हड़प्पा सभ्यता (Harappan civilization) न केवल भारत की बल्कि विश्व की विशालतम सभ्यता थी। यह भारत की प्रथम नगरीय सभ्यता थी। इस सभ्यता की अनेकों मूलभूत विशेषताएं थीं जिसका क्रमवार वर्णन निम्नलिखित है।
सिन्धु घाटी सभ्यता / हड़प्पा सभ्यता : (Harappan civilization)
जैसा कि हड़प्पा सभ्यता की उत्पत्ति, हड़प्पा सभ्यता का विस्तार का विस्तृत वर्णन पिछली पोस्ट में किया जा चुका है। । अतः इस पोस्ट में हम हड़प्पा सभ्यता (Harappan civilization) की विशेषताओं की चर्चा करेंगे।
हड़प्पा सभ्यता की विशेषताएँ (Characteristics of harappan civilization )~
फेयर सर्विस नामक विद्वान का अनुमान है कि मोहनजोदड़ो की जनसंख्या लगभग 41,250 रही होगी। हड़प्पा (दुर्ग क्षेत्र को छोड़कर) की जनसंख्या 23,544 आंकी गई है । (जनसंख्या संबंधी उपरोक्त आंकड़े अनुमानपरक हैं) सार्वजनिक महत्व की विशिष्ट इमारतों , लेखन कला के साक्ष्य के आधार पर कांस्य काल की बस्तियों को नगर माना जा सकता है।
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हड़प्पा सभ्यता की नगर योजना (City planning of Harappan civilization)
भारतीय इतिहास में नगरों का प्रादुर्भाव सर्वप्रथम सिन्धु घाटी सभ्यता में ही हुआ। नगर एक ऐसा विशाल जनसमूह होता है जिसकी जीविका प्रधानतः व्यापार वाणिज्य पर निर्भर करती है।
1. नगर नियोजन (town planning)-
हड़प्पा सभ्यता के अधिकांश नगरों में प्रायः समरूपता दिखती है । किंतु फिर भी कुछ नगरों (लोथल,चन्हूदड़ो,सुरकोटदा आदि) के नगर निवेश में कुछ अंतर मिलता है, जो संभवतः स्थानीयता का द्योतक है।
2. नगर योजना की विशेषताएं (Characteristics of city planning):-
(i) नगर विन्यास की पद्धति:-
एक दूसरे को समकोण पर काटती सीधी रेखाओं की पद्धति को जाल पद्धति कहते हैं। यह शतरंज के बिसात(chess board) की तरह दिखती है।
(ii) नगर विन्यास के दो भाग –
सिन्धु सभ्यता के नगर मुख्यतः 2 भागों में विभाजित हैं।
(b) निचला व मुख्य शहर: पूर्व की तरफ
धौलावीरा नगर विन्यास |
◆ लोथल और सुरकोटदा में दुर्ग और आवासीय क्षेत्र के अलग अलग टीले के साक्ष्य नहीं मिले हैं। लोथल और सुरकोटदा पुरास्थल के सम्पूर्ण क्षेत्र एक ही रक्षा प्राचीर से घिरे हुए थे।
कालीबंगा दुर्ग व नगर विन्यास |
यह सामान्यतः किलेबंद/दुर्गीकृत नहीं होता था।
हड़प्पा सभ्यता (Harappan civilization) के नगर या आवासीय क्षेत्र में सामान्य वर्ग के लोग रहते थे , जिनमें सामान्य नागरिक, व्यापारी, शिल्पकार, कारीगर, श्रमिक, आदि शामिल थे।
अपवाद~ ◆ कालीबंगा,लोथल तथा सुरकोटदा
दुर्ग क्षेत्र में बड़े बड़े भवन हैं, जो संभवतः प्रशासनिक तथा धार्मिक गतिविधियों के केंद्र थे।
दुर्ग क्षेत्र में प्रशासक, पुरोहित वर्ग के सदस्य रहते रहे होंगे।
मोहनजोदड़ो में किले के भीतर पुरोहित आवास (Collegiate buildings),सभा भवन, अन्नागार , और विशाल स्नानागार स्थित थे।
हड़प्पा के दुर्ग टीले के विषय में विस्तृत जानकारी का अभाव है, क्योंकि लोगों द्वारा ईंटो के निकल ले जाने के कारण दुर्ग के भवनों की रूपरेखा स्पष्ट नहीं हो सकी है।
◆ कालीबंगा पुरास्थल का दुर्ग क्षेत्र, पूरब से पश्चिम जाने वाली दीवार से, उत्तर व दक्षिण में बंटा हुआ है।
(iii).प्रवेश द्वार –
नगर में प्रवेश के लिए एक सामान्य प्रवेश द्वार बना हुआ था। प्रवेश द्वारों की संख्या एक से अधिक हो सकती थी।
(IV). रक्षा दीवार व बुर्ज :
हड़प्पा सभ्यता के नगरों के दुर्ग क्षेत्र प्रायः सुरक्षा दीवार से घिरे थे। रक्षा दीवार पर थोड़ी थोड़ी दूर पर बुर्ज(अट्टालकाएं)Tower तथा पुश्ते (Bastions) बने होते थे जो सामान्यतः रक्षा दीवार से ऊंचे होते थे ।
सुरक्षा दीवार बहुत चौड़ी होती थी।(मोहनजोदड़ो की सुरक्षा दीवार की चौड़ाई 43 फ़ीट थी।)
अपवाद~ ◆ लोथल पुरास्थल की सुरक्षा दीवार में बुर्ज नहीं पाया गया है।
अपवाद~ ◆ सुरकोटदा से पत्थर की रक्षा दीवार तथा मोहनजोदड़ो से पक्की ईंटों के बुर्ज प्राप्त हुए हैं।
★लोथल का दक्षिणी पूर्वी भाग दुर्ग क्षेत्र था जिसमें अन्नागार अथवा मालगोदाम स्थित था। इसी क्षेत्र में अन्य महत्वपूर्ण भवन रहे होंगे क्योंकि एक कतार में बाहर स्नानगृह व ढकी हुई नालियां मिली हैं। किले बंदी की 3 दीवालें बनाई गई हैं। दीवालों का निर्माण मिट्टी की कच्ची ईंटो और पत्थरों से किया गया है।
★कालीबंगा के दुर्ग को एक लंबी दीवाल से उत्तर -दक्षिण दो भागों में विभाजित किया गया था। कालीबंगा के दुर्ग क्षेत्र के दक्षिणी आधे भाग में मिट्टी और कच्ची ईंटो के कई आयताकार क्षतिग्रस्त चबूतरे मिले हैं। एक चबूतरे पर एक पंक्ति में सात अग्निकुंड मिले हैं , जिनमे पशुओं की हड्डियां, श्रृंग तथा राख मिली है। पुरातत्वविद् इसका संबंध धार्मिक गतिविधियों से जोड़ते हैं।
★धौलावीरा में सम्पूर्ण नगर को तीन भागों-दुर्ग,मध्य नगर, और अवम नगर में विभाजित किया गया है।
(V)ईंट-
सिंधु घाटी सभ्यता के नगरों की विन्यास में तथा इमारतों में पक्की ईंटों का जिस पैमाने पर उपयोग मिलता है वैसा तत्युगीन विश्व की अन्य सभ्यताओं में अलभ्य है।
हड़प्पा सभ्यता की ईंट |
जिस समय मिस्र निवासी पक्की ईंटो के प्रयोग से अनभिज्ञ थे इस समय सिन्धु घाटी सभ्यता के निवासी कच्ची व पक्की दोनों प्रकार की ईंटो का प्रयोग बड़ी कुशलता से प्रचुर मात्रा में कर रहे थे।
काटने के बाद कच्ची ईंटो को धूप में रखकर भरपूर सुखाया जाता था। और पक्की ईंट बनाने के लिए उसे भट्ठे में तपाया जाता था।
मकान, नालियां तथा स्नानगृह अच्छी तरह पकाई गई ईंटो की सहायता से बनते थे।
【अपवाद~◆ लोथल, रंगपुर, तथा कालीबंगा में भवनों के निर्माण के लिए कच्ची ईंटो का ही प्रायः उपयोग किया गया है।
◆ कालीबंगा में पकी ईंटो का प्रयोग केवल नालियों, कुओं, तथा दहलीजों के निर्माण हेतु किया गया है।】
इन ईंटो का आकार प्रकार अलग अलग है, जिससे यह अनुमान लगाया है सकता है कि इस काल मे ईंट निर्माण निश्चयतः एक उद्योग का रूप ले चुका था। तथा बड़े पैमाने पर चलाए गए इस उद्योग में कई प्रकार के हाथ काम कर रहे थे।
ईंटें चतुर्भुजाकार (अधिकांश आयताकार) होती थीं।
ईंटो का आकार लंबाई:चौड़ाई:ऊंचाई ― 4:2:1 थी।
मोहनजोदड़ो से प्राप्त सबसे बड़ी ईंट 51.43 सेमी.× 26.27 सेमी.× 6.35 सेमी. के आकार की है।
सामान्यतः 27.94 सेमी.× 13.97 सेमी.× 6.35 सेमी. के आकार का प्रयोग सुप्रचलित था।
सबसे छोटी ईंट का आकार 24.13 ×11.05 × 5.08 सेमी. का है।
A. कच्ची ईंटे-
इसका प्रयोग सामान्यतः रक्षा दीवार, चबूतरे व सड़को के निर्माण में किया जाता था।
B. पक्की ईंट-
पक्की ईंटों का प्रयोग विशाल या दुमंजिले भवन निर्माण में होता था।
C. फन्नीदार ईंट-
इस प्रकार की ईंटे जलनिकासी व्यवस्था में प्रयुक्त होती थीं।
D. अलंकृत ईंट-
इस किस्म की ईंटे एक मात्र कालीबंगा के फर्श के निर्माण में प्रयोग में लायी गयी हैं।
E. L आकार की ईंट-
मकान के किनारे, मकान के बाहरी हिस्से व मल निकास में प्रायः L आकार की ईंटो का प्रयोग देखने को मिलता है।
एल आकार की ईंटो को कभी कभी कोन बनाने के लिए प्रयोग किया जाता था।
ईंट की जुड़ाई में :
● ईंट की जुड़ाई में गीली मिट्टी का प्रयोग सर्वाधिक हुआ है जो लगभग सभी पुरास्थलों के सभी स्थानों पर देखने को मिल सकता है।
● जिप्सम(खड़िया मिट्टी) का प्रयोग बहुधा नालियों के ईंटो की जुड़ाई में किया जाता था। जिप्सम(खड़िया मिट्टी) और मिट्टी के गारे का प्रयोग पलस्तर करने के लिए किया जाता था।
● बिटुमिन का प्रयोग भी ईंटो की जुड़ाई हेतु मोहनजोदड़ो के वृहत स्नानागार में दिखाई पड़ता है।
●चूना मिट्टी का प्रयोग भी ईंटो को जोड़ने में यदा कदा (एकाध जगह) किया गया है।
◆ सम्पूर्ण सभ्यता में ईंटो की जुड़ाई हेतु सीमेंट, बालू व सुर्खी चूना के प्रयोग का अभाव था।
3. हड़प्पा सभ्यता के आवासीय भवन – (Harappan civilization)
हड़प्पा सभ्यता (Harappan civilization) के उत्खनन में प्रायः सभी पुरास्थलों से छोटे-बड़े सभी प्रकार के भवनों के ध्वंसावशेष मिले हैं।
सैंधव सभ्यता के भवन 3 प्रकार के हैं―निवास गृह, विशाल भवन तथा सार्वजनिक स्नानागार।
(i).आंगन:
सिन्धु घाटी सभ्यता के नगरों में प्रत्येक आवासीय भवन के बीचोबीच में एक आंगन होता था
मोहनजोदड़ो के आवासीय घर |
(ii) कमरे:-
आंगन के तीन या चारों ओर कमरे बने होते थे।
सामान्य मकान में 4-5 या 6 कमरे होते थे।
हड़प्पा सभ्यता से प्राप्त कमरे के अवशेष |
कुछ मकान सम्भवतः मंदिर थे। नगर के भवन अपनी सादगी के लिए प्रसिद्ध थे।
प्रायः समस्त भवनों का निर्माण नींव डालकर होता था। ये नींव प्रायः कच्ची अथवा टूटी फूटी ईंटो से भरी जाती थी। सीलन और बाढ़ से बचने के लिए कभी कभी मकान ऊंचे ऊंचे चबूतरों पर भी बनाए जाते थे।
अधिकांश मकानों में रसोईघर, स्नानागार व कुएँ मिले हैं। कुछ मकानों में शौचालय के भी साक्ष्य मिले हैं। संभवतः ये बड़े(सम्पन्न) लोंगो के रहे होंगे।
(iii) दीवार-
मकान की दीवार कभी धूप में सुखाई गयी कच्ची ईंटो की , कभी आग में तपाई गयी पक्की ईंटो की तो कभी पुराने मकानों से निकली हुई पुरानी ईंटो से बनाई जाती थी।
उत्खनन से प्राप्त दीवार |
साझी दीवारे बहुत कम देखने को मिलती हैं।
दीवारों में हवा तथा प्रकाश हेतु पत्थर की जाली लगाई जाती थी। इससे यह सूचित होता है कि इस सभ्यता के निवासी स्वास्थ्य तथा सफाई के प्रति सजग थे।
(iv) सीढियां-:
सिंधु सभ्यता के मकानों में सीढ़ियों के साक्ष्यों से मकान के दो मंजिले होने की संभावना व्यक्त की गई है।
हड़प्पा सभ्यता से प्राप्त सीढियाँ |
सीढियां ऊंची और तंग(संकरी) हैं। सीढ़ियों के नीचे रिक्त जगह नहीं है।
दुमंजिला मकानों की नीवें अधिक गहरी होती थी। और उनकी पहली मंजिल की दीवारें अधिक चौड़ी होती थी जिससे कि वे अपने ऊपर की मंजिल का भार सुगमतापूर्वक उठा सके।
(v) ईंटो की जुड़ाई-
ईंटों को जोड़ने(चिनने) में प्रायः मिट्टी के गारे का प्रयोग किया जाता था। मैके महोदय के अनुसार दीवारों पर प्लास्टर करने की भी प्रथा थी। यह प्लास्टर बहुधा मिट्टी का परंतु कभी कभी जिप्सम का भी होता था।
(vi) फर्श-
सिन्धु सभ्यता के मकानों की फर्श मिट्टी की कच्ची या पकी ईंटो से बनाई गई है। कतिपय मकानों की फर्श मिट्टी को कूटकर बनाई गई है।
(vii) छत-
सिंधु सभ्यता के छतों के स्पष्ट साक्ष्य नहीं मिले हैं। विद्वानों का अनुमान है कि संभवत: छतें घासफूस तथा सरकंडे से बनाई जाती थीं जिन पर मिट्टी का लेप लगाया जाता था।
उल्लेखनीय है कि हड़प्पा सभ्यता के किसी भी पुरास्थल से भवनों की छतों में धातु के प्रयुक्त होने के साक्ष्य नही मिले हैं।
छतों के ऊपर पानी निकालने के लिए मिट्टी या लकड़ी के परनाले बने होते थे।
सामान्यतः सिन्धु प्रदेश के प्रत्येक अच्छे घर मे आंगन, पाकशाला, स्नानागार, शौचालय और कुंए की व्यवस्था रहती थी।
(viii) पाकशाला-:
प्रायः आंगन के किसी कोने में पाकशाला बना ली जाती थी। भोजन लकड़ी से जलने वाली अंगीठियों, चूल्हों अथवा भट्टियों में बनता था।
(ix) स्नानागार-
स्नानागार प्रायः मकान के उस भाग में बनाये जाते थे जो सड़क अथवा गली के निकटतम हो जिससे कि नालियों और परनालों द्वारा उनका पानी सुगमतापूर्वक सड़क की नालियों तक पहुचाया जा सकें।
चित्र: नीचे है
स्नानागार की फर्श पक्की ईंटों से पटी होती थी। यह पटान इतनी अच्छी होती थी कि ईटों के बीच में कहीं भी दरार नहीं दिखाई देती।
स्नानागार की फर्श ढलवा बना हुआ है और पानी निकालने के लिए मोरी की ओर झुकाव है। ताकि पानी की एक बूंद भी न रुके।
(x) कुआँ-:
सिन्धु प्रदेश के प्रायः सभी घरों में कुआं होता था।
गढ़ी क्षेत्र में तो सभी मकानों में कुएं की व्यवस्था थी।
सामान्यतः कुँआ वृत्ताकार एवं अंडाकार होता था।
यह कुएं अपनी ईटों की दृढ़ जुड़ाई(चिनाई) के लिए प्रसिद्ध है।
लोथल से प्राप्त कुंआ |
पानी रस्सी की सहायता से निकाला जाता था।
पानी खिंचने के लिए कुओं पर घिर्री(घिरनी) का प्रयोग होता था।
रस्सी की रगड़ आज तक कुछ कुएं की मुंडेर के पत्थरों पर दिखाई देती है।
पानी निकालने हेतु कुछ कुओं पर गिरी(घिरनी) भी लगी रहती थी।
(xi) दरवाजे, खिड़कियां-:
यह आश्चर्य की बात है कि सिंधु प्रदेश के अधिकांश दरवाजे और खिड़कियां मुख्य सड़कों की ओर ना होकर गलियों की ओर ही होते थे।
इसके वास्तविक कारण का अनुमान लगाना कठिन है। संभवतः मुख्य सड़क के प्रदूषण एवं कोलाहल से बचने हेतु दरवाजे, खिड़कियां एवं रोशनदान सड़कों की और न होकर पीछे किसी गलियों में खुलते थे।
【अपवाद~ केवल लोथल नगर के घरों के दरवाजे मुख्य सड़क की ओर खुलते थे।】
भवनों के द्वारों पर मेहराबों का प्रयोग नहीं मिलता है। उन पर लकड़ी का पटाव ही अधिक दिखाई देता है।
【अपवाद~ लोथल में गोलाकार मेहराब बनाने की कोशिश की गई है। संभवत: सफलता भी मिली होगी।】
द्वारों में लकड़ी की चौखट तथा लकड़ी के किवाड़ों(दरवाजों) का प्रयोग किया जाता था।
दरवाजे दीवार के मध्य में न होकर किनारे लगाए जाते थे। द्वारों की माप 3’4″ से 3’10” तक होती थी।
मकान एक दूसरे से सटाकर बनाये जाते थे। किंतु कभी-कभी दो मकानों के बीच एक 1-2 फुट चौड़ा गलियारा छोड़ दिया जाता।
किंतु कहीं कहीं यह भी साक्ष्य मिला है कि दो मकानों के बीच की जगह को ईटों से भर दिया गया है।
(xii) स्तम्भ-
मकानों को बनाने में ईंटों से बने स्तंभों के भी साक्ष्य मिले हैं। यह वर्गाकार या आयताकार होते थे, न कि मेसोपोटामिया के जैसे गोलाकार।
उल्लेखनीय है कि लकड़ी से बने स्तंभों का साक्ष्य अब तक नहीं मिला है।
स्तंभो का प्रचलन सामान्य तौर पर नहीं था।
इस प्रकार हम देखते हैं कि हड़प्पा सभ्यता में अन्य विशेषताओं के साथ साथ भवन निर्माण भी एक महत्वपूर्ण विशेषता रही है। इतने प्राचीन काल मे ऐसी तकनीकी से घर बनाना एक अजूबे से कम नही था। ऐसे अनेकों तत्व आज भी विद्यमान हैं जो हड़प्पा सभ्यता के भवनों में देखने को मिलते हैं।
4. हड़प्पा सभ्यता की सड़कें:-
सिंधु घाटी सभ्यता की प्रमुख विशेषता सुनियोजित सड़कों का निर्माण माना जाता है। सभ्यता की वास्तुकला में सड़कों का महत्वपूर्ण स्थान रहा है।
हड़प्पा सभ्यता के धौलावीरा से प्राप्त सड़क |
सड़के एक दूसरे को समकोण पर काटती थी। मोहनजोदड़ो और लोथल में मुख्य मार्ग उत्तर से दक्षिण की ओर बनाए गए हैं। जबकि कालीबंगा में सड़कों का निर्माण पूर्व – पश्चिम दिशा में किया गया है।
नगर के मुख्य मार्ग सामान्य सड़कों की अपेक्षा अधिक चौड़े हैं। मोहनजोदड़ो में मुख्य मार्ग 9.15 मीटर चौड़ा तथा गलियां औसतन 3 मीटर चौड़ी थी। इसी प्रकार कालीबंगा में मुख्य सड़क 7.20 मीटर चौड़ी तथा गलियां 1.80 मीटर चौड़ी है। लोथल में मुख्य मार्ग 4 – 6 मीटर तक चौड़े हैं, जबकि गलियों की चौड़ाई 2 से 3 मीटर तक है।
