम्भों की सीध में 55 स्तम्भों की दो आड़ी पंक्तियों हैं जिससे यह मण्डपं धन के चिन्ह (+) के आकार का मण्डप बनाता है जिसे पाश्चात्य कलाविदों ने 'क्रॉस' का आकार कहा है।
शैव गुफा मन्दिर राष्ट्रकूट काल धार्मिक सहिष्णुता का काल था। अधिकांश राष्ट्रकूट शासक शैव धर्म के अनुयायी थे। शासकीय संरक्षण में एलोरा में शैव धर्म से सम्बन्धित गुफा-मन्दिरों (लयणों) का निर्माण हुआ था। यहाँ पर 17 शैव मन्दिरों (गुफो संख्या 13 से 29 तक) का निर्माण हुआ।
यहाँ के प्रमुख शैव गुफा मन्दिरों अथवा मण्डपों में रावण की खाई (गुफा 14), दशावतार (गुफा 15), कैलाश मन्दिर (गुफा 16), रामेश्वर (गुफा 21), सीता की नहानी अथवा घूमर लेण (गुफा 29) विशेष उल्लेखनीय हैं। बनावट के आधार पर यहाँ के शैव गुफा मन्दिरों को कालाक्रम की दृष्टि से तीन वर्गों में विभाजित किया गया है।
प्रथम वर्ग में सामने की ओर चट्टानों को काटकर एक आँगन का रूप दिया गया है। उसके बीच पत्थरों को काटकर चार स्तम्भों पर एक मण्डप बनाया गया है, जिसकी बाहरी दीवालों पर देवताओं की मूर्तियाँ तराशी हुई हैं। दशावतार लयण तथा रावण की खाई प्रारम्भिक अवस्था के उदाहरण हैं। दशावतार मण्डप में राष्ट्रकूट शासक दन्तिवर्मा (650-665 ई०) का अभिलेख उत्कीर्ण है। शेष मन्दिरों के निर्माण का समय कैलाश मन्दिर के बाद का है जो कृष्ण प्रथम (756-772 ई०) के शासनकाल में निर्मित हुआ।
द्वितीय वर्ग के एलोरा के गुफा मन्दिर मूलतः प्रारम्भिक वर्ग की ही तरह के हैं। इनमें मुख्य अन्तर यह है कि गर्भगृह के चतुर्दिक प्रदक्षिणापथ इस प्रकार कटा हुआ है कि वह भी मण्डप का ही अंग बन गया है। रामेश्वर लयण को इस वर्ग में रख सकते हैं।
तीसरे प्रकार के गुफा मन्दिरों के प्रायः तीन और आँगन मिलता है तथा प्रवेश के लिए तीनों ही ओर से तीन प्रवेश-द्वार मिलते हैं। मुख्य द्वार गर्भगृह के ठीक सामने तथा शेष दो अगल-बगल में होते हैं जो बगल के आँगनों में निकलते हैं। इसका एक उत्कृष्ट उदाहरण सीता नहाती है। यह तीन ओर से आँगनों से घिरा मण्डप है। मुख्य आँगन में दोनों ओर विशाल रथिकाएँ (देव-प्रकोष्ठ) हैं।
सामने के आँगन में चन्द्रशिला युक्त सोपान बने हुए हैं। मण्डप के दोनों ओर सात-सात स्तम्भों की पंक्तियाँ हैं। प्रदक्षिणापथ में शिव, पार्वती, भैरव तथा कैलाश उठाते हुए रावण की मूर्तियाँ बनी हुई हैं।
एलोरा का कैलाश मन्दिर (Elora Ka Kailash Mandir)
एलोरा का कैलाश मन्दिर विश्व के भव्यतम कलाकृतियों में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है। एलोरा का यह मन्दिर द्वितलीय है। इस मन्दिर का सम्पूर्ण परिसर लगभग 276 फुट लम्बा व 154 फुट चौड़ा है। इसके पार्श्व में लगभग 107 फुट ऊँचा ढलान लिए हुए हैं। यह मन्दिर एकात्मक प्रकार का मन्दिर है। इस मन्दिर के स्तम्भ नागर शैली की भाँति बनाये गये हैं। स्तम्भ को छोड़कर शेष मन्दिर के अंग द्रविड़ वास्तु कला शैली में निर्मित किए गये हैं।
इस मन्दिर में निर्मित विमान मण्डप, अन्तराल, नन्दीमण्डप व गोपुरम द्रविड़ वास्तुकला शैली में एक ही अक्ष पर तराशे गये हैं। इसमें विमान व मण्डप परिसर संयुक्त योजना में काटे व तराशे गये हैं। नन्दीमण्डप पृथक् तथा विमान से सटा हुआ निर्मित किया गया है। कैलाश मन्दिर के इन 10 स्तम्भों को वर्गाकार तराशा गया है, जो चार-चार के समूहों में चार कोने में खड़े हैं, जो गर्भगृह के प्रवेश द्वार का कार्य करते हैं।
अधिष्ठान से 25 फुट नीचे मन्दिर में प्रवेश हेतु एक गोपुरम् भी निर्मित किया गया है। मन्दिर का मूल अधिष्ठान क्षैतिज लहरों से युक्त हैं। गोपुरम के आंगन में प्रविष्ट होते ही मन्दिर के अधिष्ठान के दोनों ओर दो हाथियों की मूर्तियाँ निर्मित हैं, जो कलात्मक रूप से अद्वितीय हैं।
स्थापत्य का चूडान्त अंकन भी एलोरा के कैलाश मन्दिर में किया गया है जो लुभावने तथा आकर्षक भी लगते हैं। जिसमें देवी गुणों को प्रकृति के अनुरूप अलंकृत किया गया है यदि भैरव की मूर्ति रौद्र एवं भयावह है. तो पार्वती की उसी अनुपात में शान्त एवं स्नेहिल।
शिव के ताण्डव नृत्य की मूर्ति में यदि अप्रतिम तेजस्विता दिखाई पड़ती है तो उमा-महेश के परिणय मूर्तन में दाम्पत्य औत्सुक्य एवं मर्यादा का सीमान्त है। इसी प्रकार रावण द्वारा कैलाशोलोकन में उसके पौरुष व गर्व की पराकाष्ठा मिलती है। इसमें रावण अपनी सुपृष्ट भुजाओं से बौलाश पर्वत के तल को लपेट कर इतनी जोर से हुचकाता है कि उक्त पर्वत की चूलें डीली पड़ जाती है, तथा उसका जोड़-जोड़ हिल जाता है।
कैलाश को डोलायमान पाकर शिव पार्वती सहित सभी प्राणी काँप उठते हैं व अनर्थ की सम्भावना में डूब जाते हैं। अतः शिव सहजतः अपने पैर के अंगूठे से कैलाश को हल्का दबा देते हैं फलतः रावण का गर्व चूर-चूर हो जाता है।
एसीब्राउन ने ठीक कहा है, कि ब्राह्मणा, बौद्ध, जैन, गुहा मन्दिरों का शीलोत्कीर्तन परम्परा में एलोरा का कैलाश मन्दिर कई सदियों से कलात्मक साधना के उपरान्त सर्वाधिक प्रभावोत्पादक व वैभव सम्पन्न रचना है। जिसे युगों-युगों तक भारतीय स्थापत्य कला में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त होता रहेगा।