सड़के सामान्यता कच्ची ईंटों या मिट्टी से बनी होती थी फिर भी कहीं-कहीं पक्की सड़क बनाए जाने के साक्ष्य भी मिले हैं।
हड़प्पा सभ्यता से प्राप्त पक्की सड़कें |
प्रायः सड़कों के दोनों तरफ ढकी हुई नालियां मिली हैं।
सड़कों की सफाई का बड़ा ध्यान रखा जाता था। इनके किनारे जगह-जगह कूड़ा करकट एकत्र करने के लिए गड्ढे खोदे जाते थे अथवा कूड़ेदान/कूड़ापात्र रखे जाते थे। हड़प्पा में इसी प्रकार गड्ढे मिले हैं। मोहनजोदड़ो की एक सड़क के दोनों ओर ऊंचे ऊंचे चबूतरे मिले हैं। संभवत: दुकानदार इस पर अपनी वस्तुओं का विक्रय करते थे। कहीं कहीं सड़कों के किनारे भोजनालय के ध्वंसावशेष मिले हैं।
5. हड़प्पा सभ्यता की नालियाँ-
सिन्धु-प्रदेश के प्रायः सभी नगर अपनी नालियों की व्यवस्था के लिए प्रसिद्ध हैं। प्रायः प्रत्येक सड़क और गली के दोनों ओर पक्की ईंटो की नालियाँ बनाई गई थीं। इनकी लंबाई चौड़ाई विभिन्न है।
हड़प्पा सभ्यता से प्राप्त नाली |
कुछ नालियां 9 इंच चौड़ी और 12 इंच गहरी हैं, कुछ नालियां 23 सेमी. चौड़ी तथा 50 सेमी. तक गहरी थी किन्तु अन्य इससे दुगुनी चौड़ी और गहरी भी थीं।
ये नालियां बड़ी ईंटो या पत्थर से ढकी हैं और आवश्यकता अनुसार उन्हें हटाया भी जा सकता था।
नालियों की जुड़ाई और प्लास्टर में मिट्टी, चूने तथा जिप्सम का प्रयोग मिलता है। किसी-किसी नाली में मेहराब भी दृष्टिगत होता है।
बरसात का पानी निकलने के लिए नालियों में कुछ कुछ अंतर पर छेद बने होते थे।
मकानों के कमरों, रसोई, स्नानगृह, शौचालय आदि से आने वाली नालियाँ अथवा परनाले सड़क की नालियों में मिल जाते थे। इसी प्रकार नगर की छोटी-छोटी नालियाँ बड़ी तथा प्रमुख नालियों में मिल जाती थीं।
घरों के बरसाती और स्नानघरों और शौचालयों के पानी और मलमूत्र आदि बहने के लिए नालियों में मलकूप(Man holes) बने होते थे, जोकि बड़ी ईंट से ढके होते थे। इसे हटाकर साफ किया जाता था।
इस सुयोजना के द्वारा घरों, गलियों और सड़कों का गन्दा पानी नगर के बाहर निकाल दिया जाता था।
[मोहनजोदड़ो तथा हड़प्पा में ऐसी नालियां भी मिली है जो किसी नाली के स्थान पर सोख्ता गड्ढो में गिरती थीं।]
मोहनजोदड़ो में नालियों के किनारे रेत के ढेर मिले हैं, जिससे यह अनुमान लगाया गया है कि समय-समय पर इन नालियों को साफ करने की भी व्यवस्था थी।
नालियों के किनारे कहीं-कहीं गड्ढे बने हुए मिले हैं अनुमानतः नालियों को साफ करने के पश्चात् उनसे निकाला हुआ कूड़ा-करकट, रेत और कीचड़ इन्हीं गड्ढों में जमा कर दिया जाता था। कहीं-कहीं लम्बी नदियों के बीच में गड्ढे (soak-pit) बना दिये जाते थे। इनमें कूड़ा-करकट जमा हो जाता था और नदियों का प्रवाह अबाध रहता था।
सिन्धु प्रदेश की सड़कों और नालियों की ऐसी सुन्दर व्यवस्था 18वीं शताब्दी तक पेरिस और लन्दन के प्रसिद्ध नगरों में भी न थी। सिन्धु प्रदेश की इस योजना को देखने से स्पष्ट हो जाता है कि वहाँ के प्रत्येक नगर में कोई न कोई स्थानीय सरकार अवश्य कार्य करती होगी।
6. शौचालय:-
हड़प्पा से प्राप्त शौचालय |
शौचालय के मल मुत्रों का निकास घरों की छोटी नालियों से गलियों की नालियों तक तथा गलियों की नालियों द्वारा सड़कों की नालियों से बहता था।
7. सफाई व्यवस्था:-
घरों में कूड़ापात्र के साक्ष्य देखने को मिले हैं। प्रत्येक घर के कूड़ापात्र का कूड़ा व्यक्ति सड़कों पर रखे कूड़ापात्र या गड्ढो में डाल देते थे।
कूड़ापात्र मिट्टी का होता था।
8. प्रकाश व्यवस्था:-
:-हड़प्पा सभ्यता का प्रशासन:-
:-हड़प्पा सभ्यता की कला-:
कला के अंतर्गत वास्तुकला, मूर्तिकला, चित्रकला आदि आते हैं।
(1) हड़प्पा सभ्यता की वास्तुकला
भवन निर्माण की कला को वास्तुकला कहा जाता है। भारत में वास्तुकला का आरंभ सिन्धुवासियों ने किया।
सिन्धु सभ्यता के नगरों एवं भवनों में उत्कृष्ट इंजीनियरिंग के प्रमाण मिलते हैं।
सिन्धु सभ्यता एक नगरीय सभ्यता थी और इस सभ्यता के नगरों के अवशेषों से नगर-विन्यास का परिचय मिलता है जो की उपर्युक्त वर्णनों में वर्णित है।
सिन्धु सभ्यता की वास्तुकला के प्रमुख उदाहरण है-भवन निर्माण, बृहत् स्नानागार, अन्नागार, सभा भवन, पुरोहित आवास, गोदीबाड़ा/बंदरगाह, विशाल जलाशय आदि ।
(i) भवन निर्माण कला:-
भवन निर्माण कला का विस्तृत वर्णन ऊपर दर्शाया जा चुका है।
(ii) वृहत् स्नानागार (The great bath) –
मोहनजोदड़ो का विशाल स्नानागार |
यह मोहनजोदड़ो का सर्वाधिक प्रसिद्ध स्मारक है। यह ईंटों से निर्मित है। इसका निर्माण दुर्ग क्षेत्र में किया गया है । यह 54.85 मीटर लंबा और
32.90 मीटर चौड़ा है (क्षेत्रफल की दृष्टि से सिन्धु सभ्यता की सबसे बड़ी इमारत)। इसके मध्य में स्थित स्नान कुंड की लंबाई 11.88 मीटर, चौड़ाई 7.01 मीटर एवं गहराई 2.43 मीटर है। इसके उत्तर तथा दक्षिण की ओर 2.44 मीटर चौड़ी सीढ़ियाँ बनायी गई है।
(iii) स्नानकुण्ड:
स्नानकुण्ड |
यह 39 फीट लम्बा, 23 फीट चौड़ा और 8 फीट गहरा है। इस स्नानकुण्ड में जाने के लिए दक्षिण और उत्तर दोनों ओर ईंटों की सीढ़ियाँ बनी हुई हैं। इनके ऊपर लकड़ी की पट्टक लगाई गई है।
उत्तरी, सीढ़ियों के समीप एक पीठिका (Platform) है जिसके समीप एक अन्य छोटी सीढ़ी है। इस स्नान कुंड की दीवारें बड़ी सुदृढ़ हैं। उनमें ईंटों की चिनाई (जुड़ाई) बड़ी सावधानी एवं कुशलता के साथ की गई है।
दीवार में पक्की ईंटों का प्रयोग किया गया है। कुण्ड के फर्श पर खड़ी पक्की ईटें लगाई गई हैं और वे भी भलीभाँति काट-काट कर जिससे कि उनके बीच में कम-से-कम दराज रहे। पुनः फर्श और दीवारों की जुड़ाई जिप्सम से की गयी है।
कुंड की फर्श की ढाल दक्षिण-पश्चिम की ओर है। अत: पानी निकालने के लिए इसकी मोरी का निर्माण भी दक्षिण-पश्चिम की दिशा में ही हुआ है।
कदाचित् समय-समय पर कुण्ड की सफाई की जाती थी। उस समय उसका गन्दा पानी इसी मोरी के द्वारा बाहर निकाल दिया जाता था। मोरी का पानी बाहर बनी हुई एक नाली में गिरता था।
कुंड के तीन ओर बरामदे एवं इनके पीछे कई छोटे-छोटे कमरे और गैलरियाँ बनायी गए हैं।
स्नानागार के उत्तर में 2 पंक्तियों में 8 स्नानकक्ष बने हैं।
इन कमरों में छोटी छोटी नालियां बनी हैं। ये कमरों का पानी निकालकर बाहर की बड़ी नाली में डाल देती थीं। कमरों की फर्श तथा दीवाल पक्की ईंट की बड़ी सावधानी व मजबूती से जोड़ी गई है।
सम्भवतः यहाँ पर लोग पूजा करने के पूर्व कपड़े बदलते रहे होंगे।
स्नानकक्ष से दूसरी मंजिल पर जाने हेतु सीढियाँ बनी थीं। सम्भवतः दूसरी मंजिल पर पुरोहितों का आवास था और धार्मिक अनुष्ठान किया जाता था।
अर्नेस्ट मैके के अनुसार इस बृहत् स्नानागार का निर्माण धर्मानुष्ठान संबंधी सामूहिक स्नान के लिए किया गया था। [भारतीय संस्कृति में धार्मिक अनुष्ठान की सफलता हेतु सरोवर में ‘अवभृथ स्नान’ की परंपरा रही है। अवभृथ स्नान में किसी धार्मिक अनुष्ठान की समाप्ति पर नदी या सरोवर में जाकर सामूहिक स्नान एवं वरुण (जल देवता) का पूजन किया जाता है।]
जॉन मार्शल समेत अनेक विद्वानों की राय में यह तत्कालीन विश्व का एक आश्चर्यजनक निर्माण था।
डी0 डी0 कोशाम्बी बृहत्स्नानागार की तुलना कालान्तर के संस्कृत ग्रन्थों में अनेकशः वर्णित ‘पुष्कर’ अथवा ‘कमलताल’ से करते हैं जो धार्मिक संस्कार से सम्बन्धित स्नान तथा शुद्धिकरण के अलावा राजाओं और पुरोहितों के अभिषेक के लिये आवश्यक माने जाते थे।
इसी बृहत् स्नानागार के आधार पर डी.डी. कोसंबी ने उस समय वेश्यावृत्ति रही होगी ऐसी संभावना व्यक्त की है।
(iv) अन्नागार(Granary):
हड़प्पा से प्राप्त अन्नागार के साक्ष्य |
सिन्धु सभ्यता में अन्नागार का विशिष्ट स्थान था। जहाँ मेसोपोटामिया में वसूला जानेवाला अनाज मंदिरों में सुरक्षित रखा जाता था, वहाँ सिन्धु सभ्यता में इसको एकत्र करने के लिए अन्नागार बनवाये गये थे।
अन्नागारों के अवशेष मोहनजोदड़ो, हड़प्पा, चन्हुदड़ो, लोथल, कालीबंगा आदि से प्राप्त हुए हैं। अन्नागार दुर्ग क्षेत्र के भीतर बने हुए थे ।
(A) मोहनजोदड़ो का अन्नागार-
मोहनजोदड़ो का अन्नागार 45.72 मीटर(150 फुट) लंबा और 22.86 मीटर(75 फुट) चौड़ा था। यह 1.52 मी. ऊंचे चबूतरे पर निर्मित है।
इसमें ईंटो के विभिन्न आकार प्रकार के कुल 27 खण्ड(शालाएं/प्रकोष्ठ) थीं। प्रत्येक 2 खण्डों के मध्य आड़ी तिरछी दरारें(रोशनदान) छोड़ी गई है। जिससे अन्नागार में स्वस्थ वायु तथा प्रकाश प्राप्त हो सके।
अन्नागार पक्की ईंट से बनाया गया था। इसकी दीवारें अति सुदृढ़ थीं। इसका ऊपरी ढांचा जो शायद बांस का बना था अब नष्ट हो गया है।
इसका मुख्य प्रवेश द्वार नदी की तरफ था, जिससे अनाज को लाकर रखने में सुविधा होती थी। इसके उत्तर में एक चबूतरा है जो अन्न रखने तथा निकलने में उपयोगी था।
मार्टिमर ह्वीलर ने इसकी पहचान अन्नागार के रूप में की।
कुछ इतिहासकारों ने इसे राजकीय भण्डार कहा है जिसमे जनता से वसूला गया कर के रूप में अनाज रखा जाता था।
जान मार्शल के अनुसार यह इमारत(अन्नागार) अपनी संरचना, सुदृढ़ आकार प्रकार, प्रकाश हवा आने की व्यवस्था, इसमें अन्न भरने की सुविधा तथा आकारगत विशालता के लिए सैंधव युगीन भवन स्थापत्य में उच्च कोटि का है तथा उल्लेखनीय स्थान रखता है।
(B) हड़प्पा का अन्नागार-
हड़प्पा के दुर्ग-क्षेत्र के उत्तर में 50 फुट लम्बे तथा 20 फुट चौड़े अन्नागारों की दो लम्बी-लम्बी पंक्तियाँ मिली हैं।
प्रत्येक पंक्ति में इस आकार के अन्नागारों की कुल संख्या 6 मिलती है। इन अन्नागार कक्षों के अतिरिक्त यहाँ एक ही क्रम में पकी ईटों के चबूतरे प्राप्त हुए हैं। परातत्वविदों की राय में ये संभवतः अन्नागारों की नींव के लिए बनाए गए थे।
अन्नागार के दक्षिणी भाग में ईटों की गोल-गोल चबूतरों की पंक्तियाँ प्राप्त हुई हैं। इन चबूतरों की फर्श की दरारों में गेहूँ तथा जौ की भूसी मिली है, जिसके आधार पर विद्वानों का कहना है कि इनका उपयोग अनाज गाहने अथवा पीसने के लिये किया जाता रहा होगा।
(v) सभा भवन(Assembly hall):
मोहनजोदड़ो के दुर्ग क्षेत्र में एक विशाल सभा भवन का अवशेष मिला है।
मोहनजोदड़ो से प्राप्त सभा भवन |
पाटलिपुत्र के मौर्य राजप्रासाद की भांति इस भवन की छत भी स्तम्भों पर आधारित है। 20 चौकोर स्तंभो पर आधारित इसकी छत पकी ईंटों से जोड़ी गई थी। इसमें पांच-पांच स्तम्भों की कुल चार पंक्तियाँ थीं।
इस विशाल भवन की फर्श ईंट और चूने से बड़ी मजबूत बनी थी।
सभा-कक्ष में निर्मित पाँच-पाँच ईटों की ऊंचाई की चार चबूतरों की पंक्तियाँ मिली हैं। उन पर संभवतः लकड़ी के खम्भे खड़े किए गए थे। कुछ विद्वानों की राय में ये चबूतरे सभाजनों के बैठने के लिए बनाये गये थे।
भवन के भीतर बैठने के निमित्त चौकियां व बेंचे बनाई गई हैं।
इस भवन के पश्चिम में आवासीय कक्षों की एक पंक्ति प्राप्त होती है। यहाँ से बैठी हुई मुद्रा मे पुरुष की एक प्रतिमा प्राप्त हुई है।
अनुमान है कि इस सभा भवन का उपयोग धार्मिक सभाओं के लिए किया जाता था।
दीक्षित के मत में इसका उपयोग धर्म-चर्चा के लिए होता था।
अर्नेस्ट मैके की राय में इसका उपयोग बाजार के लिए होता था।
जॉन मार्शल ने इसकी तुलना बौद्ध गुफा मंदिर से की है।
मार्टिमर हीलर के अनुसार यह भवन मुगलकालीन ‘दरबार-ए-आम’ की तरह का था।
(vi) पुरोहित आवास/उच्चाधिकारी आवास (Priest Residence/ Residence Of high official):
मोहनजोदड़ो के दुर्ग क्षेत्र में बृहत्स्नानागार के उत्तर-पूर्व में 70.10 मी. लम्बे तथा 23.77 मीटर चौड़े के आकार के एक विशाल भवन के अवशेष मिलते हैं।
इसमें 10 मीटर का वर्गाकर प्रांगण, तीन बरामदे तथा कई कमरे बने थे। कुछ की फर्श पक्की ईटों की बनायी गयी थी। कमरों से स्नानकक्ष भी मिले हैं।
इस भवन के विशाल आकार-प्रकार तथा स्नानागार से इसकी सन्निकटता को देखते हुए अनुमान किया जाता है कि संभवतः यहाँ प्रधान पुरोहित अपने सहयोगियों के साथ निवास करता था। संभव है यहाँ ‘पुरोहितों का विद्यालय’ (college of priests) स्थित रहा हो।
अर्नेस्ट मैके इसे राज्यपाल के निवास हेतु बनाया गया भवन मानते हैं।
(vii) गोदीवाड़ा /बंदरगाह (Dockyard) :
लोथल में पक्की ईंटों से बना एक निर्माण मिला है। जिसकी लंबाई 21.4 मीटर चौड़ाई 36 मीटर एवं गहराई 4.5 मीटर है।
लोथल से प्राप्त बंदरगाह |
जल प्रवेश और जल निकास की व्यवस्था के आधार पर लॉरेन्स लेसनिक ने इसे गोदीबाड़ा न मानकर सिंचाई के लिए प्रयुक्त होने वाला जलाशय या तालाब माना है।
(viii) विशाल जलाशय (Giant Reservoirs) :
धौलावीरा से कई जलाशय प्राप्त हुए है जिनमें सबसे बड़ा जलाशय 80.4 मीटर लंबा, 12 मीटर चौड़ा एवं 7.5 मीटर गहरा है। इस जलाशय की जल धारण क्षमता 2,50,000 घन मीटर थी।
समग्रतः कहा जा सकता है कि सिन्धु सभ्यता की वास्तुकला उपयोगिता और सुन्दरता दोनों ही दृष्टियों से उत्कृष्ट कोटि की थी और इसकी तुलना आज के किसी उत्कृष्ट भवन निर्माण से की जा सकती है।
2. हड़प्पा सभ्यता की मूर्ति कला –
मूर्ति निर्माण कला की दृष्टि से विश्व की ताम्राश्म संस्कृतियों में हड़प्पा-संस्कृति का अप्रतिम स्थान है।
भारत में मूर्तिकला का आरंभ सिन्धु सभ्यता में ही हुआ।
(I) पाषाण/प्रस्तर मूर्तियां:-
मोहनजोदड़ो से एक दर्जन पाषाण मूर्तियाँ मिली हैं तथा हड़प्पा से दो-तीन प्रस्तर मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं। अधिकांश पाषाण मूर्तियाँ खण्डित हैं और अपेक्षाकृत छोटे आकार की हैं।
ज्यादातर मूर्तियाँ बैठी (आसन) अथवा खड़ी (स्थानक) मुद्रा में हैं।
A) मोहनजोदड़ो से प्राप्त:
मोहनजोदड़ो से प्राप्त 12 प्रस्तर मूतियों में से पाँच गढ़ी वाले टीले के एच.आर. क्षेत्र’ (H.R. Area) से मिली हैं जिससे उस क्षेत्र का विशिष्ट महत्त्व इंगित होता है।
मोहनजोदड़ो से उपलब्ध पाषाण-मूर्तियों में से चार में मानव सिर का, पाँच में बैठी हुई आकृति को तथा शेष दो में पशुओं का मूर्तन किया गया है। इनमें मानव-धड़ वाली मूर्तियों में सिर तथा दोनों भुजाओं को अलग से उकेर कर गले अथवा कंधों के नीचे बने छिद्रों (साकेट) द्वारा जोड़ने का प्रमाण मिलता है।
पाषाण-मूर्तियों में एक आवक्ष-पुरुष-मूर्ति विशेष उल्लेखनीय है।
हड़प्पा सभ्यता से प्राप्त पुजारी की प्रतिमा |
इसके हाथ भी टूटे हुए हैं। इसकी दाढ़ी विशेष सँवरी हुई है, दाढ़ी के बाल पुरुष प्रस्तर में लकीर काट कर बनाये गये हैं। मूंछ रहित किन्तु सलीकेदार दाढ़ी वाले इस पुरुष का मुखमण्डल स्वस्थ तथा गोल है। केश-पाश पीछे की ओर सँवार कर एक फीते से बँधे हुए हैं। संम्भवतः यह मणिबन्ध-सदृश कोई अलंकरण लगता है, जो माथे पर आकर एक गोल अलंकरण से संयुक्त हो गया है।
अधिकांश विद्वान इसे भारत में सूती वस्त्र-निर्माण एवं उसके प्रयोग का प्राचीनतम कलात्मक साक्ष्य मानते हैं।
कलाविद् बेंजामिन रोलंड के अनुसार मोहनजोदड़ो की उक्त मूर्ति में उत्तरीय के रूप में प्रयुक्त तरिपतिया शाल कालान्तर में बौद्ध भिक्षुओं हारा प्रयुक्त ‘संघाटी” के समरूप माना जा सकता है। तिपतिया अलंकार प्राचीन क्रीट, मिस, तथा दजला -फरात नदियों की घाटी में विकसित सभ्यताओं म भी लोकप्रिय था। ऐसा परिधान अलंकार वहाँ की देवगूतियों में पिलता है।
निमीलित नेत्र की बनावट के आधार पर कुछ विद्वान इसे योगी की मूर्ति मानते हैं। इसके विपरीत विद्वानों का एक वर्ग इसे मेसोपोटामिया का पुरोहित प्रतिपादित करता है।
मोहनजोदड़ो के बैठी हुई उत्खनन से प्राप्त खंडित मूर्तियों में से 4 मानव के सिर का तथा 5 में बैठी हुई आकृतियों का अंकन मिलता है। इनके अतिरिक्त दो मूर्तियों में पशुओं का अंकन
प्राप्त होता है। उक्त बैठी हुई मूर्तियों में संरचित अंग-संचालन अथवा किसी ‘मुद्रा’ विशेष की अभिव्यक्ति कलात्मक निपुणता की दृष्टि से उल्लेखनीय है।
मोहनजोदड़ो से लगभग 17.8 सेमी लम्बा चूना पत्थर पर बना हुआ पुरुष का एक अन्य सिर भी मिला है।
B) हड़प्पा से प्राप्त:
हड़प्पा से जो तीन प्रस्तर मूर्तियाँ मिली हैं वे तकनीक की दृष्टि से सिन्धु सभ्यता की मूर्ति-परम्परा से नितांत भिन्न है। इन मूर्तियों की गर्दन तथा कन्धों में छेद हैं जिनसे यह इंगित होता है कि सिर एवं हाथ अलग से जोड़े गए थे। ऐसी स्थिति में इनकी स्थिति विवादास्पद एवं अनिश्चित है।
ये पूर्ण मानवाकृतियाँ न होकर धड़ मात्र हैं। इनमें से एक पुरुष धड़ है तथा दूसरी नारी धड़। इन्हें देखकर ऐसा प्रतीत होता है मानो सिन्धु-कालीन पाषाण मूर्तियों में धड़ तथा शेष शरीरांगों को अलग-अलग बनाने की परम्परा विद्यमान थी।
माधोस्वरूप वत्स द्वारा किये गए उत्खनन से प्राप्त लाल बलुआ पत्थर पर बनी हुई 9 सेमी ऊँची एक नवयुवक की मूर्ति है, जिसका मात्र धड़ बचा हुआ है।
हड़प्पा की दूसरी मूर्ति काले रंग के सिलेटी पत्थर पर निर्मित है। यह 10 सेमी ऊँची है।
सैन्धव सभ्यता में पाषाण मूर्तियों के उपर्युक्त रूपों के अतिरिक्त प्रस्तर निर्मित अनेक गौरी-पट्ट प्राप्त हुये है। इनकी आकार-संरचना लिंग और योनि-पूजा-परम्परा की ओर विद्वानों का ध्यान आकृष्ट करती है, जिसे आदमी शैवोपासना से कुछ सीमा तक जोड़ा जा सकता है।
(ii) धातु मूर्तियाँ-:
धातु की मूर्तियाँ सिन्धु घाटी के मूर्तिकार धातु-अयस्कों (Ores) को पिघलाने और दो धातुओं के संयोग से मिश्रित धातु बनाने की कला में पारंगत थे। धातु की बनी हुई मूर्तियाँ और मुहरें इसके प्रमाण है।
मोहनजोदड़ो, चान्हु-दड़ो, लोथल तथा कालीबंगा से कांस्य धातु की मूर्तियाँ अभी तक मिली हैं। मोहनजो-दड़ो से प्राप्त मूर्तियां बंद साँचे में ढाल कर बनाई गई थीं।
अपनी इस तकनीकी ज्ञान का उपयोग उन्होंने धातु-मूर्तियों के सृजन में किया है। उत्खनन में इस प्रकार की कतिपय मानव (नारी) तथा पशु मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं।
मोहनजोदड़ो के एच.आर. क्षेत्र के एक घर से प्रात 14 सेमी लंबी नर्तकी की कांस्य-मूर्ति विश्वविख्यात है। इस मूर्ति के पैरों के केवल नीचे के खंडित भाग को छोड़कर शेष भाग पूर्णतः सुरक्षित है।
इसके अतिरिक्त चेहरे पर लास्य एवं सौम्य भावों की कमी उसे किसी विशिष्ट नृजाति से जोड़ती है।
भगवत शरण उपाध्याय ने उसे द्राविड़, नस्ल से सम्बन्धित नारी बताया है। इस नारी मूर्ति की केश-सज्जा भी लक्षण है।
सहज भाव से नृत्य करती हुई इस युवती का कन्धे से कलाई तक चूड़ियों से भरा हुआ बायाँ हाथ आगे को झुके बायें घुटने पर टिका हुआ है।
नर्तकी अपनी हथेली में कोई वस्तु लिए हुये है, जिसे ठीक से पहचाना नही गया है।
बाजूबन्द तथा कलाई में दो-दो चूड़ियों से युक्त दाहिना हाथ कटि पर अवलम्बित है। गले में उसके एक कण्ठहार है जिस पर तीन लटकनें हैं।
आभूषणों को छोड़कर मूर्ति बिल्कुल नग्न है। इसकी केशराशि को कलात्मक ढंग से सँवारने के बाद एक वेणी में बाँध कर दाहिने कन्धे पर लटकती हुई छोड़ दिया गया है।
इस कांस्य मूर्ति की सहज भंगिमा, भाव-चेष्टा, अंगों-प्रत्यंगों की अभिराम भंगिमाएँ सब नृत्य क्रिया की सूचक हैं। मोहनजो-दड़ो के ‘डी.के. क्षेत्र’ से प्राप्त दूसरी नारी कांस्य मूर्ति कलात्मक दृष्टि से सामान्य कोटि की है।
इस नारी (नर्तकी) मूर्ति में यष्टिगत तनुजा, शरीरांगों में सहज भंगिमा तथा मुखमण्डल पर तरंगित भावचेष्टा सैन्धव कालीन कला-कुशलता, भाव-संप्रेषणता तथा सौंदर्यबोध का अलौकिक प्रतिमान माना जा सकता है।
हड़प्पा संस्कृति के पुरावशेषों में उक्त नर्तकी मूर्ति के अतिरिक्त दो अन्य धातु मानव मूर्तियाँ मिली हैं, जिनमें से एक अपनी कमर पर हाथ रखे हुये तथा दूसरा अपना एक हाथ ऊपर उठाये हुये है।
हड़प्पा से प्राप्त खंडित मूर्ति |
“सिन्धु सभ्यता में धातु की मानव मूर्तियों के अलावा मुहरें और धातु(कांस्य) की बनी हुई पशु मूर्तियाँ भी प्राप्त हुई हैं।
पशु-मूर्तियों में मोहनजोदड़ो से प्राप्त कांस्य की भैंसा और भेड़ा की मूर्तियाँ, कालीबंगा से प्राप्त ताँबे की सांड की मूर्ति, लोथल से बैल, कुत्ता, खरगोश और चिड़ियों की ताम्र-मूर्तियाँ आदि उल्लेखनीय हैं।
(iii) मृण्मूर्तियां:-
हड़प्पा सभ्यता की मृण्मूर्तियां |
हड़प्पा सभ्यता का आर्थिक जीवन-
सिन्धु सभ्यता के हडप्पा और मोहनजोदड़ो के साथ अनेक पूरास्थलों से नगरीय अर्थव्यवस्था के संकेत मिले हैं। नगरीय अर्थव्यवस्था में अन्तर्सम्बन्धों का मंत्र किसी क्षेत्रीय सीमा में आबद्ध नहीं होता है।
हड़प्पा सभ्यता के बाट |
1. कृषि:-
सैंधव निवासियों के जीवन का मुख्य उद्यम कृषि कर्म था जो कि आर्थिक जीवन मे प्रधान था।
तथापि सिन्धु तथा उसकी अन्य सहायक नदियों
द्वारा प्रतिवर्ष उर्वरा मिट्टी बहाकर लायी गयी कछारी मैदानों में उपलब्ध जलोढ़ उपजाऊ मिट्टी कृषि कर्म के लिए सर्वथा उपयुक्त थी।
सैन्धव कृषक समुदायों के उदय का प्राचीनतम साक्ष्य बलूचिस्तान तथा सिन्ध के मैदानी क्षेत्रों में अवस्थित मेहरगढ़ एवं फीली गुलमुहम्मद जैसी ग्रामीण बस्तियों के पुरावशेषों से प्राप्त हुए हैं।
यहाँ के लोग पशुचारण के साथ साथ ग्रामीण बस्तियों में स्थायी निवास तथा कृषि कर्म भी करते थे।
मेहरगढ़ संप्रति पाकिस्तान के बलूचिस्तान प्रान्त में प्रसिद्ध बोलन दरें के सन्निकट स्थित एक महत्वपूर्ण पुरास्थल है।
यहाँ ई०पू० पाँच सहस्राब्दी में स्थायी रूप से कैसे ग्रामीण बस्ती के पुरासाक्ष्य प्राप्त हुए हैं। मेहरगढ़ के किसान भेंड़-बकरी तथा अन्य पालतू पशुओं को पालने और उन्हें चराने के अतिरिक्त गेहूँ, जौ, खजूर एवं कपास, आदि की खेती भी करते थे पुरातात्विक उत्खननों में इनके द्वारा प्रयुक्त मृद्भाण्ड, दस्तकारी की वस्तुएं तथा कच्ची मिट्टी के झोपड़ों के साक्ष्य प्राप्त हुए हैं।
यहाँ के प्रमख खाद्यान्न गेहूं तथा जौ थे। खुदाई में गेहूँ तथा जौ के दाने मिलते हैं।
संभवतः सिन्धु क्षेत्र में लोग धान की खेती करना नहीं जानते थे। गुजरात क्षेत्र में लोथल तथा रंगपुर के स्थलों से मृत्पिण्ड में लिपटे हए धान की भूसी मिली हैं जो अत्यन्त निम्न-कोटि के हैं। धान की खेती किये जाने का स्पष्ट प्रमाण हुलास से मिलता है किन्तु यह उत्तरकालीन है।
तीसरी सहस्राब्दी के मध्य काल तक अफगानिस्तान तथा बलूचिस्तान में सिन्धु नदी के तटवर्ती कछारी भू-भागों में बहुतेरे छोटे-बड़े गाँव बस चुके थे।
इनमें विशेष उल्लेखनीय गाँव थे – मुन्डीगक तथा फीलीगुल मोहम्मद ।
इसी प्रकार इस काल तक हड़प्पा के सन्निकट जलीलपुर, गुमला एवं रहमान डेरी आदि ग्रामीण बस्तियाँ सिन्धु तथा उसकी सहायक नदियों की उपजाऊ कछारी भाग में बस चुकी थीं। इन गांवों का विस्तृत आकार प्रकार यह इंगित करता है कि तत्कालीन कछारी इलाके के कृषक उपजाऊ जलोढ़ मिट्टी को कृषि-कार्य के लिए अधिक से अधिक उपयोगी बना लेना सीख गए थे।
उक्त उपजाऊ कछारी भूमि पर विकसित कृषि के परिणामस्वरूप अफगानिस्तान, बलूचिस्तान, सिन्धु, राजस्थान, पंजाब तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश आदि क्षेत्रों में ग्रामीण वस्तियों का निरन्तर विस्तार होता चला गया।
लोथल तथा रंगपुर से बाजरा की खेती किये जाने के प्रमाण मिलते हैं। रोजदी से बाजरे की छः किस्में जैसे-सांवा, कोदो, रागी, ज्वार आदि पहचानी गयी है।
हड़प्पा में मटर तथा तिल की खेती होती थी। सूती वस्त्रों के अवशेषों से निष्कर्ष निकलता है कि यहाँ के निवासी कपास उगाना भी जानते थे। सर्वप्रथम यहीं के निवासियों ने कपास की खेती प्रारम्भ किया था।
(ऐतिहासिक काल में मेसोपोटेमिया में कपास के लिये ‘सिन्ध’ शब्द का प्रयोग किया जाने लगा तथा यूनानियों ने इसे सिन्डन (Sindon) कहा जो सिन्धु का ही यूनानी रुपान्तर है।)
फलों में केला, नारियल, खजूर, अनार, नीबू, तरबूज आदि का उत्पादन होता था सिंचाई के लिये नदी से पर्याप्त जल प्राप्त होता था। मिट्टी नरम होने के कारण पाषाण तथा कांस्य निर्मित उपकरणों की सहायता से खेती की जाती थी।
कृषि-कर्म में उपयोगी उपकरणों के निर्माण हेतु इस काल के कृषक पत्तथर तथा धातु की खदानों का भरपूर उपयोग करने लगे थे। इस काल में चाक, तांवा तथा हल के प्रयोग ने कृषि-उत्पादन में क्रान्ति ला दिया। चाक पर बने असंख्य मृद्भाण्ड-खण्डों की बहुतायत में प्राप्ति से इनकी विविधता तथा इनके बहुविध उपयोग का पता चलता है। सैन्धव मृदभाण्डों की अद्भुत बनावट तथा शिल्पांकन पर इस बात को भी इंगित करता है कि इनके निर्माण में तत्युगीन क्षेत्रीय परम्पराओं का भी योग रहा होगा किन्तु तकनीकी दृष्टि से संपूर्ण सैन्धव युगीन मृद्भाण्ड में असाधारण एकरूपता मिलती है। इस काल में किसान श्रम से अधिक उत्पादन प्राप्त करने के लिये हल अथवा हैरो तथा माल ढोने के लिए पहिएदार बैलगाड़ी का प्रयोग करते थे। प्रारम्भिक उत्खननों में सैन्धव संस्कृति के किसी भी पुरास्थल से कृषि में प्रयुक्त होने वाले किसी भी उपकरण की प्राप्ति नहीं हो सकी थी।
मिट्टी नरम होने के कारण पाषाण तथा कांस्य निर्मित उपकरणों की सहायता से खेती की जाती थी।
हल आदि कृषि उपकरणों के साक्ष्य के अभाव में डी0 डी0 कोशाम्बी का विचार है कि सैन्धव निवासियों के पास भारी हल नहीं था तथा वे पाषाण निर्मित कुदाल की सहायता से ही खेती कर लेते थे।
डी0 डी0 कोसांबी के अनुसार- सिन्धुवासी संभवतः हल के स्थान पर काँटेदार पांचा अथवा हैरो जैसे किसी उपकरण का प्रयोग करते थे।
परन्तु इधर वी० वी० लाल’ ने सुप्रसिद्ध पुरास्थल कालीबंगन में संस्कृति के पूर्व के स्तरों से नगर की सुरक्षा प्राचीर के बाहर हल से जुते हुए खेत का स्पष्ट साक्ष्य प्राप्त किया है। फलतः अधिकांश विद्वान अब यह मानने लगे हैं कि हड़प्पा संस्कृति के कृषक हल से परिचित थे।
इस बीच पाकिस्तान के पंजाब और वहावल क्षेत्रों में गंभीर पुरातात्विक खोजें हुई हैं।
बहावलपुर क्षेत्र में हाकरा नदी की सूखी तलहटी में अवस्थित लगभग 40 ऐसी सैन्धव कालीन ग्राम्य-बस्तियों का पता चला है, जहाँ कृषि-कर्म का विशेष विकास हो चुका था।
इन क्षेत्रों से प्राप्त पुरावशेषों में मिट्टी से बने हलाकृति के कतिपय खिलौनों (Terracotta Ploughs) की प्राप्ति से भी उक्त मत की पुष्टि होती है।
जैसा कि पहले बताया जा चका है, यहाँ के लोग न केवल खेत की जुताई करते थे अपितु एक ही खेत में एक साथ दो फसले भी उगाना जानते थे।
संभव है उनके हल लकड़ी के रहे हो जो अब नष्ट हो गये हो क्योंकि हलों के हलों अभाव में व्यापक पैमाने पर कृषि की कल्पना नहीं की जा सकती।
मोहनजोदड़ो से मिट्टी के बने एक हल का प्रारूप तथा चोलिस्तान और हरियाणा के बनावली से मिट्टी के बने हल ( हल खिलौनों ) का पूरा प्रारूप प्राप्त हो चुका है।
विद्वानों में इस बात पर आज भी विमर्श जारी है कि सैन्धव कृषक कृषि कर्म में सिंचाई के लिए कौन सा साधन अपनाते थे।
सिंधु सभ्यता के प्रसार क्षेत्र में स्थित किसी भी पुरास्थल के उत्खनन से नहर द्वारा सिंचाई के साक्ष्य अब तक नही मिले हैं।
इस सम्बन्ध में अब तक दो प्रकार के विचार आये हैं― प्रथम तो यह कि सैन्धव कालीन पश्चिमोत्तर भारत की जलवायु सम्भवतः आज की अपेक्षा अधिक नम रही होगी।
द्वितीय विचार पुरातत्वविद लेम्ब्रिक का है। उन्होंने यह परिकल्पित किया है कि अधिक जल चाहने वाली फसलें बरसात में तथा कम सिंचाई चाहने वाली फसलें बरसात के ठीक बाद नदियों की बाढ़ वाले कछारी भाग में उगाई जाती रही होगी।
सैन्धव नगरों की समृद्धि को देखते हुए यह निष्कर्ष निकालना स्वाभाविक है कि वहाँ के किसान अपनी आवश्यकता से अधिक अनाज उत्पन्न करते थे तथा अतिरिक्त उत्पादन को नगरों में भेजते थे। सिन्धु सभ्यता का व्यापक नगरीकरण अत्यन्त उपजाऊ भूमि की पृष्ठभूमि में ही संभव हो सका था।
उस समय के कृषक पर्याप्त मात्रा में अन्न का उत्पादन कर न केवल अपनी बल्कि नगर में रहने वाले विभिन्न शिल्पियों, व्यापारियों एवं सामान्य नागरिकों की आवश्यकताओं की पूर्ति भी किया करते थे।
विभिन्न नगरों में अनाज रखने के लिये अन्नागार बने होते थे। इनमें सम्भवतः जनता से कर के रूप में वसूल किया गया अनाज रखा जाता था। अन्नागार या कोठार हड़प्पा संस्कृति के महत्वपूर्ण अंग प्रतीत होते है। इनके रखरखाव की व्यवस्था शासन द्वारा की जाती थी। इसके लिये राज्य की ओर से पदाधिकारी एवं कर्मचारी नियुक्त किये जाते थे ये बैंक या खजाने का काम करते होंगे। चूंकि उस समय सिक्कों के प्रचलन का निश्चित प्रमाण नहीं मिलता, अतः संभव है विनिमय अनाज के माध्यम से ही होता रहा हो।’
सैन्धव युगीन किसान अपने जीविकोपार्जन के लिए अनेक फसलों का उत्पादन करते थे। वे गेहूं की कम से कम दो किस्मों (ट्रिटिकम कम्पैक्टम और ‘ट्रिटकम स्फेरोकम) से परिचित हो चुके थे।
वह गेहूँ (Triticumcompactum अथवा T. sphacrococcum) आज भी पंजाब में उत्पन्न होता है। परन्तु उस समय का जौ (Hordcum Vulgate) अब पंजाब में नहीं होता।
इनके साक्ष्य हड़प्पा तथा मोहनजोदड़ो के उत्खननों से प्राप्त हुये हैं। लोग जो, मटर, तिल, सरसों, तरबूज, खजूर तथा कपास आदि की खेती करते थे। लोथल तथा रंगपुर में चिकनी मिट्टी की प्राप्ति तथा इस प्रकार की मिट्टी से बने पात्र में चावल की भूसी के मिलने से अब यह कहा जाने लगा है कि सम्भवतः इस काल के किसान चावल की खेती करने लगे थे।
पर्याप्त रूप से जल मिल जाने के कारण सिन्धु-निवासी चावल की खेती भी सुगमतापूर्वक करते थे।
हड़प्पा सभ्यता के लोग गन्ने से अपरिचित थे।
इसी प्रकार लोथल से बाजरे की खेती का प्रमाण मिला है।
उल्लेखनीय है कि समकालीन मेसोपोटामिया सभ्यता के प्रायः सभी नगरों से अन्नागारों के साक्ष्य मिलते हैं जिनमें कुछ तो अत्यन्त विशाल होते थे। अन्नागारों के पास ही अनाज कटने के चबूतरे तथा मजदूरों की बस्तियों के भी अवशेष मिले है। इनके अतिरिक्त लोग घरों में अनाज रखने के लिये खत्तियां भी बनाते थे। हडप्पा से इस प्रकार की तीन खत्तियां मिलती हैं। कालीबंगन से बड़े आकार के मर्तबान (जार) एक के ऊपर एक करके रखे हुए मिलते हैं। इनसे सूचित होता है कि लोग अपने खाने से अधिक उत्पन्न करते थे तथा भविष्य के लिये अनाज सुरक्षित भी रखते थे। अनाज को ओखली में कूटकर तथा सिलबट्टे द्वारा पीसकर आटा तैयार किया जाता था। प्रायः सभी स्थलों से सिलवट्टे मिलते है लोथल से एक वृत्ताकार चक्की के दो पाट भी मिलते हैं। ऊपर वाले पाट में अनाज डालने के लिये एक छेद बनाया गया है।
हडप्पा से प्राप्त मृण्पात्र की आकृति एक नारियल की भाँति है। दूसरे पात्रों पर केला, खजूर और अनार की आकृतियाँ बनी हैं। इनसे विद्वानों ने निष्कर्ष निकाला है कि कदाचित् सिन्धु-निवासी इन फलों की खेती करते थे। इसी प्रकार इस आभूषण की आकृति नीबू की भाँति है।
2. पशुपालन:-
सिन्धु सभ्यता में प्राप्त पशुओं की मूर्तियों, मुद्रा में उत्कीर्ण पशुओं के चित्रों और उत्खनन से प्राप्त पशओं के अवशेषों(हड्डी) से पशुपालन की जानकारी मिलती है।
यद्यपि गाय का कोई धार्मिक महत्व दृष्टिगोचर नहीं होता है तथापि दूध के लिए यह बहुसंख्यक मात्रा में पाली जाती थीं। यही कथन भैसों के लिए भी सत्य है।
उल्लेखनीय है कि सिन्ध सभ्यता में बैलों की दो श्रेणियाँ मिली हैं-डीलदार बैल तथा बिना डील वाले बैल । डीलदार बैलों के चित्रों के सामने मुुद्राओं में नाँद का अंकन नहीं मिलता है।
सिन्धु सभ्यता के लोग हाथी का पालन भी करते थे।
ये सब तत्कालीन समाज मे पालतू जानवर थे अथवा इनका शिकार होता था ये अभी भी विमर्श का विषय बना हुआ है।
सिन्धु सभ्यता के लोग घोड़े और ऊँट से परिचित थे अथवा नहीं, इस विषय पर विद्वानों में मतभेद है।
मोहनजोदड़ो के उत्खनन के समय ऊपरी स्तर से प्राप्त घोड़े का अस्थि-अवशेष आज भी विद्वानों को संशय में डाल रखा है। एस० आर० राव ने लोथल से प्रात एक मृण्मूर्ति पर घोड़े की आकृति को अंकित पाया है। परन्तु यह अश्वाकृति ही है या कुछ और, अभी भी निश्चयपूर्वक कुछ नहीं कहा जा सकता है। स्टुअर्ट पिगट की धारणा है कि बलूचिस्तान में स्थित राना घुण्डई में बसने वाले सैन्धव लोग घोड़े से अवश्य परिचित थे क्योकि राना घुंडाई से घोड़े के दाँत(जबड़ा) मिला है।
सुरकोटदा से घोड़े के अस्थिपंजर मिले हैं।
सैन्धव संस्कृति में अश्व अस्तित्व को प्रमाणित करने वाले कतिपय साक्ष्य सियाल्क तथा अनी नामक पुरास्थलों के द्वितीय स्तर से भी प्राप्त हुए हैं।
इसके अतिरिक्त लोथल तथा कालीबंगन आदि पुरास्थलों से भी घोड़े की मृण्मूर्तियां, हड्डियां, जबड़े आदि के अवशेष मिले हैं।
जहाँ तक घोड़े का प्रश्न है, प्रारम्भ में ऐसा माना जाता था कि सेन्धव लोग इससे परिचित नहीं थे और यह आर्यों का प्रिय पशु था। किन्तु लोथल, सुरकोटदा, कालीबंगन आदि स्थलों से घोड़े की मृण्मूर्तियों, हड्डियों, जोड़ने आदि के अवशेष मिल जाने के पश्चात अब यह निश्चित हो गया है कि इस पशु से भी सैन्धव लोग परिचित थे।
बी0 बी0 लाल ने कालीबंगन के उत्खनन से घोड़े के अवशेष मिलने की सूचना दी है। अतः अब यह नहीं कहा जा सकता कि घोड़े का अस्तित्व आर्य सभ्यता में ही था।
उपरोक्तानुसार यह माना जाता है कि सिंधु सभ्यता के लोग हाथी और घोड़े से परिचित अवश्य थे किंतु वे उन्हें पालतू बनाने में सफल नही हो सके थे क्योंकि हाथी और घोड़े पाले जाने के साक्ष्य प्रामाणिक नहीं हो पाए हैं।
सैंधव सभ्यता के लोग कुत्ते बिल्लियों के अतिरिक्त साधारण सवारी हेतु गधा भी पालते थे।
सुअर भी सिंधु प्रदेश का एक पालतू पशु था। खुदाई में इसके अस्थिपंजर तथा खिलौने उपलब्ध हुए हैं।
अन्य छोटे पशुओं और पक्षियों में बिल्ली, बंदर, खरगोश, हिरन, मुर्गा, तोता, उल्लू, मोर, हंस, बत्तख आदि के चित्र मूर्ति और खिलौने मिले हैं।
शेर का कोई साक्ष्य नही मिला है।
समाज में लोगों द्वारा पशुओं का उपयोग भार ढोने के लिए और खेती के कार्यों में किया जाता था। इसके अलावा सिन्धु सभ्यता के लोगों को पशुओं से दूध, मांस, खाल और ऊन प्राप्त होता था।
इसके अतिरिक्त कुछ पशुओं का धार्मिक महत्व था तथा कुछ को मांस के लिए पाला जाता रहा होगा।
3. शिल्प तथा उद्योग धन्धे:-
हड़प्पा सभ्यता के मृदभांड |
रंगे बर्तनों से पता चलता है कि सिंधु लोग रंगाई करने के काम से परिचित थे। चाक पर मिट्टी के बर्तन बनाना, खिलौने बनाना, मुद्राओं का निर्माण करना, आभूषण एवं गुरियों का निर्माण करना आदि कुछ अन्य प्रमुख उद्योग-धन्धे थे। धातुओं में सोना, चाँदी, ताँबा, कांसा तथा सीसा का उन्हें ज्ञान था और इनसे विविध प्रकार के आभूषण एवं उपकरण बनाये जाते थे खुदाई में तांबे-कांसे के उपकरण अधिक मात्रा में उपलब्ध होते हैं। इनमें घरेलू तथा कृषि-संबंधी उपकरण, अस्त्र-शस्त्र, बर्तन, कड़ाही, प्रसाधन सामग्रियां आदि प्रमुखता से मिलती है। तांबे तथा कांसे का प्रयोग मानव एवं पशु मूर्तियाँ बनाने में भी किया जाता था। चाँदी के न केवल आभूषण अपितु बर्तन भी बनाये जाते थे किन्तु सोने का कोई भी बर्तन नहीं मिलता है। इसी प्रकार सीसे के भी कुछ उपकरण मिलते धातुओं को गलाने, उन्हें पीटने तथा उन पर पानी चढ़ाने की विधि से लोग अच्छी तरह परिचित थे। शंख, सीप, घोंघा, हाथी-दाँत से भी उपकरणों का निर्माण करना वे जानते – थे। लकड़ी की वस्तुओं से पता चलता है कि बढईगिरी का व्यवसाय भी होता गाड़ी के पहियों तथा तख्तों के कई अवशेष मिलते हैं। सैन्धव भवन पकी ईंटों के बने है। इससे सूचित होता है कि ईंट उद्योग भी काफी विकसित अवस्था में था तथा कुछ लोग रोजगार के व्यवसाय में भी निपण थे। यहाँ के निवासी नावों का निर्माण करना भी जानते थे। सैंधव निवासियों ने विभिन्न उद्योग-धन्धों में निपुणता प्राप्त कर ली थी। उनके कुछ आभूषण एवं बर्तन, कला एवं तकनीक की दृष्टि से अत्यन्त उच्चकोटि के हैं। यहाँ के कुम्हार विशेष आकार-प्रकार के बर्तन बनाते थे। ये चिकने और चमकीले होते थे तथा इनकी अपनी अलग पहचान थी। सैन्धव सभ्यता के कुछ नगर विशिष्ट वस्तुओं के निर्माण के लिये प्रसिद्ध थे चन्दड़ो तथा लोथल में मनका बनाने (Lapidary) का कार्य होता था। दोनों स्थानों से इसके लिये कच्ची धातुयें, भट्टियां, गोरियां आदि पाई गयी है। चन्हूदड़ो में सेलखड़ी मुहरें तथा चर्ट के बटखरे भी तैयार किये जाते थे| बालाकोट तथा लोथल का सीप उद्योग (Shell-industry) सुविकसित था। सैन्धव निवासियों द्वारा पहने जाने वाले कंगन तथा अन्य आभूषण संभवतः यहीं तैयार किये जाते थे।
4. व्यापार वाणिज्य
सैन्धव संस्कृति की प्रमुख विशेषता उसका नगरीकरण है। इस काल में असंख्य छोटे-छोटे नगरों की स्थापना हुई थी। संपूर्ण सैन्धव क्षेत्र में इस प्रकार के नगरों का अधिक से अधिक बसाया जाना, तत्कालीन सक्रिय व्यापार-तंत्र को आलोकित करता है। प्रायः नगरीय अर्थव्यवस्था में अन्तर्सम्बन्धों का एक ऐसा तन्त्र विकसित हो जाता है, जो क्षेत्रीय अथवा भौगोलिक सीमाओं में बँध कर नहीं रहता है। कच्चे माल तथा व्यापारिक वस्तुओं के पारस्परिक आदान-प्रदान हेतु हड़प्पावासी अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के अतिरिक्त अपने अगल-बगल तथा दूर-दराज बसे देशों के साथ भी व्यापारिक एवं विनियम-सम्पर्क रखते थे।
यह सुविदित तथ्य है कि शहरी लोग खाद्यान्नों का स्वयं उत्पादन न करके अपने आस-पास अवस्थित ग्रामीण क्षेत्रों पर निर्भर करते हैं। अतः सैन्धव कालीन नगरवासी कृषि-कर्म में लग कर, व्यापार निर्माण कार्य, प्रौद्योगिकी एवं शिल्पांकन विकास धार्मिक तथा प्रशासानिक व्यवस्था आदि में संलग्न थे। इन कर्मों के फलस्वरूप कर, भेंट, उपहार, दान अथवा क्रय-विक्रय जन्य आर्थिक लाभ शहरी अर्थव्यवस्था को गतिशील करने में सहायक सिद्ध हुआ।
हड़प्पा कालीन शहरों में रहने वाले लोग अपने लिए उपभोग्य वस्तुओं की खोज में दूरस्थ देशों तक संपर्क रखते थे। यही कारण है कि इस काल में सैन्धव नगरों का जाल अफगानिस्तान में स्थित शारदा घई से लेकर गुजरात में स्थित भगवतराव तक विस्तीर्ण मिलता है। इन नगरों की अवस्थिति से हड़प्पा वासियों के अन्तक्षेत्रीय व्यापार, आपसी सम्बन्ध, आर्थिक अन्तर्निर्भरता तथा सुव्यवस्थित व्यापारिक गतिविधियों पर प्रकाश पड़ता है। उक्त आर्थिक परस्परावलंबन तथा संपर्क का मूल कारण मौलिक संसाधनों का अलग-अलग क्षेत्रों से उपलब्ध होना माना जा सकता है। इन संसाधनों में कृषि, पशु, खनिज, बहुमूल्य पत्थर तथा लकड़ी आदि सम्मिलित थे। इन वस्तुओं को व्यापारिक केन्द्रं, तथा मार्गों की स्थापना करके ही उपलब्ध किया जा सकता था।
कतिपय बहुमूल्य पत्थरों की प्राप्ति हेतु वे कई-कई दिन तक चलकर दूरस्थ प्रदेशों तक जाते थे। उदाहरण के लिए वैदूर्यमणि तथा फिरोजा के लिए वे हिन्दुकुश तथा पश्चिमोत्तर सीमांत देशों तक की यात्रा करते थे। संभवतः काश्मीर में सोना तथा मिथिला के स्रोत्रों से भी वे परिचित थे।
वे नील रत्न (Lapis Lazuli) को बदख्शां से, हरितमणि (Jade) को मध्य एशिया से, नीलमणि को महाराष्ट्र से, सुलेमानी पत्थर को पश्चिमी भारत तथा सौराष्ट्र से तथा शंख-कौड़ियों को सौराष्ट्र तथा दक्षिण-पश्चिम भारत के समुद्र तटों से लाते थे तथा उनका उपयोग करते थे।
मनके के लिए गोमेद का आयात गुजरात से किया जाता था। पाकिस्तान के रोड़ी और सक्कर की खानों से फ्लिंट तथा च्ट की आपूर्ति उपकरण बनाने के लिए अन्य क्षेत्रों में की जाती थी।
सैन्धव संस्कृति में धातुओं में सर्वाधिक खपत एवं उपयोग ताँबे का था। इसकी प्राप्ति राजस्थान के नागौर, जोधपुर तथा गणेश्वर आदि ग्रामों से तथा मुख्य रूप से खेतड़ी की खानों से होती थी। अकेले गणेश्वर पुरास्थल से 58 तांबे की कुल्हाड़ियाँ, 50 मछली पकड़ने वाले काँटे तथा 400 से अधिक ताम्र निर्मित वाण-फलक प्रकाश में आये हैं। राजस्थान के
अतिरिक्त तांबे का आयात अफगानिस्तान, बलूचिस्तान तथा उत्तरी-पश्चिमी सीमांत क्षेत्रों से भी किया जाता था।
चाँदी संभवतः ईरान तथा अफगानिस्तान से लाई जाती थी।
सोना जैमी बहुमूल्य धातु संभवतः कर्नाटक प्रदेश में स्थित कोलार खान, काश्मीर, फारस तथा अफगानिस्तान से मंगाया जाता था। विद्वानों का अनुमान है कि सिंधु संस्कृति के व्यापारीगण मेसोपोटामिया को भेजे गये अपने माल के बदले में संभवतः सोना एवं चाँदी आदि धातुओं को ही मूल्य के रूप में लिया करते थे।
अन्य धातुओं में शीशा संभवतः काश्मीर, राजस्थान, पंजाब तथा बलूचिस्तान प्रभृति क्षेत्रों से प्राप्त होता था।
किन्तु वैदूर्यमणि जैसी बहुमूल्य पत्थर उत्तरी-पूर्वी अफगानिस्तान में बदख्शां कीमती पत्थरों (Badakshan) से तथा जेड तथा फिरोजा आदि को मध्य एशिया से ही आयात किया जाता था ।
लाजबते, सफेद स्फटिक, गोमेद आदि रल पश्चिमी भारत तथा सौराष्ट्र प्रदेश में उपलब्ध थे।
इसी प्रकार जम्मू में स्थित मांदा (चेनाब नदी के तट पर) से कीमती लकड़ी तथा समुद्री-सीपियां गुजरात तथा पश्चिमी भारत के समुद्र तटों से उपलब्ध की जाती थी।
हडप्पा संस्कृति के लोग समानान्तर आकार के पत्थर के ब्लेड का प्रयोग करते थे, जिन्हें उच्च कोटि के पत्थरों से निर्मित किया जाता था। ये उत्तमोत्तम पत्थर सिन्धु क्षेत्र से हर जगह उपलब्ध नहीं थे पुरातत्वविदों के अनुसार इस प्रकार के पत्र संभवतः सिन्धु उपत्यका में अवस्थित सुक्कर (Sukkur) नामक पहाड़ी स्थल से प्राप्त किया जाता था। इस परिकल्पना का मुख्य आधार गुजरात प्रदेश में स्थित रायपुर पुरास्थल को प्रारम्भिक स्तर से मिले बहुतेरे प्रस्तर उपकरण है, जिन्हें तैयार करने के लिए वांछित पत्थरों को केवल इसी क्षेत्र से लाया जाता रहा होगा। कालान्तर में, यहाँ के हासोन्मुख हड़प्पा वासियों ने स्थानीय पत्रों से हथियार बनाना प्रारम्भ कर दिया था।
इसी प्रकार हड़प्पा संस्कृति की सभी बस्तियों से मिले धातु (ताँबा एवं काँसा) तथा प्रस्तर-उपकरणों में प्राप्त एकरूपता भी चौकाने वाली है। इनकी बनावट तथा वस्तुगत एकरूपता यह इंगित करती है कि समस्त सैन्धव क्षेत्र में उत्पादन तथा वितरण प्रणाली निश्चयतः किसी न किसी केन्द्रीय संस्था द्वारा नियन्त्रित की जाती रही होगी ऐसी केन्द्रीय संस्थाओं के नियंत्रक या तो तत्कालीन शासकगण रहे होंगे अथवा व्यापारीगण।
खनिज पदार्थों अथवा कच्चे मालों की संप्राप्ति से लेकर उनसे बनने वाली वस्तुओं के वितरण अथवा विनिमय आदि कार्यों की व्यवस्था हड़प्पा संस्कृति में विकसित नगरीय अर्थतन्त्र की देन थी। शहरीकरण के उत्तरोत्तर वृद्धि के साथ-साथ ही सैन्धव युगीन व्यापार तथा व्यापारिक सम्बन्धों के विकास को भी अनुरेखित किया जा सकता है। उत्खननों में मिले आकर्षक मनकों को तत्कालीन शहरीजन बड़ी रुचि के साथ प्रयोग में लाते थे।
चन्हुदड़ो से वैदूर्यमणि के कतिपय ऐसे मनके मिले हैं, जो आधे तैयार हो चुके थे तथा उनका आधा बनना बाकी रह गया था।
इस प्रकार के साक्ष्यों से स्पष्ट होता है कि सैन्धव निवासी बहुमूल्य पत्थरों को दूरस्थ क्षेत्रों से आयात कर उससे सुन्दर वस्तुएँ निर्मित कर सुदूर क्षेत्रों तथा देशों तक भेजा करते थे। उपलब्ध साक्ष्यों से यह भी ज्ञात होता है कि चन्हूदड़ो तथा लोथल में लाल पत्थर (Camelian) तथा गोमेद के मनके बहुतायत में बनते थे तथा इन्हें विदेशों में भी भेजा जाता था।
हड़प्पा युगीन नगर अधिकतर खानों के सन्निकट अथवा व्यापारिक मार्गों पर अवस्थित थे। कुछ नगर कृषि-उत्पादन वाले क्षेत्रों में तथा कुछ अनुपजाऊ भू-भागों में भी अवस्थित मिले। उदाहरण के लिए, बलूचिस्तान में मकरान, समुद्र-तट पर अवस्थित सत्कालिन नामक नगर मेसोपोटामिया के साथ हड़प्पा वासियों द्वारा स्थापित व्यापारिक सम्म संरेखित करता है। संभवतः यह एक विश्राम स्थल अथवा व्यापारिक चौकी जैसा पर केन्द्र रहा होगा।
शोर्तुघई (Shortughai) से मिले बहुसंख्यक वैदूर्यमणि के अवशेषों आलोक में कुछ विद्वान यह प्रस्तावित करते हैं कि दूरस्थ प्रदेशों में अवस्थित खनिजों प्राति हेतु हड़प्पा संस्कृति के लोग संभवतः अपने लिए उपनिवेश के रूप में छोटे-छोटे नगर को बसाया करते थे। इस प्रकार का उपनिवेशीकरण तत्कालीन सैन्धव लोगों की व्यापार कर्म में गहरी रुचि को प्रमाणित करता है। संभव है कि बाह्य या दूरस्थ देशों में वस्तुओं की प्राप्ति के प्रति उनकी आर्थिक संलग्नता के परिणामस्वरूप इन नगरों को बसाया गया रहा हो। ऐसा लगता है कि इस प्रकार की व्यापारिक व्यवस्था संभवतः किसी केन्द्रीय शासन द्वारा नियन्त्रित की जाती रही होगी।
(i) अंतर्क्षेत्रीय व्यापार-
प्रस्तुत विमर्श में सर्वप्रथम यह समझना अपेक्षित है कि सैन्धव लोगों की अन्तर्क्षेत्रीय विनिमय प्रणाली कैसी रही होगी।
यह तो तय है कि इस सुविस्तृत संस्कृति-क्षेत्र में अन्तक्षेत्रीय व्यापार का एक सुव्यवस्थित तंत्र अवश्य स्थापित रहा होगा पारस्परिक आदान-प्रदान की प्रक्रिया में विभिन्न समुदाय सक्रिय रहे होंगे उत्खननों से पता चलता है कि उस समय हड़प्पा संस्कृति के एक बड़े भू भाग में शिकारी समुदाय के लोग रहे होंगे, जिनका शिकार के अतिरिक्त एक अन्य महत्वपूर्ण कार्य खनिज पदार्थों का संग्रह करना भी रहा होगा।
इसके अतिरिक्त पठारी क्षेत्रों में यायावरीय जीवन यापन करने वाले पशु-चारक तथा उपजाऊ मैदानी भाग में कृषक समुदाय के लोग अवस्थित थे। विद्वानों का अनुमान है कि तत्कालीन खानावदोस अथवा शिकारी वर्ग के लोग, जो खनिज पदार्थों के संग्रह का कार्य करते थे, के साथ हड़प्पा युगीन व्यापारियों का नियमित लेन-देन न होकर, मौसमी अथवा एक नियत समय पर एक निश्चित स्थान, हाट या बाजार में एकत्रित होकर विनिमय संपन्न किया जाता था।
व्यापारिक प्रक्रिया को व्यवस्थित ढंग से गतिशील रखने के लिए सैन्धव युगीन व्यापारियों ने संपूर्ण क्षेत्र में एक समरूप नाप और तौल प्रणाली विकसित कर लिया था।
मोहनजोदड़ो, हड़प्पा, कालीबंगा और लोथल के उत्खनन से विभिन्न प्रकार के बाट प्राप्त हुए हैं।
पुराविद् स्टुअर्ट पिगट की व्याख्यानुसार तौल द्विचर (दुगुना) प्रणाली में क्रमश:1,2,4,8.16,32,64,160,320,640,1600 तथा 3200 तक ऊपर नियोजित किया गया था। इस तौल-प्रणाली में सबसे चालू पट्टा 16 इकाई का प्रतीत होता है, जो 120.898 रत्ती (13.64 ग्राम) के लगभग अपनी तौल-मूल्य रखता था। उक्त विद्वान की धारणा है कि छोटे तालों में मापक्रम द्विचर अथवा युग्मक, किन्तु बड़ी तौल अथवा ज्यादा चालू बट्टा 16 से गुणा होने वाले दर्शक माने जा सकते हैं।
इसी प्रकार खण्डात्मक तौलों में प्रायः तृतीयांश मापन प्रणाली प्रचलित थी। सैन्धव बट्टे अपनी बनावट में रोचक लगते हैं। ये प्रायः घनाकार हैं। छोटे बट्टे चौकोर तथा बड़े तिकोनिया बनाये जाते थे सैन्धव युगीन बट्टों में प्रायः एकरूपता मिलती है।
छोटे बट्टों को सलेटी अथवा चकमक पत्थर से बनाया जाता था। किन्तु इस काल के अधिकांश बट्टों का निर्माण चकमक के अतिरिक्त चर्ट, चाल्सिडनी, स्लेट पत्थर, सेलखड़ी, चूना पत्थर तथा प्रस्तर-खण्डों से किया गया है। यह विभिन्न आकार- बेलनाकार, ढोलाकार, शंक्वाकार, घनाकार और वर्तुलाकार आदि मिले हैं।
सामानों को तौलने के लिए मिट्टी और धातु के तराजू के पलड़े भी मिले हैं किंतु इनकी संख्या सीमित है। सम्भवतः बांस की टोकरी के आकार के पलड़ों का भी उपयोग किया जाता रहा होगा।
जहां तक माप का प्रश्न है, लम्बाई प्रायः आज के एक फुट की इकाई के समान मान्य थी, संभवतः 37.6 सेंटीमीटर की माप परिगणित रही होगी। इसी प्रकार अद्यावधि लोकप्रचलित एक हाथ की लम्बाई का माप लगभग 51.8 से 53.6 सेंटीमीटर तक बहुमान्य प्रतीत होती है।
मोहनजोदड़ो के उत्खनन से सीप निर्मित एक पैमाना(स्केल) मिला है। इसी प्रकार लोथल से भी हाथी दांत का एक पैमाना प्राप्त हुआ है।
सैन्धव युगीन नगरों के व्यापारिक स्थलों से बहुसंख्यक मुद्रा (मुहर) तथा मुद्रांकन प्राप्त हए हैं। इन मुद्रांकनों के पृष्ठ-भाग पर अंकित चटाई अथवा रस्सीनुमा चिन्ह इस बात को घोषित करता है कि इनका उपयोग संभवतः व्यापारिक माल की गाँठ पर ठप्पे की तरह किया जाता रहा होगा।
पुराविद् एस० आर० राव को लोथल में उत्खनन के समय व्यापारिक गोदामों में जली हुई राख में पड़े कतिपय मुद्रांकन प्राप्त हुए हैं। डा० राव के अनुसार संभवतः इन मुद्रांकन को बाह्य देशों से आयातित माल के गट्ठरों को गोदामों में खोल लेने के बाद एक किनारे फेंक दिया गया था।
अस्तु, निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि सैन्धव कालीन मुद्रांकनों का प्रयोग माल के स्वामित्व-निर्धारण तथा बाह्य अथवा दूरस्थ देशों को निर्यात किए जाने वाले व्यापारिक माल की गुणवत्ता तथा सत्यता को प्रमाणित करने के लिए किया जाता था।
सिन्धु सभ्यता में व्यापारिक गतिविधियों को संचालित करने के लिए विभिन्न यातायात के साधनों की जानकारी भी उत्खनन से मिली है। पुरातात्विक साक्ष्यों के आधार पर माना जाता है कि मैदानी क्षेत्र में दो या चार पहियों की गाड़ी का प्रयोग किया जाता था गाड़ियों में बैलों और भैसे का प्रयोग होता था। गाडियों के अलावा हाथियों, बकरों और खच्चरों का उपयोग माल ढोने के लिए किया जाता था। मोहनजोदड़ो से एक मुहर प्राप्त हुई है, जिस पर नाव का अंकन किया गया है। इसी प्रकार लोथल के उत्खनन से खिलौना-नाव’ का साक्ष्य मिला है। सम्भवत: सिन्धु घाटी के आन्तरिक और बाह्य (विदेशी)व्यापार में नावों का उपयोग यातायात के लिए किया जाता था। लोथल के उत्खनन से गोदी (बंदरगाह) पत्थर के लोग और पोत निर्माण के साक्ष्य मिले हैं जिससे विदेशी व्यापार में नावों या जलपोतों के उपयोग की पुष्टि होती है। सिन्धु सभ्यता के अनेक पुरास्थल समुद्र तटीय भी मिले हैं जो व्यापारिक गतिविधियों के संचालन के केन्द्र रहे होंगे। ऐसे प्रमुख केन्द्रों में गुजरात में भगतराव (किम नदी के तट पर), मेघम (नर्मदा के तट पर), प्रभास पाटन (हिरण्य नदी के तट पर) लोथल (भोगवा और साबरमती के संगम पर), पाकिस्तान के दक्षिणी बलूचिस्तान में स्कागेन-डोर (दश्त नदी के मुहाने पर). सोत्का-कोह (शादीकौर नदी के मुहाने पर) और बालाकोट (विन्दार नदी के तट पर) आदि की गणना की जा सकती है।
(ii) विदेशी व्यापार-
सिन्धु सभ्यता के विदेशी (बाबा) व्यापार के विषय में पुरावशेषों से विस्तृत जानकारी प्राप्त होती है। प्राप्त साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि सिन्धु सभ्यता का सम्बन्ध पश्चिम एशिया और मध्य एशिया से था। सिन्धु सभ्यता का व्यापार अफगानिस्तान, दक्षिणी तुर्कमेनिस्तान (सोवियत रूस), फारस की खाड़ी के देशों, मेसोपोटामिया (ईरान-ईराक) के साथ होता था।
हड़प्पावासियों का व्यापारिक सम्बन्ध हजारों मील दूर स्थित मेसोपोटामिया के साथ स्थापित था। इस बात के पुरातात्विक प्रमाण दजला-फरात नदियों (मध्य एशिया) के तटों पर अवस्थित तत्कालीन निसुर सुमेर, उर तथा सूसा आदि नगरों के उत्खननों से मिली लगभग दो दर्जन हड़प्पा कालीन मुहरें हैं। निप्पुर नामक पुरानगर से उपलब्ध एक मुहर पर सैन्धव लिपि अंकित है तथा उस पर एक-शृंगी पशु को भी उकेरा गया है ऐसी ही दो सैन्धव मुहरें मेसोपोटामिया के प्रसिद्ध पुरानगर किश (Kish) के उत्खनन से भी प्राप्त हुई हैं, जिन पर एक-श्रृंगी पशु तथा सैन्धव लिपि उत्कीर्ण है। यहाँ के प्राच्य नगर उम्मा (umma) के पुरावशेषों में एक सैन्धव लिपि अंकित हड़प्पा युगीन मुहर की प्राप्ति भी उल्लेखनीय है।
फारस की खाड़ी में स्थित बहरीन (Behrain) तथा फैलका (Failka) आदि पुरानगरों से विगत देशकों में कतिपय सैन्धव कालीन मुहरों का पता चला है। मध्य एशियाई भू-भागों में सैन्धव मुहरों की प्राप्ति इस बात की साक्षी है कि हड़प्पा संस्कृति के लोग उक्त क्षेत्रों के साथ व्यापारिक सम्बन्ध रखते ये। मुहरों के अतिरिक्तमध्य एशियाई देशों से कतिपय अन्य सैन्धव पुरावशेषों की प्राप्ति से भी इसी तथ्य की पुष्टि होती है। सैन्धव मृण्मूर्तियां मेसोपोटानियों के निप्पल, किश तथा तेल असमार आदि पुरानगरों से उपलब्ध हुई हैं। यहाँ से प्राप्त मृणाकृतियों में एक मोटे उदर वाला पुरुष, अस्पष्ट घड़, पशु आकृतियाँ, सिर हिलाने वाले तथा पूंछदार पशु आकृतियों आदि महत्वपूर्ण हैं मृण्मूर्तियों के अतिरिक्त किश, उर तथा तेल असमार से प्राप्त नकाशीदार लाल पत्थर के मनके, तौल के बट्टे, जोड़ा युक्त हड्डी के शिल्पांकन भी सैन्धव कालीन व्यापारिक सम्बन्ध के पुरातात्विक साक्ष्य माने जा सकते हैं।
सैन्य युगीन व्यापारियों में बहुत लोकप्रिय चौसर (पासा) के बहुसंख्यक सूर्य मेसोपोटामिया के पुरास्थलों से प्रकाश में आए हैं। जिस प्रकार सूर्य युगीन मनके, पासे, मुहरें तथा शिल्पाकृतियाँ मेसोपोटामिया से उपलब्ध हुई हैं, उसी प्रकार मेसोपोटामिया संस्कृति की कतिपय वस्तुएँ सैन्धव युगीन नगरों के उत्खननों से भी प्राप्त हुई हैं। उदाहरण के लिए, मोहनजोदड़ो से मेसोपोटामिया की बेलनाकार मुहरें तथा धातु की कुछ तैयार वस्तुएं मिली है, जिसे सैन्धव वासियों ने वहीं से आयात किया था। बेलनाकार किन्तु किञ्चित् लघु आकार की कतिपय पारसीक मुहर लोथल से भी प्राप्त हुई हैं। इन पर पक्षियों के आलोक में यह संभव प्रतीत होता है कि सैन्धव एवं मेसोपोटामिया के व्यापारियों के बीच प्रत्यक्ष व्यापारिक सम्बन्ध स्थापित रहा होगा। किन्त कुछ विद्वान साक्ष्यों अत्यल्प को ध्यान में रखकर दोनों देशों के बीच प्रत्यक्ष ब्यापारिक सम्बन्ध पर सन्देह व्यक्त करते है। परन्तु मेसोपोटामिया से उपलब्ध कतिपय प्राचीन लेख उक्त व्यापारिक सम्बन्धों की पुष्टि करते हैं। सारगान (2350 ई० पू०) जो अक्काद (मेसोपोटामिया) का एक महान् नरेश था, ने एक लेख में कहा है कि दिलमुन (Dilmum), मगन (Magan) तथा मेलुहा (Meluha) आदि केन्द्रों के जहाज उसकी राजधानी में आकर रुकते थे।
ब्रिजेंट एल्विन एवं एम० ई० एल० मेलावा प्रभृति पुरातात्विक विद्वानों ने दिलमुन की पहचान वर्तमान बहरीन देश से करना यथोचित बताया है। कतिपय विद्वानों ने मगान का समीकरण वर्तमान पाकिस्तान के मकरान से तथा मेलुा की पहचान सिन्धु के मुहाने पर अवस्थित सैन्धव नगर से अथवा समुद्र तटीय सैन्धव व्यापारिक नगरियों से किया है। मेसोपोटामिया के सुप्रसिद्ध पुरानगर उर (Ur) से प्राप्त साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि वहाँ के व्यापारी मेलुहा के व्यापारियों से हाथी दाँत, गोमेद, ताँबा, सीपी, मोती, वैदर्यमणि तथा इमारती लकड़ी आदि खरीदते थे इसी प्रकार, सिन्धु संस्कृति के लोग मेसोपोटामिया तथा फारस से ऊन, कपड़े, चाँदी, मेवे, चमड़े तथा खुशबूदार तेल आदि वस्तुओं का आयात करते थे। मेसोपोटामिया से प्राप्त उपर्युक्त आभिलेखिक साक्ष्य से ज्ञात होता है कि सिन्धु संस्कृति के साथ मध्य एशियाई देशों का गम्भीर व्यापारिक सम्बन्ध ई० पू० 2350 से लेकर 1900 ई० पू० तक विकसित अवस्था में था। ऐसा मानने का एक प्रमुख आधार यह है कि मेसोपोटामिया के साहित्यिक उल्लेखों में मेलुहा क्षेत्र से जाने वाले सैन्धव व्यापारियों का अंकन मात्र 1900 ई० पू० तक ही हुआ है, तदुपरान्त नहीं।
सैन्धव युगीन विदेशी व्यापार अधिकांशतः बड़ी-बड़ी नौकाओं अथवा जहाजों के माध्यम से होता था। उत्खननों से मिली मुहरों पर नावों अथवा जहाजों को उचित्रित किया गया है। लोथल के उत्खनन में 219 मीटर लम्बा, 37 फुट चौड़ा तथा 4.5 मीटर ऊंचा ईटों से निर्मित एक गोदीशाला अथवा माल घाट (Dock Yard) का पता चला है, जहाँ सैन्धव युगीन जहाजों को रोक कर व्यापापिक माल लादा अथवा उतारा जाता था। लोथल से एक जहाज की मृण्मूर्ति प्राप्त हुई है, जिसको देखने से तत्युगीन नौकायन का बोध होता है। सैन्धव युगीन कतिपय अन्य महत्वपूर्ण बन्दरगाहों में सोमनाथ, रंगपुर तथा बाला कोट आदि उल्लेखनीय हैं। इसी प्रकार इस काल मे बैलगाड़ी, गधा तथा भैंसों को अधिकतर परिवहन के साधन के रूप में उपयोग में लाया जाता था। बैलगाड़ी अंतरक्षेत्रीय परिवहन का प्रमुख साधन रही होगी इसका सर्वाधिक अंकन तत्कालीन मृण्मूर्ति कला में हुआ है। हड़प्पा नगर के पुरावशेषों में कांस्य निर्मित बैलगाड़ी के भी कतिपय साक्ष्य मिले हैं। सामान्य भार-वाहन-हेतु बैलों को बहुत उपयोगी समझा जाता था।
सामाजिक संरचना एवं जीवन यापन का स्वरूप:
सैन्धव वासियों की शारीरिक बनावट, रंग तथा उनके आकार-प्रकार का परिज्ञान हमें इस काल की पाषाण, धातु तथा पकी मृण्मूर्तियों की आकृतियों के अतिरिक्त उत्खनन में मिले कंकालों के अवलोकन से होती है। मोहनजोदड़ो के उत्खनन से उपलब्ध मानव कंकालों की शारीरिक संरचना के सम्यक् अध्ययन के आधार पर सिन्धु उपत्यका में निवसित मनुष्यों को निम्न चार नृजाति-समूहों में विभक्त किया जा सकता है
1- प्रोटो-आस्ट्रेलायड
2- भूमध्य सागरीय
3- मंगोलायड तथा
4- अल्पाइन
मोहनजोदड़ो से प्रोटो-आस्ट्रेलायड नृजाति समूह के तीन कंकाल प्रकाश में आए हैं। इनका कद नाटा, कपाल संकरा और लंबा, नाक किञ्चित् चपटी एवं चौड़ी तथा ठुड्डी बाहर की ओर निकली हुई है। इनके सिर के बाल घुंघराले तथा शरीर का रंग काला रहा होगा। इधर इनकी शारीरिक संरचना की तुलना श्रीलंका के पेद्दा जाति तथा दक्षिण भारत में निवसित कतिपय आदिवासी जातियों से की जाने लगी है। विद्वानों का एक वर्ग उन्हें सिन्धु क्षेत्र का मूल निवासी मानता है मोहनजोदड़ो से भूमध्य सागरीय नृजाति वर्ग के अब तक कुल छह कंकालों के साक्ष्य प्राप्त हुए हैं। शारीरिक बनावट में ये प्रोटो आस्ट्रेलायड कंकालों से भिन्न हैं क्योंकि इनके कपाल आकार में लम्बे तथा नाक नुकीली एवं अपेक्षाकृत छोटी है। इसी कोटि का एक नरकंकाल बलूचिस्तान क्षेत्र में अवस्थित नाल से तथा दो कंकाल अनु नामक पुरास्थल से उपलब्ध हुए है। जहाँ तक मंगोलायड जाति का सम्बन्ध है, उसके कंकालीय साक्ष्य बहुत कम मिल पाए है। अभी तक मात्र एक नरकंकाल इस नृजाति वर्ग का मिल पाया है।
स्टुअर्ट पिगट का मत है कि यह मंगोलायड वर्गीय कंकाल सिन्धु उपत्यका का निवासी न होकर संभवतः बाहर से आया हुआ मंगोल सैनिक प्रतीत होता है। मैके उक्त कंकाल को ईरान के पठारी क्षेत्र का निवासी मानते हैं। हड़प्पा संस्कृति-क्षेत्र में बसने वाली चौथी नृजाति अल्पाइन मूल की प्रतीत होती है। इस कोटि के अभी तक तीन कंकाल प्रकाश में आए हैं। पिगट की धारणा है कि इस प्रकार के अस्थि-अवशेष ईरान देश के सिलाल्क क्षेत्र भी से प्राप्त हुये हैं, जिनकी संभावित तिथि चार हजार ईसा पूर्व प्रतिपादित की गई है पुराविद् गुहा एवं सेवा की धारणा है कि मोहनजोदड़ो नगर मध्य एशियाई क्षेत्रों से स्थलमार्ग द्वारा जुड़ा हुआ था। अस्तु, इस नगर में विभिन्न नृ-समूहों का बराबर आवागमन तथा निवास सहजतः अनुमेय है। मोहनजोदड़ो से मिली कांस्य-नर्तकी की मुखाकृति प्रोटो-आस्ट्रेलायड नृजाति के लक्षणों से मेल खाती है। अधिकांश विद्वान इन्हीं प्रोटो-आस्ट्रेलायड लोगों को सिन्धु घाटी का मूल निवासी मानते हैं। कालान्तर में इनका वैवाहिक सम्बन्ध भूमध्यसागरीय नृ-जाति समूह के लोगों के साथ स्थापित होने लगा था।
अब तक प्राप्त साक्ष्यों तथा शोधों के आधार पर अधिकांश विद्वान इसी निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि सिन्धु उपत्यका में एक नहीं अनेक नृजाति समूह का मिश्रित जीवन तथा निवास था।
1. वर्ग-भेद-
सैन्धव संस्कृति एक विकसित नगरीय संस्कृति का प्रतिनिधित्व करती है। अस्तु, इस प्रकार की व्यवस्था में कई प्रकार के आर्थिक एवं सामाजिक वर्गों की परिकल्पना करना स्वाभाविक है।
उनकी सामाजिक व्यवस्था का मुख्य आधार परिवार रहा होगा।
पुराविद् गार्डन चाइल्ड ने इन्हीं सन्दर्भो के आलोक में यह प्रस्तावित किया है कि सैन्धव संस्कृति में तत्कालीन समाज कई वर्गों में विभक्त था।
इनमें प्रधान स्थान शासक अथवा पुरोहित वर्ग का परिकल्पित किया जा सकता है।
सैन्धव युगीन हड़प्पा, मोहनजोदड़ो, लोथल एवं कालीबंगा आदि पुरास्थलों पर दुर्ग-क्षेत्र अर्थात् प्रशासन सम्बन्धी भवन, सामान्य नागरिक आवासों अर्थात् नगरवासियों से पृथक तथा किञ्चित् ऊपरी टीले पर विन्यस्त मिलते हैं।
इन दुर्गीकृत भवनावशेषों के आधार पर तत्कालीन समाज में प्रशासन को नियंत्रित करने वाले शासक वर्ग के लोगों का अस्तित्व स्वीकार किया जा सकता है। ये शासकवर्गीय लोग पुरोहित वर्ग के ही लोग थे अथवा अन्य- यह आज भी अनिर्णित तथा अज्ञात सा है।
कुछ विद्वानों की राय में सैन्धव संस्कृति के धर्म प्रधान स्वरूप को देखते हुए यह प्रस्तावित करना समीचीन लगता है कि मिस्र तथा मेसोपोटामिया की संस्कृतियों की भाँति यहाँ भी पुरोहित ही शासक हुआ करते थे। फिलहाल, यदि पुरोहित वर्ग को शासक संवर्ग में सम्मिलित न भी माना जाय, तो भी तत्कालीन समाज में इनकी विशेष सम्मानित स्थिति की परिकल्पना की जा सकती है।
मैके ने तत्कालीन समाज में पुरोहितों की धार्मिक एवं सामाजिक प्रतिष्ठा को विविध साक्ष्यों के आलोक में अनुरेखित किया है।
सेनानायकों तथा उच्चपदस्थ शासकीय कर्मचारियों का भी समाज में आदरणीय स्थान रहा होगा।
सैन्धव समाज में एक अन्य सम्मानित वर्ग धनाढ्य व्यापारियों का प्रतीत होता है। इनके आवासीय भवन दुर्ग-क्षेत्र में अन्य संभ्रांत वर्ग आवासों के साथ ही मिलते हैं। इस वर्ग के सम्पन्न लोग बहुमूल्य वस्तुओं की प्राप्ति हेतु दूर-दूर तक व्यापारिक समुदायों तथा केन्द्रों से सम्पर्क रखते थे।
खुदाई में तलवार, पहरेदारों के भवन तथा प्राचीरों के अवशेष मिलते हैं जिनके आधार पर समाज में क्षत्रियों से मिलते जुलते किसी योद्धा वर्ग के होने का अनुमान किया जा सकता है।
इनके अतिरिक्त सैन्धव समाज में शिल्पकारों, कृषकों तथा श्रमिकों के पथक-पथक वर्ग अवस्थित थे।
सिन्धु घाटी की उर्वरा-भूमि पर नये-नये प्रौद्योगिकी का उपयोग करके तत्कालीन कृषक खाद्यान्नों का उत्पादन अपने उपयोग से अधिक करने लगे थे। ज्ञातव्य है कि इसी कृषि-उत्पादन पर तत्कालीन शहरी आवादी निर्भर करती थी।
अत: कृषकों की तत्कालीन आर्थिक एवं सामाजिक जीवन में अहम् भूमिका रही होगी। इसी प्रकार इस काल में शिल्प तथा प्रौद्योगिकी में अनेक नये-नये प्रयोग किए गए तथा इसमें अभूतपूर्व विकास हुआ था।
शिल्पीवर्ग में धातु कर्मी, स्वर्णकार, पत्थरतराश, खुदाई करने वाले, बुनकर, जुलाहे, स्वर्णकार भवन निर्माण कर्ता तथा विभिन्न प्रकार की मुहरें, मूर्तियों, मनकों एवं मृदभाण्ड-निर्माता लोगों को सम्मिलित किया जा सकता है। हड़प्पा के उत्खनन में छोटी-छोटी कोठरियों अथवा बैरक सदृश आवासों में रहने वाले शर्मिकजनों की सामाजिक स्थिति निम्न प्रतीत होती है। परन्तु उनकी सामाजिक स्थिति दासों जैसी थी- यह कहना बड़ा कठिन है।
ह्वीलर का मत है कि संभवतः उनकी स्थिति मेसोपोटामिया के समाज में प्राप्य दासों अथवा अर्द्ध दासों जैसी रही होगी। जो भी हो, इन श्रमिकों की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी तथा समाज में इन्हें निचले क्रम में परिगणित किया जाता था।
अंतिम वर्ग भृत्यों तथा श्रमिकों का था जिनमें चर्मकार, कृषक, मछुआरे, आदि प्रमुख रहे होंगे।
हड़प्पा की श्रमिक बस्तियों के आधार पर कुछ विद्वान समाज मे दास प्रथा के अस्तित्व का निष्कर्ष निकलते हैं। ह्वीलर का अनुमान है कि इनमें दास ही थे। किन्तु राव इस मत से सहमत नही हैं। उल्लेखनीय है कि हड़प्पा की खुदाई में विशाल तथा लघु भवन पास पास मिले हैं जो इस बात का प्रमाण हैं कि समाज मे धनी-निर्धन का भेदभाव नहीं था तथा सभी लोग मिलजुल कर रहते थे।
निष्कर्ष के तौर पर कहा जा सकता है कि मिस्री तथा सुमेरियन समाज के समान सैंधव समाज में दास प्रथा का अस्तित्व खोजना तर्कसंगत नहीं होगा।
पुराविद फेयर सर्विस ने सैन्धव युगीन उपकरणों एवं तकनीकों में एकरूपता की प्राप्ति को बहुत ही महत्वपूर्ण माना है उनके अनुसार इस काल के नगरों का एक-जैसा विन्यास, उपकरणों की बनावट में विलक्षण समरूपता तत्कालीन समाज में परम्परावादी प्रवृत्ति तथा उसके प्रति गहरी रूढ़िवद्धता को अभिव्यंजित करती है।
इस संदर्भ में आल्विन एवं श्रीमती आल्विन का यह विचार महत्वपूर्ण प्रतीत होता है कि सिन्धुवासी उपकरणों के निर्माण में उपयोगिता तथा मजबूती की ओर विशेष रूचि रखते थे।
फलतः नई-नई कल्पनाशीलता अथवा नवीनता के प्रति उनमें उदासीनता देखने को मिलती है। आल्विन दम्पति ने इस प्रवृत्ति के पीछे सैन्धव वासियों की परम्परावादिता अथवा परलोकवादिता को मूल कारण बताया है।
इस प्रकार सैन्धव संस्कृति में तत्कालीन समाज कई वर्गों में विभक्त प्रतीत होता है। उत्खनन के समय इनके अलग-अलग निर्मित मिले हैं।
इस काल में वर्ण-व्यवस्था का पूर्ण अभाव था।
हड़प्पा के विभिन्न आकार प्रकार के मकानों के आधार पर कुछ विद्वान समाज मे जाति प्रथा के प्रचलित होने का अनुमान करते हैं।
उत्खनन में उपलब्ध बहुसंख्यक नारी अथवा मातृदेवी की मूर्तियों के आधार पर अधिकांश विद्वान इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि सैन्धव समाज संभवतः मातृसत्तात्मक (Matriarchal Society) रहा होगा।
2. खान-पान
सिन्धु उपत्यका कृषि-उत्पादन की दृष्टि से बड़ी उर्वरा थी। हड़प्पा के उतजनन से गेहूँ और जौ के पुरावशेष प्राप्त हुये हैं। इनसे प्रमाणित होता है कि ये दोनों अनाज तत्कालीन लोगों के मुख्य खाद्यान्न रहे होंगे।
लोथल तथा रायपुर उत्खनन के समय मिट्टी के बर्तनों में रखे चावल की भूसी के पुरावशेष प्राप्त हुए हैं, जो यह प्रमाणित करते हैं कि तत्कालीन लोग चावल भी खाते रहे होंगे। हालांकि अभी तक यह तय नहीं हो सका है कि इस क्षेत्र में चावल की नियमित खेती की जाती थी या नहीं।
इसी प्रकार सैंधवकालीन अन्य फसलों में अनार, खरबूजा, केला, नींबू, अंजीर, आम, खजूर, मटर, तिल तथा सरसों को भी भोज्यार्थ उगाया जाता था।
कृषि के अतिरिक्त इस काल में पशुपालन भी विकसित अवस्था में था। अतः लोग दूध तथा इससे बनने वाले पदार्थों का सेवन करते थे।
उत्खनन के समय कहीं-कहीं प्राप्त अर्द्धजलित भालू, हिरण, सुअर, मुर्गी, बत्तख, घड़ियाल, भेड़, बकरी तथा मछली आदि की अस्थियां तथा उनके चमड़े के पुरावशेष-यह इंगित करते हैं कि सैन्धव कालीन लोग भोजन में मांस तथा मछली का भी प्रयोग करते थे।
एक मृद्भाण्ड-खण्ड पर बंहगी पर मछली-वहन करते हुए एक मछुआरे को दर्शाया गया है। इससे तत्कालीन समाज में मछली पकड़ने तथा खाने का पता चलता है।
3. वेशभूषा-
मोहनजोदड़ो से मिले एक रजतपात्र के एक किनारे चिपका हुआ सूती कपड़े का एक छोटा टुकड़ा उपलब्ध हुआ है, जिसे लाल मजीठिया रंग में रंगा गया था। विद्वानों की धारणा है कि उक्त कपड़े का सूत कृषि-उत्पादित कपास से बनाया गया था।
अस्तु, सिन्धु संस्कृति के लोग सूती वस्त्र निर्माण तथा प्रयोग के साथ-साथ कपास की खेती का भी ज्ञान रखते थे।
स्टुअर्ट पिगट के अनुसार सैन्धव युगीन सूती वस्त्रोद्योग की संपुष्टि अवान्तर युगीन एतदर्थ प्रयुक्त ‘सिन्धु’ शब्द से भी संकेतित होता है संभवतः ‘सिन्धु’ शब्द से ही यूनानी शब्द ‘सिन्दोन’ भी व्युत्पन्न हुआ है।
विद्वानों की धारणा है कि सिन्धुवासी सूती-वस्त्रों को दूर-दराज के केन्द्रों तक व्यापारार्थ भेजा करते थे। भेड़-बकरियों के पालन के आधार पर यहाँ यह भी अनुमेय है कि इस काल के लोग ऊनी कपड़े भी पहनते रहे होंगे, हालांकि इसके पुरासाक्ष्य अद्यावधि प्राप्त नहीं हुए हैं।
जहाँ तक सैन्धव युगीन परिधान का सम्बन्ध है, ऐसा प्रतीत होता है कि पुरुष उत्तरीय अथवा शाल तथा अधोवस्त्र मोहनजोदड़ो से प्राप्त बहुचर्चित के रूप में पैरों से सटी धोती जैसा कोई वस्त्र पहनते थे। पुरुष मूर्ति को तिपतिया शॉल अथवा उत्तरीय वस्त्र से आच्छादित किया गया है। इसी प्रकार से हड़प्पा से मिले एक मृण्पात्र-खण्ड पर एक पुरुष के अधोभाग को धोती-सदृश वस्त्र से भूषित किया गया है। नारी मूर्तियों में ऊर्ध्वभाग को अधिकतर अनावृत्त ही रखा गया है। परन्तु उनके अधोभाग में घुटनों से किञ्चित् ऊपर तक के अंग को आच्छादित करने वाला घेरदार (घाघरा) वस्त्र प्रदर्शित मिलता है।
आल्विन दम्पति ने विद्वानों का ध्यान मोहनजोदड़ो से मिली एक मुहर की ओर आकृष्ट किया है, जिस पर उत्कीर्ण कई नारी आकृतियों के अधो अंग को घेरेदार परिधान से आवृत्त दिखाया गया है।
खुदाई में सुईयों के अवशेष से यह पता चलता है कि उनके वस्त्र सिले हुए होते थे।
शारीरिक सौन्दर्य की अभिवृद्धि के लिए सैन्धव युगीन पुरुष तथा नारी दोनों अलंकार-प्रिय लगते हैं।
पुरुष छोटी-छोटी दाढ़ी तथा हल्की मूंछ रखते थे। कभी-कभी कुछ पुरुष दाढ़ी तो रखते थे किन्तु मूंछ नहीं रखते थे। यथा, मोहनजोदड़ो से प्राप्त प्रस्तर-निर्मित मूंछ विहीन पुरुष मूर्ति । इसके वाल बडे करीने के साथ कढ़े तथा पीछे की ओर फेरे हुए दिखते हैं।
कभी-कभी ये अपने वालों को एक फीतानुमा बन्धन से बाँधते भी थे। इन फीतों की गांठ प्रायः पुरुष के माथे पर होती थी।
गाँठ किसी गोल अलंकरण से आवृत्त की जाती थी। इस काल की पुरुषाकृतियों में प्रायः सिर के बीचो-बीच मांग पढ़ने की प्रथा देखने को मिलती है।
नारी आकृतियों की केश-सज्जा की रूपरेखा पंखानुमा शीर्ष-परिधान से ढंक जाने के कारण बहुत स्पष्ट नहीं दिख पाती है। कतिपय मुहरों पर अंकित नारी अलकावलियों को जोड़कर संजोकर उसे पीछे की ओर लटकते हुए प्रदर्शित किया गया है।
जूड़ा बनाकर उसे गर्दन की ओर फुलाकर लटकाने की केश-सज्जा तत्कालीन नारियों को सम्भवतः विशेष प्रिय थी।
इससे किंचित भिन्न रूप हमें मोहनजोदड़ो से प्राप्त कांस्य-नर्तकी के केशविन्यास में देखने को मिलती है। इसमें नर्तकी की अलकावली को दो चोटियों में विभक्त तथा उसे कान के बगल फुलाकर लटकते हुये अंकित किया गया है।
सिन्धु सभ्यता के लोग अलंकार-प्रिय थे। यही कारण है कि इस काल के पुरुष तथा नारी दोनों आभूषण धारण करते थे। वे गले तथा हाथों में कई तरह के अलंकरण धारण करने के अतिरिक्त उंगलियों में अंगूठी तथा कलाइयां में कंगन भी पहनते थे। इसी प्रकार स्त्रियों हाथ, उंगली तथा गले में विविध प्रकार के आभूषणों के अतिरिक्त कटि-प्रदेश में मेखला, कानों में बलय, भुजाओं में कटकावली अथवा चूड़ियों और बाजूबन्द तथा वक्षप्रदेश तक विस्तीर्ण पेण्डुलम-युक्त लम्बी लम्बी कई लड़ियों वाले हार धारण करती थीं।
इसके अतिरिक्त कर्णफूल, हँसुली, कड़ा, अंगूठी, करधनी, आदि आभूषण भी पहने जाते थे।
इन आभूषणों को प्रायः सोना, चाँदी, ताँबा, तथा काँसा आदि धातुओं से निर्मित किया जाता था इनके अतिरिक्त आभूषण-निर्माण में कार्नीलियन, हकीक, राजावर्त, स्टीटाइट, शंख, कैल्सेडनि तथा जेडाइट आदि बहुमूल्य पत्थरों तथा हाथी दांत, हड्डी का भी उपयोग किया जाता था।
हड़प्पा से सोने के 6 लड़ियों का सुंदर हार मिला है। छोटे छोटे सोने तथा सेलखड़ी के मनकों वाले हार भी काफी संख्या में मिले हैं।
मोहनजोदड़ो से मार्शल ने एक बड़े आकार का हार प्राप्त किया है जिसके बीच मे गोमेद के मनके हैं। यहां से कार्नीलियन के मनकों वाला लंबा हार भी मिला है। कांचली मिट्टी, शंख तथा सेलखड़ी की बनी हुई चूड़ियां भी मिलती हैं।
हड़प्पा से सोने का बना एक बड़ा कंगन मिलता है। सोने, चाँदी तथा कांसे की चूड़ियाँ, मिट्टी और तांबे की अंगूठियाँ आदि भी मिलती हैं। श्रृंगार-प्रसाधन की ओर विशेष ध्यान दिया जाता था।
मोहनजोदड़ो की नारियाँ काजल, पाउडर तथा शृङ्गार प्रसाधन की अन्य सामग्रियों से परिचित थीं।
चन्हूदड़ों की खोजों से लिपस्टिक के अस्तित्व का भी संकेत मिलता है। शीशे और कंघी का भी प्रयोग होता था। तांबे के दर्पण, छुरे, कंघे, अंजन लगाने की शलाकायें श्रृंगारदान आदि भी मिले हैं।
खुदाई में घड़े, थालियाँ, कटोरे, तश्तरियाँ, गिलास, चम्मच अदि बर्तन मिलते हैं। वे लोग कुर्सी, चारपाई, स्टूल, चटाई का भी प्रयोग करते थे। नौशारो तथा मेहरगढ़ से प्राप्त मिट्टी की कुछ नारी मूर्तियों की माँग में लाल रंग भरा गया है। स्पष्टतः यह सिन्दूर है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि माँग में सिन्दूर भरने की प्रथा हड़प्पाकालीन है।
चन्हुदड़ो के उत्खनन में गुड़िया अथवा मनका बनाने वाली कर्मशाला प्रकाश में आई है। इन बहुमूल्य पत्थरों के अतिरिक्त फेयन्स (काँचली मिट्टी) से बने शंकाकार विविध आभूषण प्राप्त हुए हैं, जिन्हें शरीर के विभिन्न अंगों के अलंकृत करने में धारण किया जाता था।
सैन्धव पुरास्थलों के उत्खनन में तत्कालीन समाज में प्रसाधन हेतु प्रयुक्त सलाइयाँ, सुरमेदानियाँ तथा विविध प्रकार के रंगों से पुक्त छोटे-छोटे आकर्षक मृत्तिका-खण्ड प्राप्त हुए हैं। इन सात्यों से यह स्पष्ट इंडित होता है कि सिन्धु-निवासी वस्त्र-परिधान, केश-सज्जा, आभूषण-धारण तथा प्रसाधन आदि वस्त्राभूषणों में गहरी रुचि रखते थे।
4. आमोद-प्रमोद
सिन्धु संस्कृति के निवासी बड़े आमोदप्रिय थे। वे विविध साधनों से अपना मनोरंजन किया करते थे।
उत्खनन में उपलब्ध कतिपय मुहरों में अंकित दृश्यांकनों में धनुष-बाण से जंगली पशुओं का आखेट करते हुए आकृतियों को उकेरा गया है।
इस प्रकार की आकृतियों से यह स्पष्ट होता है कुछ मानव कि तत्कालीन वयस्क लोग संभवतः आखेट-प्रेमी थे।
मछली फ़साने के कई कांटे मिलते हैं।
एक मुहर पर तीर से हिरन को मारते हुए दिखाया गया है।
इससे स्पष्ट है कि लोग शिकार में रुचि रखते थे।
मछली फसाना तथा चिड़ियों का व्यापार करना नियमित व्यवसाय था।
बच्चे छोटे-छोटे मिट्टी के खिलौनों के साथ खेला करते थे। नौशारो से मिट्टी की बनी खिलौना गाड़ियों के पहिए बड़ी संख्या में मिलते हैं।
छोट-छोटे झुनझुने, बैलगाड़ियों, सीटों, गेंद की तरह छोटी-छोटी गोलियाँ, सिर हिलाने वाले बैलों की छोटी आकृतियाँ तथा भांति-भांति की चिड़ियों की मृण मूर्तियाँ बच्चों के मनोरंजनार्थ बहुतायत में बनाई जाती।
सिन्धु संस्कृति में बसने वाले लोग चौसर (पासा) खेल के बड़े शौकीन थे। उत्खननों से मिट्टी अथवा प्रस्तर-निर्मित घनाकृति अनेक पासे प्रकाश में आये हैं।
इस काल में लोग पक्षियों को लड़ाने में बड़ी रुचि रखते थे तथा मनोरंजनार्थ उन्हें पालते भी थे। ऐसा प्रतीत होता है कि कुछ सामाजिक उत्सवों पर बालों को दौड़ाना तथा उन्हें एक दूसरे से लड़ाना भी सैन्धव लोगों के मनोरंजन का एक अभिन्न अंग था।
पटलवत पासे अधिकतर हाथी दाँत से बने मिले हैं।
सैंधव निवासी आमोद-प्रमोद के प्रेमी थे। पासा इस युग का प्रमुख खेल था।
हड़प्पा से मिट्टी, पत्थर तथा कांचली मिट्टी के बने सात पासे मिलते हैं।
मोहनजोदड़ो से भी मिट्टी तथा पत्थर के पैसे मिलते हैं।
विभिन्न स्थलों से आजकली के शतरंज की गोटियों से मिलती-जुलती मिट्टी, शंख, संगमरमर, स्लेट, सेलखड़ी आदि की बनी गोटियां भी मिलती हैं।
लोथल से खेलने के बोर्ड के 2 नमूने मिलते हैं। जिनमे से एक मिट्टी तथा दूसरा ईंट का बना है।
विभिन्न स्थलों से पत्थर, सीप, आदि की गोलियां भी मिलती हैं।
हड़प्पा संस्कृति के लोगों को संगीत से बड़ा अनुराग था। मोहनजोदड़ो से मिली नर्तकी की कांस्य-प्रतिमा तथा ऐसी ही कतिपय अन्य मूर्तियाँ तत्कालीन लोगों की नृत्य एवं संगीत-प्रियता को प्रमाणित करती हैं। उत्खननों में प्राप्त कतिपय साक्ष्यों के आलोक में तत्कालीन प्रमुख वाद्ययंत्रों की भी जानकारी मिलने लगी है।
सैन्धव लिपि में कुछ अक्षरों की बनावट बीणा अथवा सारंगी-सदृश लगती है। इसी प्रकार कुछ ताबीजों पर मृदंग अथवा डॉल-जैसी आकृतियां अंकित मिलती है। उत्खनन में एक करताल के आकार का वाद्ययंत्र तया एक मृण्मूर्ति ऐसी प्राप्त हुई है, जिस पर ढोलक का स्पष्ट अंकन मिलता है। पुराविद् मैके तथा कतिपय अन्य विद्वानों की स्पष्ट धारणा है कि सैन्धववासी संगीत कला में नृत्य, गायन तथा वाद्य यंत्रों से अवश्य परिचित थे।
ज्ञातव्य है कि इसी प्रकार के बाद्ययंत्रं के साक्ष्य मेसोपोटामिया के सुंदर नगर के उत्थान से भी प्राप्त हुए हैं।
उपलब्ध साक्ष्यों में प्रायः आखेट के दृश्यांकनों तथा तत्कालीन लोगों द्वारा प्रयुक्त तीर धनुष, कटार, भाला, गदा, तलवार, परशु, मिट्टी की पकी गोलियों के आधार पर यह प्रस्तावित करना समीचीन प्रतीत होता है कि सैन्धव लोग संभवतः आखेट-प्रिय अधिक किन्तु युद्ध-प्रिय कम थे।
अस्त्र- शस्त्र प्रायः तांबा तथा कांसा के बनते थे
अन्य उपकरणों में बरछा, कुल्हाड़ी, बसूली, आरा आदि प्रमुख थे।
उनके नगरों के विन्यास में दर्द अथवा गढ़ी को अलग से बसाया जाना तथा दुर्ग पर सुरक्षा हेतु बुर्ज का निर्माण होना तथा उन पर सुरक्षा प्रहरियों को तैनात किया जाना आदि उनकी युद्धप्रियता को आलोकित करने वाले साक्ष्य प्रतीत होते हैं।
कच्छ की खाड़ी के पच्चम द्वीप में स्थित कुरान (Kuran) नामक गाँव के समीप खुदाई में दो विस्तृत स्टेडियम मिले हैं जिनका उपयोग सामुदायिक बैठकों, सामाजिक कार्यक्रमों तथा खेलकूद जैसे सामाजिक कार्यों के लिये किया जाता था।
भारतीय उपमहाद्वीप में केवल यहीं से स्टेडियम मिलते हैं जो दुर्ग के दक्षिणी छोर पर स्थित आयताकार हैं। इनमें दो प्रवेश द्वार हैं। पहले से दुर्ग तक जाया जाता था जबकि दूसरे से व्यक्ति स्टेडियम में जाता था।
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग की बड़ोदरा की खुदाई शाखा के उत्खननकर्ताओं ने कच्छ की खाड़ी में चार माह के कठिन श्रम के पश्चात् इन्हें खोज निकाला है। अधीक्षण पुराविद् शुब्र प्रामाणिक के अनुसार नि:संदेह यह एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है।
यदि लोथल अपनी गोदीबाड़ा के लिये प्रसिद्ध था तो कुरन क्षेत्र अपने स्टेडियम के लिये।
5. स्त्रियों की दशा-
सैन्धव समाज में स्त्रियों का बड़ा समुद्र था। धार्मिक तथा सामाजिक समारोहों में पुरुषों के समान स्त्रियां भी बराबर भाग लेती थीं। इस काल में विनिर्मित बहुसंख्यक नारी-मृण्मूर्तियों तथा अधिकांश विलक्षण मातृदेवी-रूपों के अंकनों के आलोक में यह सहज अनुमेय है कि सैन्धव समाज मातृसत्तात्मक था। नारियों को इस समाज में बड़ा महत्वपूर्ण तथा आदरणीय स्थान प्राप्त था। इस काल में पर्दा-प्रथा के साक्ष्य नहीं मिलते हैं। नारियाँ शिशुपाल, घर-आंगन का कार्य, सूत काटना तथा ग्रामीण-क्षेत्रों में पुरुषों के साथ कृषि आदि कर्मों में बराबर सहयोग प्रदान करती थीं।
:-हड़प्पा सभ्यता का धर्म-:
1. मातृदेवी की उपासना:-
2. पशुपति अथवा आराध्य देवता परम पुरुष की उपासना:-
3. द्विमुख देवता:-
4. देवदासियाँ:-
5. लिंग पूजा:-
6. योनि पूजा:-
7. नागोपासना:-
8. वृक्ष पूजा:-
9. पशु-पक्षी-पूजा:-
10. प्रतीकोपासना:-
(i) सूर्य-पूजा:-
(ii) जल पूजा अथवा जल की पवित्रता:-
11. मूर्ति पूजा:-
12. योग:
13. धार्मिक निष्ठा एवं प्रथाएं:-
14. पूजा विधियां:-
15. अंत्येष्ठि:-
सिन्धु लिपि (The Indus Script)–
1. सिन्धु लिपि का पढ़ना (Decipherment of Indus Script)-
हड़प्पा सभ्यता का पतन–
तीसरी सहस्राब्दी के लगभग सिन्धु उपत्यका में नगरीय संस्कृति की स्थापना हुई, जो लगभग 1860 ई०पू० तक सतत् विकासोन्मुख बनी रही। इसी अवधि में हड़प्पा, मोहनजोदड़ो तथा चन्हूदड़ो, कालीबंगा, धौलावीरा जैसे बड़े नगरों का विन्यास हुआ एवं वहाँ वास्तु, मूर्ति, चित्र तथा अन्यान्य कलाओं के साथ प्रस्तर एवं धातु प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भी विशेष उन्नति हुई थी।
विद्वानों का अनुमान है कि लगभग 1800 ई० पू० के उपरान्त सिन्धु संस्कृति के नगरीय स्वरूप में परिवर्तन तथा ह्रास के साक्ष्य मिलने लगते हैं। मूलनगरीय सैंधव संस्कृति के स्थान पर वहाँ एक नवीन सांस्कृतिक स्वरूप, उभरने तथा विकास करने लगता है, जिसे हड़प्पा संस्कृति की नागरिकोत्तर-अवस्था अथवा ‘उत्तर-हड़प्पा’ नाम से संबोधित किया जा सकता है।
पुरातत्वविदों ने हड़प्पा संस्कृति के उक्त बड़े-बड़े नगरों के पतन का प्रारम्भिक काल 1800 ई० पू० के आस-पास प्रस्तावित करने का प्रमुख आधार मेसोपोटामिया से मिले साहित्यिक साक्ष्यों को माना है। प्राचीन मेसोपोटामिया से प्राप्त उल्लेखों में सुमेर आदि व्यापारिक नगरों में 1900 ई० पू० के अन्तिम दशकों के उपरान्त मेलुहा (सिन्धु संस्कृति) से आने वाले व्यापारिक जहाजों का उल्लेख नहीं मिलता है।
इसके अतिरिक्त सैन्धव युगीन भवनों, मूर्तियों, चित्रों, नगरों तथा उपकरणों आदि में उपलब्ध एकरूपता, जो इस संस्कृति की प्रधान विशेषता मानी जा सकती है, उत्खनित साक्ष्यों में केवल इसी शताब्दी तक प्राप्य है।
ज्ञातव्य है कि 1800 ई० पू० से लेकर लगभग 1200 ई० पू० के बीच पाकिस्तान, पश्चिमी भारत, पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, जम्मू-कश्मीर, दिल्ली, पश्चिमी उत्तर प्रदेश आदि क्षेत्रों में गतिशील ‘उत्तर-हड़प्पा संस्कृति’ की कलाओं तथा उपकरणों में उक्त एकरूपता का पूर्ण अभाव है।
उत्तर-हड़प्पा कालीन भवनों, निर्माणात्मक कार्यों, उपकरणों आदि में बड़ी विविधता देखने को मिलती है। परवर्ती हड़प्पा संस्कृति में मूल सैन्धव संस्कृति की लेखन कला, बाट-माप, मृद्भाण्ड तथा वास्तुशैली आदि एकाएक लुप्त सी हो गई।
सैन्धव उपत्यका में बसने वाले लोग नागरिकोत्तर हड़प्पा संस्कृति में नई-नई संस्कृतियों का सम्मिश्रण करना शुरू किया। अस्तु, हमारे सम्मुख विचारणीय प्रश्न यह है कि मूल हड़प्पा संस्कृति का एकाएक अन्त किन कारणों से सम्भव हुआ होगा? जिस प्रकार इस संस्कृति के उद्भव की कहानी गढ़ तथा अद्यावधि स्पष्ट है, उसी प्रकार इस के पतन के वास्तविक कारण भी अज्ञात हैं। हड़प्पा संस्कृति के अवसान की किञ्चित् व्याख्या विद्वानों ने करने का प्रयास अवश्य किया है।
सिन्धु सभ्यता के विघटन का प्रश्न पुरातत्त्ववेत्ताओं के समक्ष एक अनसुलझी गुत्थी के समान है, जिसका यथोचित उत्तर आज तक नहीं मिल सका है, क्योंकि सिन्धु सभ्यता के पतन के जिन कारणों पर विद्वानों ने अभी तक विचार किया है, उनमें भी कुछ न कुछ दोष हैं, जिससे किसी एक सिद्धान्त पर सहमति नहीं हो पायी है।
वस्तुत: किसी सभ्यता या साम्राज्य के पतन में कोई एक कारण उत्तरदायी हो ही नहीं सकता है बल्कि अनेक कारणों के समन्वय के फलस्वरूप पतन अवश्यम्भावी हो जाता है। सम्भव है कि पतन के कारणों में कतिपय दीर्घकालिक और कुछ आकस्मिक कारण हो सकते हैं। अत: सिन्धु सभ्यता के पतन में भी अनेक कारणों को उत्तरदायी माना जाता है।
ये निम्न हैं―
1. प्रसासनिक शिथिलता:-
सिन्धु सभ्यता के हड़प्पा और मोहनजोदड़ो के उत्खनन से ऐसे साक्ष्य मिले हैं, जिनसे नगर में प्रशासनिक शिथिलता के संकेत मिलते हैं।
इस सन्दर्भ में जॉन मार्शल का विचार है कि मोहनजोदड़ो के परवर्ती चरण में सड़कों और गलियों पर अतिक्रमण होने लगा तथा।भवनों के निर्माण में दीवालों की चौड़ाई कम हो गयी थी, मोहनजोदड़ों की सड़कों पर कुम्हारों द्वारा आँवा बनाये जाने के साक्ष्य मिले हैं, जो प्रशासनिक शिथिलता के द्योतक हैं।
मोहनजोदडों की भांति हड़प्पा, कालीबंगा और लोथल से भी प्रशासनिक शिथिलता के साक्ष्य उपलब्ध हैं।
गुजरात के लोथल और रंगपुर के उत्खनन से ज्ञात होता है कि सैन्धव सभ्यता का नगरीय स्वरूप धीरे धीरे परिवर्तित होकर स्थानीय संस्कृति में बदलता जा रहा था मृद्भाण्डों में चमकीले लाल रंग के मिट्टी के बर्तनों को बहुतायत देखने को मिलती है। पकी ईंटों के स्थान पर कच्ची ईंटों का प्रयोग किया जाने लगा।सैन्धव सभ्यता की प्रमुख विशेषता सफाई की व्यवस्था का समापन हो गया। सिन्धु सभ्यता के प्रौढकालीन विस्तृत बस्तियों की अपेक्षा परवर्ती चरण में बस्तियों का आकार छोटा होता गया।
इस प्रकार हम देखते हैं कि सिन्धु सभ्यता के प्रौढ़ चरण में नगरीय सभ्यता का जो विकसित रूप दिखायी पड़ता है, उसका परवर्ती चरण में ह्रास होना प्रारम्भ हो गया था।
अत: सिन्धु सभ्यता के पतन में प्रशासनिक शिथिलता को उत्तरदायी माना जा सकता है।
2. जलवायु परिवर्तन-
कतिपय विद्वान् सिन्धु सभ्यता के पतन का कारण जलवायु परिवर्तन मानते हैं। ऐसे पुरातत्त्ववेत्ताओं में सर्वप्रथम आरेल स्टाइन की गणना की जाती है।
स्टाइन महोदय ने अपने अन्वेषण के दौरान बलूचिस्तान के झालावान, सारावान और काश्कोई से कतिपय बाँधों (गबरबन्दों) के अवशेष खोज निकाले, जिसके आधार पर उनका मत है कि बलूचिस्तान में आज को अपेक्षा आद्यैतिहासिक काल में वर्षा अधिक होती थी।
हड़प्पा और मोहनजोदड़ों के उत्खनन से प्राप्त पुरावशेषों में मिट्टी की पकी ईंटें मिली हैं। जिसके आधार पर जॉन मार्शल का मत है कि ईंटों को पकाने के लिए लकड़ी की आवश्यकता पड़ती है। अत: सिन्ध और पंजाब के क्षेत्रों में जंगल रहे होंगे। इसके अतिरिक्त हड़प्पा और मोहनजोदड़ो में जल निकास के लिए चौड़ी नालियाँ भी मिली हैं जो सम्भवतः वर्षा के अधिक जल को ध्यान में रखकर बनायी गयी थीं विद्वानों का अनुमान है कि अद्यइतिहासिक काल में सिन्ध में लगभग 120-150 सेमी० वार्षिक वर्षा होती थी, जबकि वर्तमान में वहाँ केवल 75 सेमी ही वर्षा होती है।
विद्वानों की यह भी मान्यता हैं कि यदि अरब सागर से आने वाले मानसून में कुछ अक्षांशों का अन्तर हो जाय तो पंजाब और सिन्ध की जलवायु पुन: आर्द्र हो सकती है।
इसके अलावा सिन्धु सभ्यता के मुहरों पर अंकित पशुओं; जैसे-गैंडा, हाथी और व्याघ्र से भी सिन्ध और पंजाब की आई जलवायु और घने जंगल की ओर संकेत मिलता है, जलवायु सम्बन्धी अन्य साक्ष्यों में राजस्थान के झीलों से प्राप्त पुरापुष्पपराग के विश्लेषण को माना जा सकता है।
पुरातत्त्वविद् गुरदीप सिंह ने राजस्थान के झीलों से प्राप्त पुष्पपराग का विश्लेषण करके यह मत प्रतिपादित किया कि लगभग 3000-1700 ई०पू० के मध्य राजस्थान की जलवायु में आर्द्रता थी।
राजस्थान की जलवायु के आधार पर माना जा सकता है कि सिन्ध एवं पंजाब में भी वर्षा अधिक होती रही होगी। कालान्तर में सिन्धु सभ्यता के लोगों द्वारा वनों की लकड़ियों का ईंट पकाने, मकान बनाने आदि में अधिक उपयोग किया गया जिससे जंगलों में कमी आयी, साथ ही भूमि पर से वृक्षों और घासों का आवरण कम हो गया, जिसका असर वर्षा पर हुआ। वर्षा में कमी आने के कारण कृषि उत्पादन पर भी प्रभाव पड़ा होगा।
अमलानन्द घोष ने राजस्थान की सरस्वती और दृषद्वती नदियों की सूखी घाटियों का अध्ययन करके निष्कर्ष निकाला है कि सिन्धु सभ्यता के समय इन नदियों में जल की मात्रा पर्याप्त थी।
घोष महोदय को सैन्धव सभ्यता के पुरास्थल नदी घाटियों में तट पर स्थित मिले, जबकि ‘चित्रित धूसर पात्र-परम्परा’ (जिसका समय सिन्धु सभ्यता के बाद का है) के पुरास्थल नदियों की तलहटी में मिले हैं।
रफीक मुगल नामक पुरातत्वविद् ने भी पाकिस्तान की हकरा (घग्घर) नदी घाटी का अध्ययन किया। उनका मत है कि सैन्धव सभ्यता के 72 पुरास्थल नदी के तट पर विद्यमान थे जबकि ‘चित्रित धूसर पात्र परम्परा’ के पुरास्थल नदी के तलहटी में विद्यमान हैं।
उपरोक्त साक्ष्यों के आधार पर विद्वानों का मत है कि पुरास्थलों (चित्रित धूसर पात्र परम्परा से सम्बन्धित) का तल पर मिलना तभी सम्भव है, जब नदियाँ सूख गयी होंगी। नदियों के सूखने में जलवायु परिवर्तन (वर्षा में कमी) को कारण माना जा सकता है।
नदियों के सूख जाने के फलस्वरूप सैन्धव बस्तियों का पतन हुआ क्योंकि सैन्धव सभ्यता के लोगों की कृषि और व्यापार (नदियों का परिवहन के रूप में प्रयोग बन्द हो जाने से) प्रभावित हुआ होगा, जो उनकी आर्थिक व्यवस्था का मूलाधार था।
खण्डन-
सिन्धु सभ्यता के पतन के कारणों में जलवायु परिवर्तन के मत से अनेक पुरातत्त्वविद् असहमत हैं।
ऐसे पुरातत्त्वविदों में वाल्टर फेयर सर्विस, आर० एल० राइक्स और आर० एच० डाइसन की गणना की जा सकती है।
उक्त पुरातत्त्ववेत्ताओं का मत है कि
(1) सिन्धु घाटी के जलवायु में पिछले चार हजार वर्षों में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है।
(2) सिन्धु सभ्यता के विस्तार क्षेत्र में विभिन्न जंगली वृक्ष बबूल, झाऊ आदि (जो आज भी उपलब्ध है) उस समय भी उपलब्ध रहे होंगे जो सैन्धव सभ्यता के लोगों के ईट पकाने, मकान बनाने आदि के लिए पर्याप्त रहे होंगे।
(3) सिन्धु सभ्यता में प्रयुक्त पकी ईंटों का सम्बन्ध जलवायु से न होकर अभिरुचि या शौक सम्बन्धित रहा होगा।
(4) सिन्धु सभ्यता में पकी नालियों का निर्माण दैनिक जल निकासी के लिए किया गया था।
(5) सिन्धु सभ्यता के मुहरों पर अंकित गैंडे, हाथी और व्याघ्र के चित्रों से जलवायु का कोई सम्बन्ध नहीं है। यह आवश्यक नहीं है कि ये पशु सिन्ध और पंजाब के जंगलों में विद्यमान ही रहे हों। सम्भव है कि सिन्धु घाटी के लोगों ने इन्हें हिमालय के उपत्यकाओं में देखा रहा हो। इन पशुओं के शारीरिक गठन से आकर्षित होकर लोगों ने मुहरों पर इनका अंकन किया हो।
उल्लेखनीय है कि बाघ का अस्तित्व सिन्ध में 20वीं शताब्दी ई. तक विद्यमान रहा है। अतः सम्भव है कि सिन्धु सभ्यता के समय भी वह विद्यमान रहा हो। पशुओं के अंकन और जलवायु में सम्बन्ध स्थापित करना औचित्यपूर्ण नहीं प्रतीत होता है।
इस प्रकार उपरोक्त तथ्यों के आधार पर पुरातत्त्ववेत्ताओं ने सिन्धु सभ्यता के पतन में जलवायु परिवर्तन के उत्तरदायी मानने में संदेह व्यक्त किया।
3. बाढ़-
सिन्धु सभ्यता के पतन में उत्तरदायी कारकों में नदियों को ‘बाढ़’ को भी कारण माना जाता है। जॉन मार्शल और अर्नेस्ट मैके ने मोहनजोदडो के पतन का मुख्य कारण सिन्धु नदी की बाढ़ को माना है।
उल्लेखनीय है कि मार्शल महोदय को मोहनजोदड़ो के उत्खनन के दौरान विभिन्न स्तरों से बालू के जमाव के अवशेष मिले हैं, जो बाढ़ के साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं। उत्खनन के दौरान प्राप्त साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि मोहनजोदड़ो में मकानों का पुनर्निर्माण चबूतरे पर किया गया है, जो संभवत बाढ़ से बचने के लिए किया गया रहा होगा।
पुरात्त्वविदों का मत है कि बाढ़ से पूरा नगर भले ही न डूबा हो, किन्तु नगर का अधिकांश भाग बाढ़ से प्रभावित था।
बाढ के कारण सम्पन्न लोग नगर छोड़कर अन्यत्र पलायन कर गये।
मैके महोदय को भी चन्हूदड़ों से बाढ़ के साक्ष्य मिले हैं। चन्हूदड़ों के लोग बाढ़ से भयभीत होकर नगर छोड़ दिये।
मैके महोदय ने चन्हूदड़ों के टीले के सम्बन्ध में मत व्यक्त किया है कि टीले पर कुछ समय तक लोगों ने निवास किया, किन्तु कालान्तर में उसे भी छोड़कर चले गये।
उनका मत है कि चन्हुदड़ों में अनेक बार बाढ़ आयी, जो दीर्घकालिक रही, जिससे लोग नगर का परित्याग कर दिये।
सिन्धु सभ्यता के गुजरात के पुरास्थलों से भी बाढ़ के साक्ष्य प्रकाश में आये हैं। पुरातत्त्वविद् एस० आर० राव को लोथल और भगतराव से दो बड़ी बड़ों के साक्ष्य मिले हैं।
उनका मत है कि लोथल में प्रथम बाढ़ 2000 ई० पू० और द्वितीय बाढ़ 1900 ई० पू० में आयी थी।
राव महोदय ने हड़प्पा और मोहनजोदड़ो में भी इसी समय बाढ़ आने का अनुमान किया है। उनके अनुसार सिन्धु सभ्यता के विभित्र नगरों हड़प्पा, मोहनजोदड़ो और लोथल आदि में बाढ़ से बचाव के लिए ही सम्भवतः बाँधों का निर्माण नगर के चारों ओर किया गया है।
नगरों के मकानों में बालू जम जाने और बाढ़ से फसल नष्ट हो जाने के कारण लोग सिन्धु नदी की घाटी को त्याग कर सतलज और सरस्वती की घाटियों में शरण लिये होंगे।
राव महोदय का मत है कि कालीबंगा (सरस्वती के तट पर) और रोपड़ (सतलज के तट पर) की बस्तियों का निर्माण सिन्धु घाटी के बाढ़ पीड़ित लोगों ने किया। लोगों के प्रवास के फलस्वरूप विभिन्न नगरों मोहनजोदड़ो, लोथल आदि का नगरीय स्वरूप नष्ट होने लगा।
खण्डन-
सिन्धु सभ्यता के विघटन में बाढ़ को कारण मानना अव्यावहारिक प्रतीत होता है।
क्योंकि बाढ़ के कारण वे कतिपय नगर नष्ट हो सकते हैं, जो नदियों के किनारे बसे थे, किन्तु उन नगरों का पतन क्यों हो गया? जो नदी तट पर स्थित नहीं थे।
वस्तुत: बाढ़ के कारण कुछ नगर तो विनष्ट हो सकते हैं, किन्तु किसी विशाल सभ्यता को बाढ़ निगल जाये, यह बात समझ से परे है। अत: बाढ़ को सिन्धु सभ्यता के पतन का कारण मानना उचित नहीं प्रतीत होता है।
4. बाह्य व्यापार में गतिरोध-
सिन्धु सभ्यता के पतन में पतनोन्मुख अर्थव्यवस्था को कारण माना जाता है।
उल्लेखनीय है कि सिन्धु सभ्यता के आर्थिक ढाँचे का मुख्य अंग विदेशी व्यापार माना जाता है। सिन्धु सभ्यता का विदेशी व्यापार मुख्यत: मेसोपोटामिया की सुमेरियन सभ्यता से था।सैन्धव सभ्यता के अधिकांश पुरास्थलों में मात्र पाँच-सात पुरास्थल ही नगर माने गये हैं. शेष सभी पुरास्थल कस्बों और गांवों का ही प्रतिनिधित्व करते हैं।
नगरीय पुरास्थलों के उत्खनन से ज्ञात होता है कि सिन्धु सभ्यता के अन्तिम चरण में विदेशों से व्यापारिक गतिविधियों में क्षीणता आती जा रही थी, जिसके फलस्वरूप सभ्यता का नगरीय स्वरूप लगभग 2000 ई० पू० तक क्षीण हो चुका था।
पुरातत्वविद् डब्ल्यू० एफ० अल्बाइट का मत है कि सैन्धव सभ्यता की समाप्ति (मेसोपोटामिया के साक्ष्यों के आधार पर) लगभग 1750 ई० पू० में हुई ।
पुरातत्वविदों के अनुसार 2000 ई० पू० से 1750 ई० पू० तक सैन्धव सभ्यता का अस्तित्व नहीं था, बल्कि सैन्धव संस्कृति का अस्तित्व था इस सन्दर्भ में कहा जा सकता है कि सैन्धव सभ्यता की प्रमुख विशेषता उसका नगरीय स्वरूप था, जिसमें गिरावट आ रही थी जिसके फलस्वरूप सभ्यता के उत्तर चरण में ग्राम्य संस्कृति के लक्षण दिखायी पड़ने लगते हैं।
इसके अलावा मार्टीमर ह्वीलर को भी उत्खनन के दौरान सभ्यता के अन्तिम चरण में विघटन के लक्षण के साक्ष्य मिले हैं।
उनके अनुसार सिन्धु सभ्यता के अन्तिम चरण में भवनों के आकार-प्रकार, योजना, निर्माण शैली आदि में गिरावट दिखायी देती है।
सिन्धु सभ्यता के नगरों के बड़े भवनों में विभाजन शुरू हो गया था। सम्भवतः नगरों में जनसंख्या वृद्धि हुई, जिसके कारण हड़प्पा और मोहनजोदड़ो में अतिरिक्त आबादी के लिए जगह की कमी हो गयी।
मकानों के निर्माणों में पुरानी ईंटों का प्रयोग किया जाने लगा था, जिससे सैन्धव सभ्यता के लोगों की आर्थिक व्यवस्था में गिरावट के संकेत मिलते हैं।
अत: माना जा सकता है कि सिन्धु सभ्यता में व्यापार गतिरोध के कारण आर्थिक व्यवस्था असंतुलित हो गयी, जिसके फलस्वरूप सभ्यता का पतन हो गया।
5. भुतात्विक परिवर्तन (भूकंप)-
सिन्धु सभ्यता के पतन में भूतात्त्विक परिवर्तन (भूकम्प) को भी कारक तत्त्व माना जाता है।
इस मत के समर्थकों में एम० आर० साहनी, आर० एल० राइक्स, जॉर्ज एफ० देल्स और एच० टी० लैम्ब्रिक आदि का नाम उल्लेखनीय है ।
साहनी महोदय सिन्धु सभ्यता के पतन में बाढ़ की अपेक्षा जल भराव (प्लावन) को कारण मानते हैं। कालान्तर में इसी मत को आगे बढ़ाते हुए राइक्स और देल्स महोदय ने मोहनजोदड़ो तथा अन्य पुरास्थलों की बाढ़ का अध्ययन किया।
बाढ़ का अध्ययन करने के लिए विभिन्न स्थानों पर वरमे से बेधन किया गया, जिसके फलस्वरूप विद्वानों ने निष्कर्ष निकाला कि विवर्तनिक उथल-पुथल (भूकम्प) के कारण अरब सागर के उत्तर तटवर्ती जमीन में उभार आ गया, जिससे नदियों का जल सागर तक नहीं पहुँच सका।
नदियों के मुहाने रेत से पट गये और स्थान-स्थान पर झीलों का निर्माण हो गया।
राइक्स और देल्स का मत है कि सिन्धु सभ्यता में 48 किमी० से 240 किमी० लम्बी झील बन गयी, जिससे क्षेत्र में कीचड़ और दलदल हो गया।
दलदल के कारण यातायात बाधित हुआ, जिसका प्रभाव आन्तरिक और बाह्य व्यापार पर पड़ा।
सिन्धु सभ्यता के लोग इस प्राकृतिक आपदा से टूट गये। फलतः उन्होंने नगर का परित्याग कर दिया और अन्यत्र चले गये।
भूतात्त्विक परिवर्तन से सम्बन्धित एक अन्य मत एच० टी० लैंम्ब्रिक ने प्रतिपादित किया है।
लैम्बिक के अनुसार विवर्तनिक परिवर्तन अथवा भूकम्प के कारण नदियों के मार्ग में परिवर्तन हुआ।
मोहनजोदड़ो से थोड़ा आगे सिन्धु नदी के मार्ग में परिवर्तन विनाशकारी सिद्ध हुआ, जिसके फलस्वरूप लोग नगर छोड़कर चले गये। उनका मत है कि सिन्धु नदी के मार्ग में परिवर्तन ऐतिहासिक युग में भी देखने को मिलता है।
माधो स्वरूप वत्स के अनुसार हड़प्पा के पतन का मुख्य कारण रावी नदी का मार्ग-परिवर्तन था।
उल्लेखनीय है कि सैन्धव सभ्यता के समय हड़प्पा रावी के तट पर स्थित था, जबकि अब वह हड़प्पा के टीले से लगभग दस किलोमीटर की दूरी पर है।
देल्स महोदय का मत है कि कालीबंगा का पतन भी घग्घर और उसकी सहायक नदियों के मार्ग परिवर्तन के कारण हुआ। नदियों के मार्ग परिवर्तन के फलस्वरूप तटवर्ती नगरों के निवासियों को कृषि के लिए जल और पेय जल का संकट उत्पन्न हो गया और जलीय यातायात बाधित होने से व्यापारिक गतिविधियों में गिरावट आयी, जिसके फलस्वरूप धीरे-धीरे आवासीय बस्तियाँ उजड़ती गयीं और सभ्यता का पतन अवश्यम्भावी हो गया।
खण्डन-
भुतात्विक परिवर्तन के फलस्वरूप अरब सागर के तट का ऊँचा उठ जाना, नदियों के मार्ग का बाधित होना और सिन्धु सभ्यता के क्षेत्र में विशालकाय झील का अस्तित्व में आने सम्बन्धी राइक्स और देल्स के मत का खण्डन एच० टी० लैम्ब्रिक और ग्रेगरी पोशल ने किया है।
लैम्ब्रिक का मत है कि सिन्धु की प्रवाह प्रकृति और राइक्स के अनुमान एक-दूसरे से भिन्न हैं।
उल्लेखनीय है कि राइक्स ने जिन क्षेत्रों को समुद्र में डूबने का अनुमान किया है, वस्तुतः वे समुद्र के तट पर स्थित थे, क्योंकि कच्छ के अनेक पुरास्थल सुरकोटदा और धौलाबीरा आदि शीघ्र ही प्रकाश में आये हैं। लैम्ब्रिक का यह भी विचार है कि यदि झील का अस्तित्व मान भी लिया जाय, तो यह कहना मुश्किल है कि सिन्धु के जिन लोगों ने भीषण बाढ़ का सामना कर लिया, वे झील से कैसे भयभीत हो गये?
इसके अलावा पोर्शल का मत है कि सिन्धु सभ्यता के इस क्षेत्र में 240 किमी विस्तृत झील के कोई अवशेष नहीं मिले हैं।
अत:राइक्स और देल्स का भूतात्त्विक परिवर्तन का मत सर्वमान्य नहीं हो सका।
6. पारिस्थितिकी में असंतुलन:-
फेयर सर्विस सदृश कतिपय विद्वानों की धारणा है कि शुष्क जलवायु वाली सैन्धव उपत्यका में मनुष्यों एवं पशुओं की आबादी तत्क्षेत्रीय उपभोग्य वस्तु उत्पादन क्षमता की तुलना में निरन्तर अधिक वृद्धि के कारण पारिस्थितिक संतुलन को नष्ट करती गई।
उक्त विद्वानों ने हड़प्पा शहर की जनसंख्या का आकलन कर उसमें रहने वाले नागरिकों के लिए खाद्यान्न की खपत का आकलन करने का भी प्रयास किया है। उनके आकलन के अनुसार सैन्धव ग्रामवासी अपनी कृषि उपज का लगभग 80 प्रतिशत अंश तो स्वयं अपने उपभोग के लिए रखते थे तथा शेष 20 प्रतिशत भाग तत्कालीन नगरों में बसने वाले लोगों के खाद्यान्न हेतु बाजार में बेंच देते थे।
इस हिसाब से मोहनजोदड़ो जैसे नगर में, जहाँ कुल आबादी लगभग 35 हजार थी, खाद्यान्नों की पूर्ति के लिए आस-पास बड़ी संख्या में ग्राम-बस्तियों तथा अन्नोत्पादन वाले क्षेत्रों की आवश्यकता रही होगी।
सम्भवतः पशुओं एवं मनुष्यों की बढ़ती आबादी के लिए ईधन की आपूर्ति हेतु जंगलों को क्रमशः काट कर समाप्त कर दिया गया। लोगों ने अपने आस-पास की भूमि की सीमित उत्पादन क्षमता का संपूर्ण दोहन कर लिया होगा। जंगलों तथा छोटे-छोटे पौधों, वनस्पतियों आदि की समाप्ति के कारण सैन्धव मैदानी क्षेत्रों में क्रमशः सूखा तथा बाढ़ के प्रकोप बढ़ने लगे होंगे। फलतः जीविका के नये आधार की खोज में लोग इन क्षेत्रों से भाग कर अन्यत्र बसने के लिए विवश होने लगे।
इस प्रकार, सैन्धव वासियों द्वारा अपने उत्पादन सम्बन्धी साधनों की आवश्यकता से अधिक व्यय करना, उनकी जीवनशक्ति को क्षीण करने में प्रमुख कारण बन गई।
7. बाह्य आक्रमण-
खण्डन-
8. महामारी:-
9. निष्कर्ष:
सिन्धु सभ्यता की तिथि(Chronology of Indus civilization):-
सिन्धु सभ्यता के विषय में अब तक अनेक जानकारियाँ प्राप्त हो चुकी हैं। उसके नगरीय स्वरूप और विशिष्टताओं से विद्वान पूर्व परिचित हो चुके हैं, किन्तु उसके तिथि से सम्बन्धित प्रश्न आज भी अनुत्तरित हैं।
सिन्धु सभ्यता का अध्ययन करने वाले विद्वानों में भी तिथि के सम्बन्ध में मतैक्य नहीं है। सिन्धु सभ्यता के तिथि निर्धारण में सबसे बड़ी बाधा यह है कि यह सभ्यता भारत के ऐतिहासिक युग से कटी हुई है।
विश्व की अनेक सभ्यताओं में आद्यैतिहासिक काल से लेकर ऐतिहासिक युग तक अविच्छिन्न क्रम देखने को मिलता है, किन्तु सिन्धु सभ्यता में इसका अभाव है। इसलिए ऐतिहासिक तिथि के आधार पर सिन्धु सभ्यता की तिथि निर्धारित नहीं की जा सकती है।
सिन्धु सभ्यता के तिथि निर्धारण के लिए पुरावशेष ही महत्त्वपूर्ण साधन हैं, जिनका विश्लेषण भिन्न-भित्र विद्वानों ने अलग-अलग किया है।
सर्वप्रथम जॉन मार्शल नामक विद्वान् ने सन् 1931 ई० में सिन्धु सभ्यता की तिथि निर्धारित किया। मार्शल महोदय ने सिन्धु सभ्यता के पुरावशेषों और सुमेरियन सभ्यता के तिथियों के आधार पर इसकी तिथि 3250 ई० पू० से 2750 ई० पू० स्वीकार किया था।
अर्नेस्ट मैके ने सिन्धु सभ्यता का समय 2800 ई० पू० से 2500 ई० पू० माना था।
माधो स्वरूप वत्स ने सिन्धु सभ्यता की तिथि 3500 ई० पू० 2700ई० मानने का मत प्रस्तुत किया था।
उल्लेखनीय है कि मार्शल महोदय की तिथि अमान्य हो चुकी है, क्योंकि उनके तिथि निर्धारण का आधार सुमेरियन शासक सारगोन का राज्यकाल था। मार्शल महोदय ने जब तिथि का निर्धारण किया था, उस समय सारगोन का समय 2800-2750 ई० पू० माना जाता था, किन्तु नवीन साक्ष्यों के आलोक में सारगोन का शासन काल 2371-2316 ई० पू० माना जाने लगा है।
उपरोक्त तिथियों के आने के बाद सन् 1946 में मार्टीमर ह्वीलर ने सिन्धु सभ्यता के साक्ष्यों का पुनः अध्ययन किया।
ह्वीलर महोदय ने पश्चिम एशिया के विभिन्न नगर राज्यों से प्राप्त मुहरों और ऋग्वेद के अन्त: साक्ष्यों के आधार पर सिन्धु सभ्यता की तिथि 2500 ई० पू० से 1500 ई० पु० निर्धारित किया।
फेयर सर्विस महोदय ने सिन्धु सभ्यता का समय 2000-1500 ई० पू० माना था।
सन् 1964 ई० में डी० पी० अग्रवाल ने भी सिन्धु सभ्यता की तिथि पर प्रकाश डालने का पुन: प्रयास किया। उन्होंने सभ्यता के केन्द्रीय और परिधीय क्षेत्र की अलग-अलग तिथियाँ निर्धारित की। उनके अनुसार सिन्धु सभ्यता के सिन्ध और पंजाब के प्रमुख नगरों (केन्द्रीय क्षेत्र) की तिथि 2300-2000 ई० पू० और गुजरात तथा राजस्थान (परिधीय क्षेत्र) की तिथि 2000-1700 ई० पू० हो सकती है।
इसके अलावा एस० पी० गुप्त विभिन्न रेडियो कार्बन तिथियों के आलोक में सिन्धु सभ्यता के विकास के विभिन्न चरणों को 4000-1500 ई० पू० के मध्य निर्धारित करते हैं।
कतिपय अन्य विद्वान् सिन्धु सभ्यता का तिथि निर्धारण 2500-1750 ई० पू० में करते हैं। जिसमें 2200 ई० पू० से 2000 ई० पू० को विकसित अवस्था मानते हैं।
उपरोक्त तिथियों के आलोक में यह कहना कठिन है कि कौन-सी तिथि सिन्धु सभ्यता की वस्तुस्थिति से अधिक मेल खाती है?
अधिकांश पुरातत्वविद् हीलर द्वारा प्रतिपादित मत (2500 ई० पू० 1500 ई० पू०) का समर्थन करते हैं किन्तु उल्लेखनीय है कि सिन्धु सभ्यता का मेसोपोटामिया से व्यापारिक सम्बन्ध इतिहास में लगभग मान्यता प्राप्त कर चुका है। इस आधार पर सारगोन प्रथम के शासनकाल (चौबीसवीं शताब्दी ई०पू०) में सुमेरिया का सिन्धु सभ्यता के साथ व्यापार विकसित अवस्था में था।
अतः सिन्धु सभ्यता की तिथि 3000 ई० पू० से 1500 ई०पू० में निर्धारित करना औचित्यपूर्ण प्रतीत होता है।
इसके साथ ही काल निर्धारण की आधुनिक विधि C14 के अनुसार हड़प्पा सभ्यता की तिथि 2350 से 1750 ई०पू० निर्धारित होती है। तथा NCERT के अनुसार हड़प्पा सभ्यता का कालानुक्रम 2600 ई०पू० से 1900 ई०पू० मान्य है।
सिन्धु सभ्यता की विरासत(देन) Heritage of indus civilization:
1. भौतिक तत्त्व-
(I) कृषि और पशुपालन:
(ii) मृदभाण्ड:
(iii) गृह एवं दुर्ग विन्यास:
(iv) ब्राम्ही लिपि:-
(v) आहत सिक्कों पर:
2. धार्मिक तत्त्व-
(i) शिव-पूजा –
(ii) मातृ-शक्ति की उपासना-
(iii) यज्ञीय परम्परा-
(iv) मूर्ति-पूजा-
(v) वृक्ष एवं पशु पूजा-
(vi) नाग पूजा:-
(vii) योग-परम्परा-
(viii) जल-पूजा-
सिन्धु सभ्यता तथा वैदिक सभ्यता की तुलना (Comparison of Indus and Vedic Civilisations) :-
आकाश प्रजापति
(कृष्णा)
ग्राम व पोस्ट किलाहनापुर, कुण्डा प्रतापगढ़
छात्र: प्राचीन इतिहास कला संस्कृति व पुरातत्व विभाग, कलास्नातक द्वितीय वर्ष, इलाहाबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय