हड़प्पा सभ्यता | सिंधु घाटी सभ्यता | Characteristics of Indus valley civilization | सिन्धु घाटी सभ्यता की विशेषताएं | Harappan civilization in hindi

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हड़प्पा सभ्यता (Harappan civilization) न केवल भारत की बल्कि विश्व की विशालतम सभ्यता थी। यह भारत की प्रथम नगरीय सभ्यता थी। इस सभ्यता की अनेकों मूलभूत विशेषताएं थीं जिसका क्रमवार वर्णन निम्नलिखित है।

सिन्धु घाटी सभ्यता / हड़प्पा सभ्यता : (Harappan civilization)

 
हड़प्पा सभ्यता

जैसा कि हड़प्पा सभ्यता की उत्पत्तिहड़प्पा सभ्यता का विस्तार का विस्तृत वर्णन पिछली पोस्ट में किया जा चुका है। । अतः इस पोस्ट में हम हड़प्पा सभ्यता (Harappan civilization) की विशेषताओं की चर्चा करेंगे।

हड़प्पा सभ्यता की विशेषताएँ (Characteristics of harappan civilization )~

सिन्धु सभ्यता की प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार है-
1.) कांस्य कालीन सभ्यता : अपनी समकालीन नदी घाटी सभ्यताओं की तरह सिन्धु घाटी की सभ्यता धातुकालीन थी। यह कांस्यकालीन सभ्यता थी। वे सोना, चाँदी, तांबा (ताम्र), कांस्य (कांस्य), टिन (राँगा), सीसा आदि से परिचित थे, लेकिन उन्हें लोहे का ज्ञान नहीं था।
2.) नगरीय सभ्यता : यह सभ्यता उच्च कोटि की नगरीय सभ्यता थी। तत्कालीन लोगों ने बड़े नगरों की स्थापना की। सिन्धु सभ्यता के काल को भारतीय उपमहाद्वीप में ‘प्रथम नगरीय क्रांति’ (First Urban Revolution) का दौर कहा जाता है।
फेयर सर्विस नामक विद्वान का अनुमान है कि मोहनजोदड़ो की जनसंख्या लगभग 41,250 रही होगी। हड़प्पा (दुर्ग क्षेत्र को छोड़कर) की जनसंख्या 23,544 आंकी गई है । (जनसंख्या संबंधी उपरोक्त आंकड़े अनुमानपरक हैं) सार्वजनिक महत्व की विशिष्ट इमारतों , लेखन कला के साक्ष्य के आधार पर कांस्य काल की बस्तियों को नगर माना जा सकता है।
3. प्रजातांत्रिक सभ्यता : अब तक की खुदाई से राजाओं के अस्तित्व का पता नहीं चलता और विशाल भवन, स्नानागार,अन्नागार आदि के अवशेष उपलब्ध हुए हैं, जो उस काल के सामूहिक जीवन के प्रतीक है। अतः इतिहासकारो का विचार है कि यह सभ्यता पूर्णतः प्रजातंत्रीय थी।
4. केंद्रीकृत शासन व्यवस्था : सिन्धु घाटी की शासन-व्यवस्था केन्द्रीकृत थी। इस केन्द्रीभूत शासन व्यवस्था की सत्ता के केंद्र के रूप में हड़प्पा एवं मोहनजोदड़ो स्थापित थे । मार्टिमर ह्वीलर , स्टुअर्ट पिग्गट आदि ने हड़प्पा एवं मोहनजोदड़ो को सिन्धु सभ्यता की दो राजधानी माना है।
 
5. व्यापार प्रधान सभ्यता : सिन्धु सभ्यता के लोगों का आर्थिक जीवन मुख्यतः व्यापार पर आधारित था। दूसरे शब्दों में यह सभ्यता कृषि प्रधान सभ्यता नहीं थी। तत्कालीन व्यापार वाणिज्य उन्नत दशा में था । सिन्धु सभ्यता का अपने समकालीन सभ्यताओं से व्यापारिक संपर्क था।
6. शांति प्रधान सभ्यता : हड़प्पा, मोहनजोदड़ो आदि की खुदाई से कवच,ढाल , तलवार आदि के स्थान पर अधिकतर भाले, कुल्हाड़ी, धनुष-बाण आदि प्राप्त हुए हैं जो लोगों के सामरिक प्रवृत्ति का द्योतक न होकर उनके आखेटीय जीवन की ओर संकेत करते हैं। कुल मिलाकर यह सभ्यता शांतिपूर्ण थी।
7.द्विदेवमूलक धर्म : सिन्धु सभ्यता के लोगों की धार्मिक भावना द्विदेवमूलक थी। उन लोगों ने स्त्री-पुरुष की दो परम शक्तियों को देवी (मातृदेवी) व देव (पशुपति देव) के रूप में प्रतिष्ठित किया था।
8. लिपि का ज्ञान : सिन्धु सभ्यता के लोगों को लिपि का ज्ञान था। इसके माध्यम से वे अपने विचारों को प्रकट करते थे। लिपि ने इस सभ्यता के विकास में महत्वपूर्ण योगदान किया होगा। ऐसा इसलिए कहना पड़ रहा है कि अभी तक इस लिपि को संतोषजनक ढंग से नहीं पढ़ा जा सका है।

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      हड़प्पा सभ्यता की नगर योजना (City planning of Harappan civilization)

उपलब्ध पुरातात्विक साक्ष्यों के आधार पर विद्वानों ने सिंधु सभ्यता को नगरीय सभ्यता का नाम दिया है। क्योंकि जिस सुनियोजित ढंग से यहां नगरों का निर्माण किया गया है। वैसा अन्य समकालीन मेसोपोटामिया या मिस्र में नहीं मिलता है।
भारतीय इतिहास में नगरों का प्रादुर्भाव सर्वप्रथम सिन्धु घाटी सभ्यता में ही हुआ। नगर एक ऐसा विशाल जनसमूह होता है जिसकी जीविका प्रधानतः व्यापार वाणिज्य पर निर्भर करती है।

1. नगर नियोजन (town planning)-

हड़प्पा सभ्यता (Harappan civilization) की प्रमुख नगर जिनकी खुदाई की गई है – हड़प्पा , मोहनजोदड़ो , चन्हूदडो, लोथल , कालीबंगा , बनावली , धौलावीरा आदि।
हड़प्पा सभ्यता के अधिकांश नगरों में प्रायः समरूपता दिखती है । किंतु फिर भी कुछ नगरों (लोथल,चन्हूदड़ो,सुरकोटदा आदि) के नगर निवेश में कुछ अंतर मिलता है, जो संभवतः स्थानीयता का द्योतक है।
मोहनजोदड़ो का नगर image
इन्हीं के आधार पर सभ्यता के नगर नियोजन तथा भवन विन्यास की जानकारी प्राप्त की जा सकती है। जिसका विवरण निम्नवत् है।

2. नगर योजना की विशेषताएं (Characteristics of city planning):-

सिन्धु सभ्यता की नगर योजना(Town planning) की विशेषताएं इस प्रकार हैं―

(i) नगर विन्यास की पद्धति:- 

जाल पद्धति(grid system)
एक दूसरे को समकोण पर काटती सीधी रेखाओं की पद्धति को जाल पद्धति कहते हैं। यह शतरंज के बिसात(chess board) की तरह दिखती है।
सिन्धु सभ्यता के प्रायः समस्त नगरों का निर्माण एक निश्चित व्यवस्था के आधार पर हुआ था। इ
स योजना की आधार-पीठिका थी नगर की प्रमुख सड़कें। ये पूर्व से पश्चिम की ओर और उत्तर मे दक्षिण की ओर जाती थीं। इस प्रकार प्रत्येक नगर इनके द्वारा शतरंज (Chess Board) के खानों की भाँति कई खंडों में विभक्त हो जाता था प्रत्येक खण्ड की माप प्रायः 800’x1200′ होती थी। ये खण्ड मोहल्ले के रूप में हो जाते थे।

(ii) नगर विन्यास के दो भाग –

सिन्धु सभ्यता के नगर मुख्यतः 2 भागों में विभाजित हैं।

(a) गढ़ी या दुर्ग क्षेत्र: (ऊँचाई पर),पश्चिम की तरफ

(b) निचला व मुख्य शहर: पूर्व की तरफ

अपवाद~ ◆धौलावीरा नगर तीन भागों(दुर्ग नगर , मध्य नगर व निचला नगर) में विभाजित था।
धौलावीरा पुरास्थल
धौलावीरा नगर विन्यास

◆ लोथल और सुरकोटदा में दुर्ग और आवासीय क्षेत्र के अलग अलग टीले के साक्ष्य नहीं मिले हैं। लोथल और सुरकोटदा पुरास्थल के सम्पूर्ण क्षेत्र एक ही रक्षा प्राचीर से घिरे हुए थे।

हड़प्पा सभ्यता का कालीबंगा पुरास्थल
कालीबंगा दुर्ग व नगर विन्यास
A.नगर या आवासीय क्षेत्र: नगर के पूर्वी टीले से आवासीय क्षेत्र(Lower city) के साक्ष्य मिले हैं।
यह सामान्यतः किलेबंद/दुर्गीकृत नहीं होता था।
हड़प्पा सभ्यता (Harappan civilization) के नगर या आवासीय क्षेत्र में सामान्य वर्ग के लोग रहते थे , जिनमें सामान्य नागरिक, व्यापारी, शिल्पकार, कारीगर, श्रमिक, आदि शामिल थे।
अपवाद~ ◆ कालीबंगा,लोथल तथा सुरकोटदा

B.गढ़ी या दुर्ग क्षेत्र: नगर के पश्चिमी टीले से दुर्ग(Citadel) के प्रमाण मिले हैं। यह आवासीय क्षेत्र से अपेक्षाकृत ऊंचे किन्तु छोटे टीले पर स्थित थे।
दुर्ग क्षेत्र में बड़े बड़े भवन हैं, जो संभवतः प्रशासनिक तथा धार्मिक गतिविधियों के केंद्र थे।
दुर्ग क्षेत्र में प्रशासक, पुरोहित वर्ग के सदस्य रहते रहे होंगे।
मोहनजोदड़ो में किले के भीतर पुरोहित आवास (Collegiate buildings),सभा भवन, अन्नागार , और विशाल स्नानागार स्थित थे।
हड़प्पा के दुर्ग टीले के विषय में विस्तृत जानकारी का अभाव है, क्योंकि लोगों द्वारा ईंटो के निकल ले जाने के कारण दुर्ग के भवनों की रूपरेखा स्पष्ट नहीं हो सकी है।
अपवाद~ ◆ आमरी, कोटदीजी व चन्हूदड़ो में बस्तियां दुर्गीकृत नहीं हैं।
◆ कालीबंगा पुरास्थल का दुर्ग क्षेत्र, पूरब से पश्चिम जाने वाली दीवार से, उत्तर व दक्षिण में बंटा हुआ है।

(iii).प्रवेश द्वार –

नगर में प्रवेश के लिए एक सामान्य प्रवेश द्वार बना हुआ था। प्रवेश द्वारों की संख्या एक से अधिक हो सकती थी।

(IV). रक्षा दीवार व बुर्ज :

हड़प्पा सभ्यता के नगरों के दुर्ग क्षेत्र प्रायः सुरक्षा दीवार से घिरे थे। रक्षा दीवार पर थोड़ी थोड़ी दूर पर बुर्ज(अट्टालकाएं)Tower तथा पुश्ते (Bastions) बने होते थे जो सामान्यतः रक्षा दीवार से ऊंचे होते थे ।
सुरक्षा दीवार बहुत चौड़ी होती थी।(मोहनजोदड़ो की सुरक्षा दीवार की चौड़ाई 43 फ़ीट थी।)


अपवाद~ ◆ लोथल पुरास्थल की सुरक्षा दीवार में बुर्ज नहीं पाया गया है।
सामान्यतः रक्षा दीवार व बुर्ज मिट्टी के बने होते थे।
अपवाद~ ◆ सुरकोटदा से पत्थर की रक्षा दीवार तथा मोहनजोदड़ो से पक्की ईंटों के बुर्ज प्राप्त हुए हैं।
★हड़प्पा के दुर्ग के बाहर उत्तर दिशा में स्थित एफ टीले पर अन्नागार,अनाज कूटने के वृत्ताकार चबूतरे तथा श्रमिक बस्तियों के प्रमाण मिले हैं।
★लोथल का दक्षिणी पूर्वी भाग दुर्ग क्षेत्र था जिसमें अन्नागार अथवा मालगोदाम स्थित था। इसी क्षेत्र में अन्य महत्वपूर्ण भवन रहे होंगे क्योंकि एक कतार में बाहर स्नानगृह व ढकी हुई नालियां मिली हैं। किले बंदी की 3 दीवालें बनाई गई हैं। दीवालों का निर्माण मिट्टी की कच्ची ईंटो और पत्थरों से किया गया है।
★कालीबंगा के दुर्ग को एक लंबी दीवाल से उत्तर -दक्षिण दो भागों में विभाजित किया गया था। कालीबंगा के दुर्ग क्षेत्र के दक्षिणी आधे भाग में मिट्टी और कच्ची ईंटो के कई आयताकार क्षतिग्रस्त चबूतरे मिले हैं। एक चबूतरे पर एक पंक्ति में सात अग्निकुंड मिले हैं , जिनमे पशुओं की हड्डियां, श्रृंग तथा राख मिली है। पुरातत्वविद् इसका संबंध धार्मिक गतिविधियों से जोड़ते हैं।
★धौलावीरा में सम्पूर्ण नगर को तीन भागों-दुर्ग,मध्य नगर, और अवम नगर में विभाजित किया गया है।

(V)ईंट-

सिंधु घाटी सभ्यता के नगरों की विन्यास में तथा इमारतों में पक्की ईंटों का जिस पैमाने पर उपयोग मिलता है वैसा तत्युगीन विश्व की अन्य सभ्यताओं में अलभ्य है।

Hadappa sabhyta ki eent
हड़प्पा सभ्यता की ईंट
ईंटो के प्रकार-
जिस समय मिस्र निवासी पक्की ईंटो के प्रयोग से अनभिज्ञ थे इस समय सिन्धु घाटी सभ्यता के निवासी कच्ची व पक्की दोनों प्रकार की ईंटो का प्रयोग बड़ी कुशलता से प्रचुर मात्रा में कर रहे थे।
काटने के बाद कच्ची ईंटो को धूप में रखकर भरपूर सुखाया जाता था। और पक्की ईंट बनाने के लिए उसे भट्ठे में तपाया जाता था।

मकान, नालियां तथा स्नानगृह अच्छी तरह पकाई गई ईंटो की सहायता से बनते थे।
अपवाद~◆ लोथल, रंगपुर, तथा कालीबंगा में भवनों के निर्माण के लिए कच्ची ईंटो का ही प्रायः उपयोग किया गया है।
◆ कालीबंगा में पकी ईंटो का प्रयोग केवल नालियों, कुओं, तथा दहलीजों के निर्माण हेतु किया गया है।】


इन ईंटो का आकार प्रकार अलग अलग है, जिससे यह अनुमान लगाया है सकता है कि इस काल मे ईंट निर्माण निश्चयतः एक उद्योग का रूप ले चुका था। तथा बड़े पैमाने पर चलाए गए इस उद्योग में कई प्रकार के हाथ काम कर रहे थे।
ईंटें चतुर्भुजाकार (अधिकांश आयताकार) होती थीं।
ईंटो का आकार लंबाई:चौड़ाई:ऊंचाई ― 4:2:1 थी।
मोहनजोदड़ो से प्राप्त सबसे बड़ी ईंट 51.43 सेमी.× 26.27 सेमी.× 6.35 सेमी. के आकार की है।
सामान्यतः 27.94 सेमी.× 13.97 सेमी.× 6.35 सेमी. के आकार का प्रयोग सुप्रचलित था।
सबसे छोटी ईंट का आकार 24.13 ×11.05 × 5.08 सेमी. का है।

A. कच्ची ईंटे-

इसका प्रयोग सामान्यतः रक्षा दीवार, चबूतरे व सड़को के निर्माण में किया जाता था।

B. पक्की ईंट-

पक्की ईंटों का प्रयोग विशाल या दुमंजिले भवन निर्माण में होता था।

C. फन्नीदार ईंट-

इस प्रकार की ईंटे जलनिकासी व्यवस्था में प्रयुक्त होती थीं।

D. अलंकृत ईंट-

इस किस्म की ईंटे एक मात्र कालीबंगा के फर्श के निर्माण में प्रयोग में लायी गयी हैं।

E. L आकार की ईंट-

मकान के किनारे, मकान के बाहरी हिस्से व मल निकास में प्रायः L आकार की ईंटो का प्रयोग देखने को मिलता है।
एल आकार की ईंटो को कभी कभी कोन बनाने के लिए प्रयोग किया जाता था।

ईंट की जुड़ाई में :

● ईंट की जुड़ाई में गीली मिट्टी का प्रयोग सर्वाधिक हुआ है जो लगभग सभी पुरास्थलों के सभी स्थानों पर देखने को मिल सकता है।
● जिप्सम(खड़िया मिट्टी) का प्रयोग बहुधा नालियों के ईंटो की जुड़ाई में किया जाता था। जिप्सम(खड़िया मिट्टी) और मिट्टी के गारे का प्रयोग पलस्तर करने के लिए किया जाता था।
● बिटुमिन का प्रयोग भी ईंटो की जुड़ाई हेतु मोहनजोदड़ो के वृहत स्नानागार में दिखाई पड़ता है।
●चूना मिट्टी का प्रयोग भी ईंटो को जोड़ने में यदा कदा (एकाध जगह) किया गया है।
◆ सम्पूर्ण सभ्यता में ईंटो की जुड़ाई हेतु सीमेंट, बालू व सुर्खी चूना के प्रयोग का अभाव था।

3. हड़प्पा सभ्यता के आवासीय भवन – (Harappan civilization)

हड़प्पा सभ्यता (Harappan civilization) के उत्खनन में प्रायः सभी पुरास्थलों से छोटे-बड़े सभी प्रकार के भवनों के ध्वंसावशेष मिले हैं।

Houses of Harappan civilization
सभी पुरास्थलों में भवनों को एक विशेष पद्धति ‘जाल पद्धति’ Grid System  के आधार पर विन्यासित किया गया है।
सैंधव सभ्यता के भवन 3 प्रकार के हैं―निवास गृह, विशाल भवन तथा सार्वजनिक स्नानागार।

(i).आंगन:

सिन्धु घाटी सभ्यता के नगरों में प्रत्येक आवासीय भवन के बीचोबीच में एक आंगन होता था

House map of harappan civilization
मोहनजोदड़ो के आवासीय घर

(ii) कमरे:-

हड़प्पा सभ्यता के घरों में सुनियोजित कमरों के दर्शन होते हैं।

आंगन के तीन या चारों ओर कमरे बने होते थे।
सामान्य मकान में 4-5 या 6 कमरे होते थे।

Hadappa sabhyta ke rooms ke avshesh

हड़प्पा सभ्यता से प्राप्त कमरे के अवशेष

 कुछ ऐसे भी भवन होते थे जिनमें केवल 2 कमरे ही हैं। सबसे छोटे भवन की माप लगभग 30’×27′ थी। वहीं दूसरी ओर बड़े भवनों की माप छोटे भवनों की तुलना में लगभग 2 गुनी होती थी। कभी कभी बड़े भवनों में कमरों की संख्या 30 तक होती थी।
कुछ कमरों को सुरक्षा को दृष्टि में रखकर बनाया जाता था। हड़प्पा की अपेक्षा मोहनजोदड़ो के भवन अधिक विशाल थे।
कुछ मकान सम्भवतः मंदिर थे। नगर के भवन अपनी सादगी के लिए प्रसिद्ध थे।
प्रायः समस्त भवनों का निर्माण नींव डालकर होता था। ये नींव प्रायः कच्ची अथवा टूटी फूटी ईंटो से भरी जाती थी। सीलन और बाढ़ से बचने के लिए कभी कभी मकान ऊंचे ऊंचे चबूतरों पर भी बनाए जाते थे।

अधिकांश मकानों में रसोईघर, स्नानागार व कुएँ मिले हैं। कुछ मकानों में शौचालय के भी साक्ष्य मिले हैं। संभवतः ये बड़े(सम्पन्न) लोंगो के रहे होंगे।

(iii) दीवार-

मकान की दीवार कभी धूप में सुखाई गयी कच्ची ईंटो की , कभी आग में तपाई गयी पक्की ईंटो की तो कभी पुराने मकानों से निकली हुई पुरानी ईंटो से बनाई जाती थी।

हड़प्पा सभ्यता की दीवार
उत्खनन से प्राप्त दीवार
अपवाद~ कालीबंगा, लोथल और रंगपुर में प्रायः कच्ची ईंटो के मकान बने थे।】
साझी दीवारे बहुत कम देखने को मिलती हैं।
दीवारों में हवा तथा प्रकाश हेतु पत्थर की जाली लगाई जाती थी। इससे यह सूचित होता है कि इस सभ्यता के निवासी स्वास्थ्य तथा सफाई के प्रति सजग थे।

(iv) सीढियां-:

सिंधु सभ्यता के मकानों में सीढ़ियों के साक्ष्यों से मकान के दो मंजिले होने की संभावना व्यक्त की गई है।

हङप्पा सभ्यता से प्राप्त सीढ़ी के अवशेष
हड़प्पा सभ्यता से प्राप्त सीढियाँ
सीढियां सामान्यतः बड़े घरों में मौजूद होती थी। हड़प्पा की अपेक्षा मोहनजोदड़ो में ज्यादा सीढियां मिली हैं।
सीढियां ऊंची और तंग(संकरी) हैं। सीढ़ियों के नीचे रिक्त जगह नहीं है।

दुमंजिला मकानों की नीवें अधिक गहरी होती थी। और उनकी पहली मंजिल की दीवारें अधिक चौड़ी होती थी जिससे कि वे अपने ऊपर की मंजिल का भार सुगमतापूर्वक उठा सके।

(v) ईंटो की जुड़ाई-

ईंटों को जोड़ने(चिनने) में प्रायः मिट्टी के गारे का प्रयोग किया जाता था। मैके महोदय के अनुसार दीवारों पर प्लास्टर करने की भी प्रथा थी। यह प्लास्टर बहुधा मिट्टी का परंतु कभी कभी जिप्सम का भी होता था।

(vi) फर्श-

सिन्धु सभ्यता के मकानों की फर्श मिट्टी की कच्ची या पकी ईंटो से बनाई गई है। कतिपय मकानों की फर्श मिट्टी को कूटकर बनाई गई है।

(vii) छत-

सिंधु सभ्यता के छतों के स्पष्ट साक्ष्य नहीं मिले हैं। विद्वानों का अनुमान है कि संभवत: छतें घासफूस तथा सरकंडे से बनाई जाती थीं जिन पर मिट्टी का लेप लगाया जाता था।

कुछ विद्वान छतों को कच्ची या पक्की ईंटो द्वारा बना मानते हैं।
उल्लेखनीय है कि हड़प्पा सभ्यता के किसी भी पुरास्थल से भवनों की छतों में धातु के प्रयुक्त होने के साक्ष्य नही मिले हैं।
छतों के ऊपर पानी निकालने के लिए मिट्टी या लकड़ी के परनाले बने होते थे।

सामान्यतः सिन्धु प्रदेश के प्रत्येक अच्छे घर मे आंगन, पाकशाला, स्नानागार, शौचालय और कुंए की व्यवस्था रहती थी।

(viii) पाकशाला-:

प्रायः आंगन के किसी कोने में पाकशाला बना ली जाती थी। भोजन लकड़ी से जलने वाली अंगीठियों, चूल्हों अथवा भट्टियों में बनता था।

(ix) स्नानागार-

स्नानागार प्रायः मकान के उस भाग में बनाये जाते थे जो सड़क अथवा गली के निकटतम हो जिससे कि नालियों और परनालों द्वारा उनका पानी सुगमतापूर्वक सड़क की नालियों तक पहुचाया जा सकें।

चित्र: नीचे है

घरों की तथा गलियों की व सड़कों की नालियां ढकी हुई होती थी। प्रत्येक घर में एक या अधिक स्नानागार होते थे। स्नानागार वर्गाकार या आयताकार होते थे।
स्नानागार की फर्श पक्की ईंटों से पटी होती थी। यह पटान इतनी अच्छी होती थी कि ईटों के बीच में कहीं भी दरार नहीं दिखाई देती।
स्नानागार की फर्श ढलवा बना हुआ है और पानी निकालने के लिए मोरी की ओर झुकाव है। ताकि पानी की एक बूंद भी न रुके।

(x) कुआँ-:

सिन्धु प्रदेश के प्रायः सभी घरों में कुआं होता था।
गढ़ी क्षेत्र में तो सभी मकानों में कुएं की व्यवस्था थी।
सामान्यतः कुँआ वृत्ताकार एवं अंडाकार होता था।
यह कुएं अपनी ईटों की दृढ़ जुड़ाई(चिनाई) के लिए प्रसिद्ध है।

Lothal site

लोथल से प्राप्त कुंआ

पक्की ईंटो के कुओं में फन्नीदार ईंटो का प्रयोग एवं फर्श की जुड़ाई बिटुमिन से की जाती थी।
पानी रस्सी की सहायता से निकाला जाता था।
पानी खिंचने के लिए कुओं पर घिर्री(घिरनी) का प्रयोग होता था।
रस्सी की रगड़ आज तक कुछ कुएं की मुंडेर के पत्थरों पर दिखाई देती है।
पानी निकालने हेतु कुछ कुओं पर गिरी(घिरनी) भी लगी रहती थी।

(xi) दरवाजे, खिड़कियां-:

यह आश्चर्य की बात है कि सिंधु प्रदेश के अधिकांश दरवाजे और खिड़कियां मुख्य सड़कों की ओर ना होकर गलियों की ओर ही होते थे।
इसके वास्तविक कारण का अनुमान लगाना कठिन है। संभवतः मुख्य सड़क के प्रदूषण एवं कोलाहल से बचने हेतु दरवाजे, खिड़कियां एवं रोशनदान सड़कों की और न होकर पीछे किसी गलियों में खुलते थे।
अपवाद~ केवल लोथल नगर के घरों के दरवाजे मुख्य सड़क की ओर खुलते थे।】
भवनों के द्वारों पर मेहराबों का प्रयोग नहीं मिलता है। उन पर लकड़ी का पटाव ही अधिक दिखाई देता है।
अपवाद~ लोथल में गोलाकार मेहराब बनाने की कोशिश की गई है। संभवत: सफलता भी मिली होगी।】
द्वारों में लकड़ी की चौखट तथा लकड़ी के किवाड़ों(दरवाजों) का प्रयोग किया जाता था।
दरवाजे दीवार के मध्य में न होकर किनारे लगाए जाते थे। द्वारों की माप 3’4″ से 3’10” तक होती थी।

हड़प्पा सभ्यता की खिड़कियां

मकान एक दूसरे से सटाकर बनाये जाते थे। किंतु कभी-कभी दो मकानों के बीच एक 1-2 फुट चौड़ा गलियारा छोड़ दिया जाता।
किंतु कहीं कहीं यह भी साक्ष्य मिला है कि दो मकानों के बीच की जगह को ईटों से भर दिया गया है।

(xii) स्तम्भ-

मकानों को बनाने में ईंटों से बने स्तंभों के भी साक्ष्य मिले हैं। यह वर्गाकार या आयताकार होते थे, न कि मेसोपोटामिया के जैसे गोलाकार।
उल्लेखनीय है कि लकड़ी से बने स्तंभों का साक्ष्य अब तक नहीं मिला है।
स्तंभो का प्रचलन सामान्य तौर पर नहीं था।

इस प्रकार हम देखते हैं कि हड़प्पा सभ्यता में अन्य विशेषताओं के साथ साथ भवन निर्माण भी एक महत्वपूर्ण विशेषता रही है। इतने प्राचीन काल मे ऐसी तकनीकी से घर बनाना एक अजूबे से कम नही था। ऐसे अनेकों तत्व आज भी विद्यमान हैं जो हड़प्पा सभ्यता के भवनों में देखने को मिलते हैं।

4. हड़प्पा सभ्यता की सड़कें:-


सिंधु घाटी सभ्यता की प्रमुख विशेषता सुनियोजित सड़कों का निर्माण माना जाता है। सभ्यता की वास्तुकला में सड़कों का महत्वपूर्ण स्थान रहा है।

Dhaulavira site

हड़प्पा सभ्यता के धौलावीरा से प्राप्त सड़क

मुख्य मार्ग द्वारा सम्पूर्ण नगर को 5-6 विशाल आयताकार खंडों में विभाजित होता था।
सड़के एक दूसरे को समकोण पर काटती थी। मोहनजोदड़ो और लोथल में मुख्य मार्ग उत्तर से दक्षिण की ओर बनाए गए हैं। जबकि कालीबंगा में सड़कों का निर्माण पूर्व – पश्चिम दिशा में किया गया है।
नगर के मुख्य मार्ग सामान्य सड़कों की अपेक्षा अधिक चौड़े हैं। मोहनजोदड़ो में मुख्य मार्ग 9.15 मीटर चौड़ा तथा गलियां औसतन 3 मीटर चौड़ी थी। इसी प्रकार कालीबंगा में मुख्य सड़क 7.20 मीटर चौड़ी तथा गलियां 1.80 मीटर चौड़ी है। लोथल में मुख्य मार्ग 4 – 6 मीटर तक चौड़े हैं, जबकि गलियों की चौड़ाई 2 से 3 मीटर तक है।

सड़के सामान्यता कच्ची ईंटों या मिट्टी से बनी होती थी फिर भी कहीं-कहीं पक्की सड़क बनाए जाने के साक्ष्य भी मिले हैं।

हड़प्पा सभ्यता की विशेताएं
हड़प्पा सभ्यता से प्राप्त पक्की सड़कें
सड़क निर्माण तथा भवन निर्माण में हवा के रुख का ध्यान दिया जाता था। मैके(Mackay) महोदय का कथन है-कि सड़कों का विन्यास कुछ इस प्रकार से है कि हवा स्वयं ही सड़कों को साफ करती रहे।

प्रायः सड़कों के दोनों तरफ ढकी हुई नालियां मिली हैं।

सड़कों की सफाई का बड़ा ध्यान रखा जाता था। इनके किनारे जगह-जगह कूड़ा करकट एकत्र करने के लिए गड्ढे खोदे जाते थे अथवा कूड़ेदान/कूड़ापात्र रखे जाते थे। हड़प्पा में इसी प्रकार गड्ढे मिले हैं। मोहनजोदड़ो की एक सड़क के दोनों ओर ऊंचे ऊंचे चबूतरे मिले हैं। संभवत: दुकानदार इस पर अपनी वस्तुओं का विक्रय करते थे। कहीं कहीं सड़कों के किनारे भोजनालय के ध्वंसावशेष मिले हैं।

5. हड़प्पा सभ्यता की नालियाँ-

सिन्धु-प्रदेश के प्रायः सभी नगर अपनी नालियों की व्यवस्था के लिए प्रसिद्ध हैं। प्रायः प्रत्येक सड़क और गली के दोनों ओर पक्की ईंटो की नालियाँ बनाई गई थीं। इनकी लंबाई चौड़ाई विभिन्न है।

Hadappa sabhyta
हड़प्पा सभ्यता से प्राप्त नाली

कुछ नालियां 9 इंच चौड़ी और 12 इंच गहरी हैं, कुछ नालियां 23 सेमी. चौड़ी तथा 50 सेमी. तक गहरी थी किन्तु अन्य इससे दुगुनी चौड़ी और गहरी भी थीं।

 ये नालियां बड़ी ईंटो या पत्थर से ढकी हैं और आवश्यकता अनुसार उन्हें हटाया भी जा सकता था।
नालियों की जुड़ाई और प्लास्टर में मिट्टी, चूने तथा जिप्सम का प्रयोग मिलता है। किसी-किसी नाली में मेहराब भी दृष्टिगत होता है।
बरसात का पानी निकलने के लिए नालियों में कुछ कुछ अंतर पर छेद बने होते थे।

मकानों के कमरों, रसोई, स्नानगृह, शौचालय आदि से आने वाली नालियाँ अथवा परनाले सड़क की नालियों में मिल जाते थे। इसी प्रकार नगर की छोटी-छोटी नालियाँ बड़ी तथा प्रमुख नालियों में मिल जाती थीं।
घरों के बरसाती और स्नानघरों और शौचालयों के पानी और मलमूत्र आदि बहने के लिए नालियों में मलकूप(Man holes) बने होते थे, जोकि बड़ी ईंट से ढके होते थे। इसे हटाकर साफ किया जाता था।
इस सुयोजना के द्वारा घरों, गलियों और सड़कों का गन्दा पानी नगर के बाहर निकाल दिया जाता था।
[मोहनजोदड़ो तथा हड़प्पा में ऐसी नालियां भी मिली है जो किसी नाली के स्थान पर सोख्ता गड्ढो में गिरती थीं।]

नगर के बाहर नालियाँ कहाँ गिरती थीं इसके विषय मे अब तक जानकारी नहीं है।
मोहनजोदड़ो में नालियों के किनारे रेत के ढेर मिले हैं, जिससे यह अनुमान लगाया गया है कि समय-समय पर इन नालियों को साफ करने की भी व्यवस्था थी।
नालियों के किनारे कहीं-कहीं गड्ढे बने हुए मिले हैं अनुमानतः नालियों को साफ करने के पश्चात् उनसे निकाला हुआ कूड़ा-करकट, रेत और कीचड़ इन्हीं गड्ढों में जमा कर दिया जाता था। कहीं-कहीं लम्बी नदियों के बीच में गड्ढे (soak-pit) बना दिये जाते थे। इनमें कूड़ा-करकट जमा हो जाता था और नदियों का प्रवाह अबाध रहता था।

 सिन्धु प्रदेश की सड़कों और नालियों की ऐसी सुन्दर व्यवस्था 18वीं शताब्दी तक पेरिस और लन्दन के प्रसिद्ध नगरों में भी न थी। सिन्धु प्रदेश की इस योजना को देखने से स्पष्ट हो जाता है कि वहाँ के प्रत्येक नगर में कोई न कोई  स्थानीय सरकार अवश्य कार्य करती होगी।

6. शौचालय:-

सिंधु घाटी सभ्यता के प्रायः सभी घरों में शौचालय की व्यवस्था देखने को मिलती है। गढ़ी क्षेत्र में तो सभी घरों में अवश्य शौचालय दिखाई पड़ता है।
Harappan civilization toilet
हड़प्पा से प्राप्त शौचालय
 शौचालय पक्की ईंटो के बने होते थे।
शौचालयों की पक्की ईंटो में L आकार की ईंटे दिखाई पड़ती हैं।
ह्वीलर ने सिन्धु सभ्यता के शौचालयों की तुलना आधुनिक पश्चिमी सभ्यता के शौचालयों से किया है।

शौचालय के मल मुत्रों का निकास घरों की छोटी नालियों से गलियों की नालियों तक तथा गलियों की नालियों द्वारा सड़कों की नालियों से बहता था।

7. सफाई व्यवस्था:-

हड़प्पा सभ्यता की अनेकों विशेषताओं में उस काल की सफाई व्यवस्था विशेष रूप से उल्लेखनीय है।
सभ्यता के प्रत्येक व्यक्ति सफाई के प्रति सजग थे। तथाकथित उस सभ्यता का प्रशासन भी सफाई के प्रति विशेष ध्यान देता था।
घरों में कूड़ापात्र के साक्ष्य देखने को मिले हैं। प्रत्येक घर के कूड़ापात्र का कूड़ा व्यक्ति सड़कों पर रखे कूड़ापात्र या गड्ढो में डाल देते थे।
कूड़ापात्र मिट्टी का होता था।

8. प्रकाश व्यवस्था:-

सिन्धु घाटी सभ्यता की प्रकाश व्यवस्था सभ्यता की एक महत्वपूर्ण विशेषता थी।
प्रायः प्रत्येक घरों को बनाते समय प्रत्येक कमरों में प्रकाश व्यवस्था का विशेष ध्यान दिया जाता था।
मोहनजोदड़ो में गलियाँ व सड़कों के किनारे स्तंभ बने हुए मिलते हैं जिससे अनुमान होता है कि ये स्तंभ, दीप-स्तंभ (Lamp-Post) रहे होंगे तथा इन पर प्रकाश की समुचित व्यवस्था रही होगी।

        :-हड़प्पा सभ्यता का प्रशासन:-

हड़प्पा संस्कृति में प्रशासन का स्वरूप था। परंतु क्या और कैसा रहा होगा यह आज भी गम्भीर विमर्श का विषय बना हुआ है।
Harappan civilization city
इस बात की कल्पना निम्न तथ्यों से की जा सकती है―
(1) नगरों में सड़कों के निर्माण, रख-रखाव, सफाई की व्यवस्था आदि के लिए स्थानीय प्रशासन की आवश्यकता रही होगी।
(2) हड़प्पा और मोहनजोदड़ो से प्राप्त अन्नागार में अनाजों को एकत्र करने और वितरण करने के लिए प्रशासन आवश्यक रहा होगा।
(3) सिन्धु सभ्यता के पूरे परिधीय क्षेत्र में उपकरणों, औजारों, ईंटों के आकार-प्रकार, बाट माप पद्धति, नगर-योजनाओं आदि में क्षेत्रीय प्रभाव को छोड़कर लगभग समरूपता दिखायी देती है।
ऐसा प्रतीत होता है कि सिन्धु सभ्यता में अनेक वस्तुओं का निर्माण उद्योगशालाओं में बड़े पैमाने पर किया जाता था और जिसका वितरण विभिन्न नगरों में सुचारु रूप से होता था अत: वस्तुओं के उत्पादन और वितरण के लिए प्रशासनिक इकाई की आवश्यकता रही होगी।
(4) सिन्धु सभ्यता में स्थानीय उद्योगों के उत्पादन और खपत पर नियन्त्रण के अलावा कतिपय बहुमूल्य वस्तुयें सुदूर देशों से आयात की जाती थीं इन स्थानीय नियन्त्रण और आयातित वस्तुओं के देख-रेख और वितरण के लिए भी किसी शासक या प्रशासनिक अधिकारी की आवश्यकता रही होगी।
 (5) सिन्धु सभ्यता के कतिपय नगरों में दुर्ग और नगर क्षेत्र अलग-अलग मिले हैं। बड़े नगरों में अनेक सार्वजनिक भवन एवं विशिष्ट भवनों के अवशेष मिले हैं । सम्भवत: दुर्ग क्षेत्र के विशिष्ट भवन अधिकार सम्पन्न लोगों की ओर संकेत करते हैं। इन अधिकार सम्पन्न लोगों में पुरोहित, प्रशासक अथवा व्यापारी वर्ग की गणना की जा सकती है जिनका सम्बन्ध प्रशासनिक व्यवस्था से रहा होगा।
बाशम के शब्दों में : “हड़प्पा सभ्यता के संपूर्ण क्षेत्र में सड़कों की स्थायी योजना, माप-तौल के बाटों, ईंटों के आकार और यहाँ तक कि बड़े नगरों के पृष्ठाधार (layout) में पूर्णतया एकरूपता पायी जाती है, जिससे यह विदित होता है कि शासन व्यवस्था अच्छी थी और यहाँ पर अनेक समुदाय का स्वतंत्र राज्य न होकर केवल एक केन्द्रित सरकार थी।”
 मैके तथा स्टुअर्ट पिगट आदि पुराविदों ने हड़प्पा तथा मोहनजोदड़ो के विशाल एवं विकसित नगरों को राजधानी केन्द्रों के रूप में परिकल्पित किया है। 
मैके की धारणा है कि हड़प्पा उक्त संस्कृति की मुख्य राजधानी थी तथा मोहनजोदड़ो उसकी प्रान्तीय राजधानी रही होगी।
 अपने उक्त मत की संपुष्टि हेतु उन्होंने ऐतिहासिक काल में स्थापित कुषाण साम्राज्य की दो राजधानियाँ- पुरुषपुर(पेशावर) तथा मथुरा का उदाहरण प्रस्तुत किया है।
इसके विपरीत पिग्गट का विचार है कि विशाल हड़प्पा साम्राज्य की दो प्रधान राजधानियाँ थीं, जिनमें प्रधान राजधानी केन्द्र हड़प्पा नगरी थी तथा उप केन्द्र मोहनजोदड़ो।
मार्टिमर ह्वीलर ने सिन्धु प्रदेश के लोगों के शासन को ‘मध्यवर्गीय जनतंत्रात्मक शासन’ कहा है और उसमें धर्म की महत्ता को स्वीकार किया है। ह्वीलर ने हड़प्पा और मोहनजोदड़ो की तुलना अरब शासकों की दो राजधानी मुल्तान और मंसूरा – से की है।
 पिगट की उक्त अवधारणा को पर्याप्त तर्कसंगत मानने का प्रबल आधार हड़प्पा और मोहनजोदड़ो के बीच 640 कि० मी० की लम्बी दूरी को भी माना जा सकता है। इधर कुछ विद्वान मैके द्वारा प्रस्तावित विशाल हड़प्पा साम्राज्य की परिकल्पना को बहुत कुछ स्वीकार करते हुए मानने लगे हैं कि प्रधान राजधानी हड़प्पा के अतिरिक्त मोहनजोदड़ो, लोथल तथा कालीबंगा प्रभृति विशाल एवं विकसित सैन्धव नगर भी संभवतः प्रान्तीय प्रशासन के राजधानी-केन्द्र रहे होंगे।
सैन्धव संस्कृति में प्राप्य एकरूपता के आलोक में यह प्रतीत होता है कि वहाँ एक सुगठित प्रशासनतंत्र अवश्य रहा होगा दुर्भाग्यवश इस काल की लिपि तथा अंकित लेख अभी तक ठीक-ठीक पढ़े नहीं जा सके हैं। अतः प्रशासन का वास्तविक स्वरूप क्या रहा होगा-यह सुनिश्चित करना बड़ा कठिन कार्य है।
फिर भी डीलर, मैके, मार्शल तथा पिगट आदि विद्वानों की राय में हड़प्पा-प्रशासन में धार्मिक तत्व की प्रधानता अवश्य प्रतीत होती है। 
 
विगत दशकों में प्रकाशित कतिपय महत्वपूर्ण शोध-लेखों के माध्यम से सैन्धव युगीन प्रशासन-सम्बन्धी दो प्रकार की अवधारणा प्रकाश में आई हैं, जो उल्लेखनीय हैं।
 प्रथम अवधारणा के अनुसार उक्त संस्कृति में स्थापित नगर में वंशानुगत शासन अथवा राज-कुलों की परिकल्पना की गई है, जो समीचीन लगती है। क्योंकि यहाँ के नगरों में प्रायः एक जैसे दुर्ग अथवा गढ़ी-योजना तथा पृथक् नगरावास अथवा नागरिक आवासों की योजना देखने को मिलती है।
 कतिपय विद्वानों ने एक अन्य परिकल्पना यह भी प्रस्तुत की है कि मिस्र तथा मेसोपोटामिया आदि सभ्यताओं की तरह हड़प्पा संस्कृति में संभवत: “पुरोहित शासन” स्थापित रहा होगा। सैंधव सभ्यता में धार्मिक विश्वासों की प्रधानता से भी उक्त परिकल्पना की किञ्चित पुष्टि होती है।
इस विषय मे  निश्चित रूप से कुछ कहना कठिन है, किन्तु ऐसे साक्ष्य उपलब्ध हैं जब प्राचीन सभ्यताओं में प्रशासनिक, धार्मिक और आर्थिक इकाइयों में स्पष्ट भेद नहीं किया जाता था।
एक ही व्यक्ति राज्य का शासक, प्रधान पुरोहित और मुख्य धना व्यापारी हो सकता था। अत: सिन्धु सभ्यता में प्रशासक वर्ग का अस्तित्व तो स्वीकार किया जा सकता है।
चूँकि सिन्धुवासी व्यापार की ओर अधिक झुके हुए थे, इसलिए ऐसा अनुमान है कि सिन्धु सभ्यता का प्रशासन वणिक वर्ग के हाथों में था। सिन्धु सभ्यता का प्रशासन दो राजधानी नगरों-हड़प्पा और मोहनजोदड़ो से संचालित होता था।
 किन्तु प्रशासन को स्पष्ट स्वरूप क्या था? ज्ञात नहीं और इसका प्रधान कारण लिपि का अपठित रह जाना है।

           :-हड़प्पा सभ्यता की कला-:

हड़प्पा सभ्यता में कला के प्रमाणों से उस काल के कला में उत्कृष्टता देखी जा सकती है।
कला के अंतर्गत वास्तुकला, मूर्तिकला, चित्रकला आदि आते हैं।

                (1) हड़प्पा सभ्यता की वास्तुकला

भवन निर्माण की कला को वास्तुकला कहा जाता है। भारत में वास्तुकला का आरंभ सिन्धुवासियों ने किया।

Hadappa sabhyta ke annagar
सिन्धु सभ्यता के अवशेषों से स्पष्ट होता है कि उस काल में नगर एवं भवन निर्माण एक निश्चित योजना के आधार पर किया जाता था।
सिन्धु सभ्यता के नगरों एवं भवनों में उत्कृष्ट इंजीनियरिंग के प्रमाण मिलते हैं।
सिन्धु सभ्यता एक नगरीय सभ्यता थी और इस सभ्यता के नगरों के अवशेषों से नगर-विन्यास का परिचय मिलता है जो की उपर्युक्त वर्णनों में वर्णित है।
सिन्धु सभ्यता की वास्तुकला के प्रमुख उदाहरण है-भवन निर्माण, बृहत् स्नानागार, अन्नागार, सभा भवन, पुरोहित आवास, गोदीबाड़ा/बंदरगाह, विशाल जलाशय आदि ।

(i) भवन निर्माण कला:-

भवन निर्माण कला का विस्तृत वर्णन ऊपर दर्शाया जा चुका है।

(ii) वृहत् स्नानागार (The great bath) –

सिंधु घाटी सभ्यता का स्नानागार

मोहनजोदड़ो का विशाल स्नानागार

यह मोहनजोदड़ो का सर्वाधिक प्रसिद्ध स्मारक है। यह ईंटों से निर्मित है। इसका निर्माण दुर्ग क्षेत्र में किया गया है । यह 54.85 मीटर लंबा और
32.90 मीटर चौड़ा है (क्षेत्रफल की दृष्टि से सिन्धु सभ्यता की सबसे बड़ी इमारत)। इसके मध्य में स्थित स्नान कुंड की लंबाई 11.88 मीटर, चौड़ाई 7.01 मीटर एवं गहराई 2.43 मीटर है। इसके उत्तर तथा दक्षिण की ओर 2.44 मीटर चौड़ी सीढ़ियाँ बनायी गई है।

(iii) स्नानकुण्ड:

Mohenjo Daro great bath

स्नानकुण्ड

यह 39 फीट लम्बा, 23 फीट चौड़ा और 8 फीट गहरा है। इस स्नानकुण्ड में जाने के लिए दक्षिण और उत्तर दोनों ओर ईंटों की सीढ़ियाँ बनी हुई हैं। इनके ऊपर लकड़ी की पट्टक लगाई गई है।
उत्तरी, सीढ़ियों के समीप एक पीठिका (Platform) है जिसके समीप एक अन्य छोटी सीढ़ी है। इस स्नान कुंड की दीवारें बड़ी सुदृढ़ हैं। उनमें ईंटों की चिनाई (जुड़ाई) बड़ी सावधानी एवं कुशलता के साथ की गई है।
दीवार में पक्की ईंटों का प्रयोग किया गया है। कुण्ड के फर्श पर खड़ी पक्की ईटें लगाई गई हैं और वे भी भलीभाँति काट-काट कर जिससे कि उनके बीच में कम-से-कम दराज रहे। पुनः फर्श और दीवारों की जुड़ाई जिप्सम से की गयी है।

कुण्ड की बाहरी दीवार पर गिरिपुष्पक (Bitumen) की 1 इंच मोटी प्लास्टर लगाई गई है। इस प्रकार फर्श की खड़ी ईंटों की चिकनाई, मोटी दीवारों तथा जिप्सम और गिरिपुष्पक के प्लास्टर से ख़ान-कुंड को अति सुदृढ़ बना दिया था।
कुंड की फर्श की ढाल दक्षिण-पश्चिम की ओर है। अत: पानी निकालने के लिए इसकी मोरी का निर्माण भी दक्षिण-पश्चिम की दिशा में ही हुआ है।
कदाचित् समय-समय पर कुण्ड की सफाई की जाती थी। उस समय उसका गन्दा पानी इसी मोरी के द्वारा बाहर निकाल दिया जाता था। मोरी का पानी बाहर बनी हुई एक नाली में गिरता था।

कुंड के तीन ओर बरामदे एवं इनके पीछे कई छोटे-छोटे कमरे और गैलरियाँ बनायी गए हैं।
स्नानागार के उत्तर में 2 पंक्तियों में 8 स्नानकक्ष बने हैं।
इन कमरों में छोटी छोटी नालियां बनी हैं। ये कमरों का पानी निकालकर बाहर की बड़ी नाली में डाल देती थीं। कमरों की फर्श तथा दीवाल पक्की ईंट की बड़ी सावधानी व मजबूती से जोड़ी गई है।
सम्भवतः यहाँ पर लोग पूजा करने के पूर्व कपड़े बदलते रहे होंगे।

 कुण्ड के पूर्व दिशा में स्थित कमरे में एक दोहरी पंक्ति से निर्मित कुआँ बनाया गया है, जिससे स्नान कुंड को जलापूर्ति की जाती थी।
स्नानकक्ष से दूसरी मंजिल पर जाने हेतु सीढियाँ बनी थीं। सम्भवतः दूसरी मंजिल पर पुरोहितों का आवास था और धार्मिक अनुष्ठान किया जाता था।
अर्नेस्ट मैके के अनुसार इस बृहत् स्नानागार का निर्माण धर्मानुष्ठान संबंधी सामूहिक स्नान के लिए किया गया था। [भारतीय संस्कृति में धार्मिक अनुष्ठान की सफलता हेतु सरोवर में ‘अवभृथ स्नान’ की परंपरा रही है। अवभृथ स्नान में किसी धार्मिक अनुष्ठान की समाप्ति पर नदी या सरोवर में जाकर सामूहिक स्नान एवं वरुण (जल देवता) का पूजन किया जाता है।]
जॉन मार्शल समेत अनेक विद्वानों की राय में यह तत्कालीन विश्व का एक आश्चर्यजनक निर्माण था।
डी0 डी0 कोशाम्बी बृहत्स्नानागार की तुलना कालान्तर के संस्कृत ग्रन्थों में अनेकशः वर्णित ‘पुष्कर’ अथवा ‘कमलताल’ से करते हैं जो धार्मिक संस्कार से सम्बन्धित स्नान तथा शुद्धिकरण के अलावा राजाओं और पुरोहितों के अभिषेक के लिये आवश्यक माने जाते थे।

इसी बृहत् स्नानागार के आधार पर डी.डी. कोसंबी ने उस समय वेश्यावृत्ति रही होगी ऐसी संभावना व्यक्त की है।

(iv) अन्नागार(Granary):

Great granary of of Indus valley civilization
हड़प्पा से प्राप्त अन्नागार के साक्ष्य

सिन्धु सभ्यता में अन्नागार का विशिष्ट स्थान था। जहाँ मेसोपोटामिया में वसूला जानेवाला अनाज मंदिरों में सुरक्षित रखा जाता था, वहाँ सिन्धु सभ्यता में इसको एकत्र करने के लिए अन्नागार बनवाये गये थे।
अन्नागारों के अवशेष मोहनजोदड़ो, हड़प्पा, चन्हुदड़ो, लोथल, कालीबंगा आदि से प्राप्त हुए हैं। अन्नागार दुर्ग क्षेत्र के भीतर बने हुए थे ।

(A) मोहनजोदड़ो का अन्नागार-

मोहनजोदड़ो का अन्नागार 45.72 मीटर(150 फुट) लंबा और 22.86 मीटर(75 फुट) चौड़ा था। यह 1.52 मी. ऊंचे चबूतरे पर निर्मित है।
इसमें ईंटो के विभिन्न आकार प्रकार के कुल 27 खण्ड(शालाएं/प्रकोष्ठ) थीं। प्रत्येक 2 खण्डों के मध्य आड़ी तिरछी दरारें(रोशनदान) छोड़ी गई है। जिससे अन्नागार में स्वस्थ वायु तथा प्रकाश प्राप्त हो सके।
अन्नागार पक्की ईंट से बनाया गया था। इसकी दीवारें अति सुदृढ़ थीं। इसका ऊपरी ढांचा जो शायद बांस का बना था अब नष्ट हो गया है।
इसका मुख्य प्रवेश द्वार नदी की तरफ था, जिससे अनाज को लाकर रखने में सुविधा होती थी। इसके उत्तर में एक चबूतरा है जो अन्न रखने तथा निकलने में उपयोगी था।
मार्टिमर ह्वीलर ने इसकी पहचान अन्नागार के रूप में की।
कुछ इतिहासकारों ने इसे राजकीय भण्डार कहा है जिसमे जनता से वसूला गया कर के रूप में अनाज रखा जाता था।
जान मार्शल के अनुसार यह इमारत(अन्नागार) अपनी संरचना, सुदृढ़ आकार प्रकार, प्रकाश हवा आने की व्यवस्था, इसमें अन्न भरने की सुविधा तथा आकारगत विशालता के लिए सैंधव युगीन भवन स्थापत्य में उच्च कोटि का है तथा उल्लेखनीय स्थान रखता है।

(B) हड़प्पा का अन्नागार-

हड़प्पा के दुर्ग-क्षेत्र के उत्तर में 50 फुट लम्बे तथा 20 फुट चौड़े अन्नागारों की दो लम्बी-लम्बी पंक्तियाँ मिली हैं।
प्रत्येक पंक्ति में इस आकार के अन्नागारों की कुल संख्या 6 मिलती है। इन अन्नागार कक्षों के अतिरिक्त यहाँ एक ही क्रम में पकी ईटों के चबूतरे प्राप्त हुए हैं। परातत्वविदों की राय में ये संभवतः अन्नागारों की नींव के लिए बनाए गए थे।
अन्नागार के दक्षिणी भाग में ईटों की गोल-गोल चबूतरों की पंक्तियाँ प्राप्त हुई हैं। इन चबूतरों की फर्श की दरारों में गेहूँ तथा जौ की भूसी मिली है, जिसके आधार पर विद्वानों का कहना है कि इनका उपयोग अनाज गाहने अथवा पीसने के लिये किया जाता रहा होगा।

(v) सभा भवन(Assembly hall):

मोहनजोदड़ो के दुर्ग क्षेत्र में एक विशाल सभा भवन का अवशेष मिला है।

मोहनजोदड़ो का सभा भवन
मोहनजोदड़ो से प्राप्त सभा भवन
यह सभा भवन 27.44 मीटर(90 फुट) लंबा और 27.44 मीटर(90 फुट) चौड़ा है। इसका मुख्य प्रवेश द्वार उत्तर दिशा में है।
पाटलिपुत्र के मौर्य राजप्रासाद की भांति इस भवन की छत भी स्तम्भों पर आधारित है। 20 चौकोर स्तंभो पर आधारित इसकी छत पकी ईंटों से जोड़ी गई थी। इसमें पांच-पांच स्तम्भों की कुल चार पंक्तियाँ थीं।
इस विशाल भवन की फर्श ईंट और चूने से बड़ी मजबूत बनी थी।
सभा-कक्ष में निर्मित पाँच-पाँच ईटों की ऊंचाई की चार चबूतरों की पंक्तियाँ मिली हैं। उन पर संभवतः लकड़ी के खम्भे खड़े किए गए थे। कुछ विद्वानों की राय में ये चबूतरे सभाजनों के बैठने के लिए बनाये गये थे।
भवन के भीतर बैठने के निमित्त चौकियां व बेंचे बनाई गई हैं।
इस भवन के पश्चिम में आवासीय कक्षों की एक पंक्ति प्राप्त होती है। यहाँ से बैठी हुई मुद्रा मे पुरुष की एक प्रतिमा प्राप्त हुई है।
अनुमान है कि इस सभा भवन का उपयोग धार्मिक सभाओं के लिए किया जाता था।
दीक्षित के मत में इसका उपयोग धर्म-चर्चा के लिए होता था।
अर्नेस्ट मैके की राय में इसका उपयोग बाजार के लिए होता था।
जॉन मार्शल ने इसकी तुलना बौद्ध गुफा मंदिर से की है।
मार्टिमर हीलर के अनुसार यह भवन मुगलकालीन ‘दरबार-ए-आम’ की तरह का था।

(vi) पुरोहित आवास/उच्चाधिकारी आवास (Priest Residence/ Residence Of high official):

मोहनजोदड़ो के दुर्ग क्षेत्र में बृहत्स्नानागार के उत्तर-पूर्व में 70.10 मी. लम्बे तथा 23.77 मीटर चौड़े के आकार के एक विशाल भवन के अवशेष मिलते हैं।
इसमें 10 मीटर का वर्गाकर प्रांगण, तीन बरामदे तथा कई कमरे बने थे। कुछ की फर्श पक्की ईटों की बनायी गयी थी। कमरों से स्नानकक्ष भी मिले हैं।
इस भवन के विशाल आकार-प्रकार तथा स्नानागार से इसकी सन्निकटता को देखते हुए अनुमान किया जाता है कि संभवतः यहाँ प्रधान पुरोहित अपने सहयोगियों के साथ निवास करता था। संभव है यहाँ ‘पुरोहितों का विद्यालय’ (college of priests) स्थित रहा हो।
अर्नेस्ट मैके इसे राज्यपाल के निवास हेतु बनाया गया भवन मानते हैं।

(vii) गोदीवाड़ा /बंदरगाह (Dockyard) :

लोथल में पक्की ईंटों से बना एक निर्माण मिला है। जिसकी लंबाई 21.4 मीटर चौड़ाई 36 मीटर एवं गहराई 4.5 मीटर है।

Dockyard of of lothal Indus valley civilization

लोथल से प्राप्त बंदरगाह

 इसे एस. आर. राव ने गोदीबाड़ा/बंदरगाह बताया है, जहाँ व्यापारिक जहाज आते-जाते थे। इसके उत्तर में काफी चौड़ा जल प्रवेश द्वार था जो एक विशाल नाले या नहर के द्वारा भोगवा नदी से जुड़ा था। इसके दक्षिण में जल-निकास द्वार बनाया गया था।
जल प्रवेश और जल निकास की व्यवस्था के आधार पर लॉरेन्स लेसनिक ने इसे गोदीबाड़ा न मानकर सिंचाई के लिए प्रयुक्त होने वाला जलाशय या तालाब माना है।

(viii) विशाल जलाशय (Giant Reservoirs) :

धौलावीरा से कई जलाशय प्राप्त हुए है जिनमें सबसे बड़ा जलाशय 80.4 मीटर लंबा, 12 मीटर चौड़ा एवं 7.5 मीटर गहरा है। इस जलाशय की जल धारण क्षमता 2,50,000 घन मीटर थी।

धौलावीरा का जलाशय
 धौलावीरा के निवासी जल-संचयन (संग्रहण) प्रणाली से परिचित थे। वे जलाशयों में वर्षा के जल का संग्रहण करते थे और इन जलाशयों के द्वारा नागरिकों के पीने और नहाने-धोने के लिए जलापूर्ति किया करते थे।

समग्रतः कहा जा सकता है कि सिन्धु सभ्यता की वास्तुकला उपयोगिता और सुन्दरता दोनों ही दृष्टियों से उत्कृष्ट कोटि की थी और इसकी तुलना आज के किसी उत्कृष्ट भवन निर्माण से की जा सकती है।

                 2.  हड़प्पा सभ्यता की मूर्ति कला –

मूर्ति निर्माण कला की दृष्टि से विश्व की ताम्राश्म संस्कृतियों में हड़प्पा-संस्कृति का अप्रतिम स्थान है।

हड़प्पा सभ्यता की मूर्तिकला
इस काल के कलाकारों में सौंदर्य बोध तथा निर्माणात्मक कुशलता विद्यमान थी। वे प्रस्तर, धातु तथा मिट्टी आदि से मूर्ति निर्माण करने की कला में पूर्ण दक्ष थे। इस समय तक लोग पत्थर तथा मिट्टी के विविध प्रयोग एवं निर्माण से परिचित हो चुके थे परन्तु इस काल में धातु कला की प्रस्तुति एक महत्वपूर्ण घटना मानी जा सकती है।
भारत में मूर्तिकला का आरंभ सिन्धु सभ्यता में ही हुआ।

(I) पाषाण/प्रस्तर मूर्तियां:-

मोहनजोदड़ो से एक दर्जन पाषाण मूर्तियाँ मिली हैं तथा हड़प्पा से दो-तीन प्रस्तर मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं। अधिकांश पाषाण मूर्तियाँ खण्डित हैं और अपेक्षाकृत छोटे आकार की हैं।
ज्यादातर मूर्तियाँ बैठी (आसन) अथवा खड़ी (स्थानक) मुद्रा में हैं।

Harappan civilization sculpture

A) मोहनजोदड़ो से प्राप्त:

मोहनजोदड़ो से प्राप्त 12 प्रस्तर मूतियों में से पाँच गढ़ी वाले टीले के एच.आर. क्षेत्र’ (H.R. Area) से मिली हैं जिससे उस क्षेत्र का विशिष्ट महत्त्व इंगित होता है।
मोहनजोदड़ो से उपलब्ध पाषाण-मूर्तियों में से चार में मानव सिर का, पाँच में बैठी हुई आकृति को तथा शेष दो में पशुओं का मूर्तन किया गया है। इनमें मानव-धड़ वाली मूर्तियों में सिर तथा दोनों भुजाओं को अलग से उकेर कर गले अथवा कंधों के नीचे बने छिद्रों (साकेट) द्वारा जोड़ने का प्रमाण मिलता है।

पाषाण-मूर्तियों में एक आवक्ष-पुरुष-मूर्ति विशेष उल्लेखनीय है।

Hadappa sabhyata ka Pujari

हड़प्पा सभ्यता से प्राप्त पुजारी की प्रतिमा

सिखड़ी की बनी हुई 19 सेमी लम्बी खण्डित पुरुष मूर्ति जो तिपतिया अलंकरण से युक्त शाल ओढ़े हुए है, वह ‘डी.के. क्षेत्र’ (D.K.Area) से मिली है।
इसके हाथ भी टूटे हुए हैं। इसकी दाढ़ी विशेष सँवरी हुई है, दाढ़ी के बाल पुरुष प्रस्तर में लकीर काट कर बनाये गये हैं। मूंछ रहित किन्तु सलीकेदार दाढ़ी वाले इस पुरुष का मुखमण्डल स्वस्थ तथा गोल है। केश-पाश पीछे की ओर सँवार कर एक फीते से बँधे हुए हैं। संम्भवतः यह मणिबन्ध-सदृश कोई अलंकरण लगता है, जो माथे पर आकर एक गोल अलंकरण से संयुक्त हो गया है।
हड़प्पा सभ्यता से प्राप्त पुजारी की प्रतिमा
 अधरोष्ठ मोटे तथा आंखे नासाग्र की सीध में अर्द्धनिमीलित तथा उभरी हुई हैं। नेत्रों में जड़ाऊ काम का स्पष्ट संकेत है। कान छोटे एवं गोल हैं। शाल के बायाँ कंधा ढका है तथा दाहिना कंधा खुला है। दाहिनी भुजा में जो भुजबंध है उसमें एक अलंकारिक वृत्त बना हुआ है।
अधिकांश विद्वान इसे भारत में सूती वस्त्र-निर्माण एवं उसके प्रयोग का प्राचीनतम कलात्मक साक्ष्य मानते हैं।
कलाविद् बेंजामिन रोलंड के अनुसार मोहनजोदड़ो की उक्त मूर्ति में उत्तरीय के रूप में प्रयुक्त तरिपतिया शाल कालान्तर में बौद्ध भिक्षुओं हारा प्रयुक्त ‘संघाटी” के समरूप माना जा सकता है। तिपतिया अलंकार प्राचीन क्रीट, मिस, तथा दजला -फरात नदियों की घाटी में विकसित सभ्यताओं म भी लोकप्रिय था। ऐसा परिधान अलंकार वहाँ की देवगूतियों में पिलता है।
निमीलित नेत्र की बनावट के आधार पर कुछ विद्वान इसे योगी की मूर्ति मानते हैं। इसके विपरीत विद्वानों का एक वर्ग इसे मेसोपोटामिया का पुरोहित प्रतिपादित करता है।

मोहनजोदड़ो के बैठी हुई उत्खनन से प्राप्त खंडित मूर्तियों में से 4 मानव के सिर का तथा 5 में बैठी हुई आकृतियों का अंकन मिलता है। इनके अतिरिक्त दो मूर्तियों में पशुओं का अंकन
प्राप्त होता है। उक्त बैठी हुई मूर्तियों में संरचित अंग-संचालन अथवा किसी ‘मुद्रा’ विशेष की अभिव्यक्ति कलात्मक निपुणता की दृष्टि से उल्लेखनीय है।

मोहनजोदड़ो से लगभग 17.8 सेमी लम्बा चूना पत्थर पर बना हुआ पुरुष का एक अन्य सिर भी मिला है।

हड़प्पा सभ्यता से प्राप्त मनुष्य
यद्यपि यह मूर्ति भी दाढ़ी युक्त और मूछें साफ किये हुए बनाई गई है, सिर के बालों को केश बंध से बाँधे हैं तथापि इसमें पहली मूर्ति की तरह की कारीगरी का अभाव है।
 अलबेस्टर (Alabaster) की बनी हुई 29.5 सेमी ऊँची बैठे हुए व्यक्ति की जो मूर्ति मिली है।
Albester sculpture
उसे कमर में ‘पारदर्शी वस्त्र’ पहने हुए दिखलाया गया है। बायाँ घुटना ऊपर उठा हुआ दिखलाया गया है, जिस पर बायाँ हाथ रखा हुआ है। इसका सिर खण्डित है।
मोहनजोदड़ो से मानव मूर्तियों के अतिरिक्त पत्थर की बनी हुई कितपय पशु-मूर्तियाँ भी मिली हैं।
 चूना पत्थर पर बनी एच.आर. क्षेत्र से प्राप्त भेड़ा की मूर्ति लगभग 12 सेमी ऊँची हैं।
कलात्मक दृष्टि से उल्लेखनीय वह मूर्ति है जो भेड़ा और हाथी की संयुक्त (Composite) मूर्ति है। चूना पत्थर की यह मूर्ति लगभग 25 सेमी ऊँची है। शरीर और सींग भेड़ा के और सूँड़ हाथी का है। यह मूर्ति ‘डी.के. क्षेत्र से प्राप्त हुई थी। इससे मिलती-जुलती संयुक्त आकृतियाँ मुहरों पर प्राप्त होती

B) हड़प्पा से प्राप्त:

हड़प्पा से जो तीन प्रस्तर मूर्तियाँ मिली हैं वे तकनीक की दृष्टि से सिन्धु सभ्यता की मूर्ति-परम्परा से नितांत भिन्न है। इन मूर्तियों की गर्दन तथा कन्धों में छेद हैं जिनसे यह इंगित होता है कि सिर एवं हाथ अलग से जोड़े गए थे। ऐसी स्थिति में इनकी स्थिति विवादास्पद एवं अनिश्चित है।
ये पूर्ण मानवाकृतियाँ न होकर धड़ मात्र हैं। इनमें से एक पुरुष धड़ है तथा दूसरी नारी धड़। इन्हें देखकर ऐसा प्रतीत होता है मानो सिन्धु-कालीन पाषाण मूर्तियों में धड़ तथा शेष शरीरांगों को अलग-अलग बनाने की परम्परा विद्यमान थी।

माधोस्वरूप वत्स द्वारा किये गए उत्खनन से प्राप्त लाल बलुआ पत्थर पर बनी हुई 9 सेमी ऊँची एक नवयुवक की मूर्ति है, जिसका मात्र धड़ बचा हुआ है।

 हाथ, पैर खण्डित हैं, मूर्ति नग्न है। इस मूर्ति में अद्भुत मांसलता है। मूर्ति खड़ी हुई मुद्रा में है। उसके पीन स्कन्धों तथा संतुलित नितम्बों की रेखाओं से मूर्तिकला की विकसित अवस्था का ज्ञान प्राप्त होता है।
हड़प्पा की दूसरी मूर्ति काले रंग के सिलेटी पत्थर पर निर्मित है।  यह 10 सेमी ऊँची है।
हड़प्पा सभ्यता से प्राप्त खंडित मनुष्य की मूर्ति
 (प्रो० वासुदेव शरण अग्रवाल ने इनमें से एक सीधे खड़े धड़ को, जिसके हाथ एवं पैर खण्डित हैं, परन्तु अवशिष्ट शरीरांश नृत्य की मुद्रा में अवगुंठित-सा दिखता है, कि नारी मूर्ति माना है।
यह मूर्ति नृत्यरत किसी नवयुवती (नृत्यरता नवयुवती) की मानी जाती है। इसका दाहिना पैर भूमि पर स्थित है तथा बायाँ पैर ऊपर उठा हुआ है। कमर के ऊपर का हिस्सा बायीं ओर को घूमा हुआ है। दोनों हाथ नृत्य की मुद्रा में फैले हुए हैं।
इसमें अंकित सहज एवं अद्वितीय गतिशीलता पर मुग्ध होकर प्रो० अग्रवाल ने इसे शतपथ ब्राह्मण उक्त ‘मध्ये संग्राह्य’ पश्चाद् वरीयासी पृथुश्रेणी’ जैसी सौंदर्य-भावना से देखने का प्रयास किया किया है। उनके अनुसार हड़प्पा से प्राप्त उक्त दोनों नग्न-कबन्ध अथर्व वेदोक्त शिव और शिवा-रूपों (महानग्री महानग्रा धावेतं अनुधावती) के अभिव्यंजक माने जा सकते हैं। परन्तु अधिकांश विद्वान् प्रो० अग्रवाल के उक्त मत से सहमत नहीं हैं। जो भी हो, लाल बलुए पत्थर से बनी इन मूर्तियों में सहज नहीं है। जो भी हो, लाल बलुए पत्थर से बनी इन मूर्तियों में सहज गतिशीलता कलात्मक सौन्दर्य अद्भुत रूप में प्रस्तुत हुआ है। भगवत शरण उपाध्याय हड़प्पा से प्राप्त नर्तक (नर्तकी) मूर्ति में उत्कीर्ण गति-संचार एवं अंग-विन्यास को छन्दबद्ध-सौन्दर्य का प्रतिमान स्वीकार किया है। कुछ विद्वान पुरुष नर्तक मूर्ति की पहचान आदि जैन तीर्थंकर से करने का प्रयास करते हैं। परन्तु अभी तक निर्विवादतः इस सम्बन्ध में कुछ नहीं कहा जा सकता है।

सैन्धव सभ्यता में पाषाण मूर्तियों के उपर्युक्त रूपों के अतिरिक्त प्रस्तर निर्मित अनेक गौरी-पट्ट प्राप्त हुये है। इनकी आकार-संरचना लिंग और योनि-पूजा-परम्परा की ओर विद्वानों का ध्यान आकृष्ट करती है, जिसे आदमी शैवोपासना से कुछ सीमा तक जोड़ा जा सकता है।

(ii) धातु मूर्तियाँ-:

धातु की मूर्तियाँ सिन्धु घाटी के मूर्तिकार धातु-अयस्कों (Ores) को पिघलाने और दो धातुओं के संयोग से मिश्रित धातु बनाने की कला में पारंगत थे। धातु की बनी हुई मूर्तियाँ और मुहरें इसके प्रमाण है।
मोहनजोदड़ो, चान्हु-दड़ो, लोथल तथा कालीबंगा से कांस्य धातु की मूर्तियाँ अभी तक मिली हैं। मोहनजो-दड़ो से प्राप्त मूर्तियां बंद साँचे में ढाल कर बनाई गई थीं।
अपनी इस तकनीकी ज्ञान का उपयोग उन्होंने धातु-मूर्तियों के सृजन में किया है। उत्खनन में इस प्रकार की कतिपय मानव (नारी) तथा पशु मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं।

मोहनजोदड़ो के एच.आर. क्षेत्र के एक घर से प्रात 14 सेमी लंबी नर्तकी की कांस्य-मूर्ति विश्वविख्यात है। इस मूर्ति के पैरों के केवल नीचे के खंडित भाग को छोड़कर शेष भाग पूर्णतः सुरक्षित है।

 बाँया पैर कुछ आगे बढ़ा हुआ है, दाहिना पैर सीधा है। इसकी कमनीय देह-यष्टि, बड़ी-बड़ी अर्धनिमिलित आँखे तया नारी-सुलभ मुस्कान उल्लेखनीय है।
इसके अतिरिक्त चेहरे पर लास्य एवं सौम्य भावों की कमी उसे किसी विशिष्ट नृजाति से जोड़ती है।
भगवत शरण उपाध्याय ने उसे द्राविड़, नस्ल से सम्बन्धित नारी बताया है। इस नारी मूर्ति की केश-सज्जा भी लक्षण है।
सहज भाव से नृत्य करती हुई इस युवती का कन्धे से कलाई तक चूड़ियों से भरा हुआ बायाँ हाथ आगे को झुके बायें घुटने पर टिका हुआ है।
नर्तकी अपनी हथेली में कोई वस्तु लिए हुये है, जिसे ठीक से पहचाना नही गया है।
बाजूबन्द तथा कलाई में दो-दो चूड़ियों से युक्त दाहिना हाथ कटि पर अवलम्बित है। गले में उसके एक कण्ठहार है जिस पर तीन लटकनें हैं।
आभूषणों को छोड़कर मूर्ति बिल्कुल नग्न है। इसकी केशराशि को कलात्मक ढंग से सँवारने के बाद एक वेणी में बाँध कर दाहिने कन्धे पर लटकती हुई छोड़ दिया गया है।
इस कांस्य मूर्ति की सहज भंगिमा, भाव-चेष्टा, अंगों-प्रत्यंगों की अभिराम भंगिमाएँ सब नृत्य क्रिया की सूचक हैं। मोहनजो-दड़ो के ‘डी.के. क्षेत्र’ से प्राप्त दूसरी नारी कांस्य मूर्ति कलात्मक दृष्टि से सामान्य कोटि की है।
इस नारी (नर्तकी) मूर्ति में यष्टिगत तनुजा, शरीरांगों में सहज भंगिमा तथा मुखमण्डल पर तरंगित भावचेष्टा सैन्धव कालीन कला-कुशलता, भाव-संप्रेषणता तथा सौंदर्यबोध का अलौकिक प्रतिमान माना जा सकता है।

हड़प्पा संस्कृति के पुरावशेषों में उक्त नर्तकी मूर्ति के अतिरिक्त दो अन्य धातु मानव मूर्तियाँ मिली हैं, जिनमें से एक अपनी कमर पर हाथ रखे हुये तथा दूसरा अपना एक हाथ ऊपर उठाये हुये है।

Harappan sclupture
harappan civilization
हड़प्पा से प्राप्त खंडित मूर्ति
 ये मूर्तियाँ खण्डितावस्था में होने के कारण अब अच्छी दशा में नहीं रह गई हैं।
परन्तु इस काल में ढाली गई कतिपय पशु-धातु-मूर्तियाँ उत्खनन में प्राप्त हुई हैं, जो अपनी बनावट के लिए विशेष उल्लेखनीय हैं। इनमें मोहनजोदड़ो से प्राप्त कांस्य महिष-मूर्ति अपनी आकर्षक डीलडौल तथा पशुजन्य चेष्टाओं के निरूपण के लिये बहत महत्वपूर्ण है।
हङप्पा सभ्यता की मूर्तियां
 इसी प्रकार मोहनजोदड़ो से ही मिली मेढ़े की प्रतिमा भी अपनी बनावट तथा यथार्थता के लिये उल्लेखनीय है।

“सिन्धु सभ्यता में धातु की मानव मूर्तियों के अलावा मुहरें और धातु(कांस्य) की बनी हुई पशु मूर्तियाँ भी प्राप्त हुई हैं।
पशु-मूर्तियों में मोहनजोदड़ो से प्राप्त कांस्य की भैंसा और भेड़ा की मूर्तियाँ, कालीबंगा से प्राप्त ताँबे की सांड की मूर्ति, लोथल से बैल, कुत्ता, खरगोश और चिड़ियों की ताम्र-मूर्तियाँ आदि उल्लेखनीय हैं।

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चन्हूदड़ो से धातु के खिलौनों में बैलगाड़ी और इक्का-गाड़ी का उल्लेख किया जा सकता है।
सिन्धु सभ्यता में ताँबे की अनेक मुहरें प्राप्त हुई है। मुहरों पर विभिन्न पशुओं हाथी, बैल, गैंडा और बाघ आदि के चित्र उकेरे गये हैं।
seals of harappan civilization
मुहरों के चित्रों से उनकी कलात्मक अभिव्यक्ति का बोध होता है।

(iii) मृण्मूर्तियां:-

सिन्धु सभ्यता में मिट्टी की मूर्तियाँ प्रायः सभी स्थानों से मिली हैं। ये संख्या में भी काफी हैं। मृण्मूर्तियों को लोक-कला के अंतर्गत रख सकते हैं।
Terracotta of indus valley civilization
 पुरुषों, और पशु-पक्षियों की मूर्तियों का मुख्य रूप से निर्माण किया गया है। साँचे में ढालकर बनाई गई कतिपय मृण्मूर्तियों के अपवाद को छोड़कर अधिकांश मूर्तियाँ हाथ से बनाई हुई हैं।
 मानव मृण्मूर्तियाँ ठोस है, जबकि पशु-पक्षियों की मूर्तियाँ प्रायः खोखली हैं। यद्यपि नर एवं नारी दोनों की मृण्मूर्तियाँ मिली हैं तथापि नारी कृष मूर्तियां संख्या में अधिक है।
मोहनजो-दड़ो के ‘डी.के. क्षेत्र’ और अन्नागार क्षेत्र से पुरुष मृण्मूर्तियां प्राप्त हुई हैं जिनमें लम्बी नाक, सामान्य एवं ढलुबाँ चिबुक (ठोड़ी), चिपका कर बनाई गई आँखें तथा किसी चीज से चीरकर बनाया गया मुख मिलता है।
हड़प्पा सभ्यता की मृण्मूर्तियां
हड़प्पा सभ्यता की मृण्मूर्तियां
नारी मृण्मूर्तियां हड़प्पा, मोहनजोदड़ो, चान्हु-दड़ो आदि से मिली हैं।
हरियाणा के बणावली के अपवाद को छोड़कर जहाँ से मिट्टी की दो मूर्तियाँ मिली हैं, भारत के राजस्थान, गुजरात आदि के सिन्धु सभ्यता के स्थलों की खुदाई से स्त्री-मृणमूर्तियाँ अभी तक नहीं मिली हैं।
 विभिन्न आभूषणों से सजी-धजी इन मूर्तियों के पयोधर पीन और नितम्ब पृथुल बनाये गए हैं। घुटनों के नीचे ये प्रायः नग्न हैं। हाथ से बनी इन मृण्मूर्तियों के रूपों में विविधता मिलती है। इनके अंग-प्रत्यंग, आभूषण आदि गीली मिट्टी से हाथ से बनाए गए हैं। चुटकी से दबाकर नाक का निर्माण किया गया है। तृण से चीर कर आँखें तथा मुख बनाये गए हैं। कभी-कभी अलग से मिट्टी चिपका कर आँखें बनाई गई है। आभूषण ऊपर से मिट्टी चिपका कर बनाये गए हैं।
 गले के कण्ठहार, कानों के झुमके, कमर की करधनी अलग से मिट्टी चिपका कर बनाई गई हैं। पंखें के आकार की शिरोवेशभूषा विशेष रूप से दर्शनीय है।
गोद में अथवा दुग्धपान कराते हुए शिशु का अंकन इनमें मिलता है। बनाने के बाद धूप में सुखाकर इन्हें आग में पकाया जाता था नारियों की इन मृण्मूर्तियों को धर्म अथवा पूजन से सम्बन्धित माना जाता है।
 ये सम्भवतः प्रजनन एवं उर्वरता के अनुष्ठान से सम्बन्धित मातृदेवी की मृण्मूर्तियाँ थीं। मिस्र, मेसोपोटामिया आदि में भी प्राचीन काल में मातृशक्ति की उपासना काफी लोकप्रिय थी।
सिन्धु सभ्यता की मिट्टी की बनी वस्तुओं में प्रधानता उन खिलौनों की है जो पशु-पक्षियों आदि के रूप में मिलते हैं। पशुओं में बैल, भैंसा, भेड़ा, बकरा, कुत्ता, हाथी, बाघ, गैंडा, भालू, सुअर, खरगोश, बन्दर आदि की मूर्तियाँ मिली हैं।
मोहनजोदड़ो से प्राप्त वृषभ की बलिष्ठ मूर्ति विशेष रूप से उल्लेखनीय है ।
 कालीबंगाँ से प्राप्त मिट्टी की वृषभ मूर्ति भी अपने आप में अद्वितीय है। डीलवाले बैल की तुलना में बिना डीलवाले बैल की मृण्मूर्तियां अधिक संख्या में मिली हैं।
सर्वथा अभाव है तो गाय एवं घोड़े की मृण्मूर्तियों का।
 गिलहरी, सर्प, कछुआ, घड़ियाल तथा मछली की भी मिट्टी की मूर्तियाँ मिली हैं। पक्षियों में मोर, तोता, कबूतर, बतख, गौरैया, मुर्गा, चील और उल्लू की मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं। पक्षियों के स्वाभाविक रंगों के अनुरूप उपयुक्त रंगों से रँगने के भी साक्ष्य मिले हैं।
खिलौना गाड़ियों के पहिए ठोस होते थे। इक्के तथा सीटियाँ भी बनायी जाती थीं। पाकिस्तान के चोलिस्तान तथा भारत के हरियाणा के हिसार जिले में स्थित बणावली से खेत की जुताई में प्रयुक्त होने वाले हल के मिट्टी के खिलौने के प्रतिदर्श मिले हैं।

       हड़प्पा सभ्यता का आर्थिक जीवन-

सिन्धु सभ्यता के हडप्पा और मोहनजोदड़ो के साथ अनेक पूरास्थलों से नगरीय अर्थव्यवस्था के संकेत मिले हैं। नगरीय अर्थव्यवस्था में अन्तर्सम्बन्धों का मंत्र किसी क्षेत्रीय सीमा में आबद्ध नहीं होता है।

हड़प्पा सभ्यता
नगरीय अर्थव्यवस्था एक विकसित और जटिल आर्थिक ढाँचे का स्वरूप प्रस्तुत करती है। सिन्धु सभ्यता की अर्थव्यवस्था मूलत: कृषि- पशुपालन के साथ शिल्प और व्यापार वाणिज्य पर आधारित थी। सिन्धु सभ्यता के लोग स्थानीय व्यापार के साथ बाह्य प्रदेशों से भी व्यापार सम्पर्क बनाये थे।
व्यापार के लिए नदी के जलमार्गों और स्थलमार्गों का प्रयोग किया जाता था। सिन्धु सभ्यता के विकसित व्यापार तंत्र के फलस्वरूप उसके विस्तृत क्षेत्र में उपकरणों, औजारों, बाट-माप प्रणाली आदि में समरूपता दिखायी देती है ।
sindhu ghati sabhyta ke baat
हड़प्पा सभ्यता के बाट
सिन्धु सभ्यता में अभी तक सिक्कों का साक्ष्य नहीं मिला है। अत: पुरातत्त्वविद् मानते हैं कि व्यापार का माध्यम वस्तु-विनिमय था।
सिन्धु सभ्यता में व्यापार तंत्र का विकास वस्तु: नगरीय अर्थव्यवस्था की आवश्यकता थी, क्योंकि नगरीय आबादी का एक बड़ा हिस्सा खाद्यान्न उत्पादन से व्रत होता है। उसका सम्बन्ध प्रशासनिक कार्यों, व्यापार, कला एवं शिल्प जैसे विनिर्माण कार्यों से होता है। इस वर्ग के लोगों के लिए खाद्यान्न आपूर्ति ग्रामीण क्षेत्रों से होती है।
यद्यपि सिन्धु सभ्यता के किसी भी पुरास्थल से अभी तक ग्रामीण पृष्ठभूमि के साक्ष्य उपलब्ध नहीं हैं, किन्तु इस सत्यता से इंकार नहीं किया जा सकता है कि ग्राम्य जीवन के बिना नगरीय जीवन संभव था।
नगरीय और ग्रामीण अर्थव्यवस्था में कुछ मूलभूत अन्तर पाये जाते हैं। नगर में संसाधनों का एकत्रीकरण अनेक माध्यमों करों, उपहारों या क्रय-विक्रय द्वारा स्वत: होता जाता है, जिसका उपभोग नगर के विशिष्ट जनों द्वारा किया जाता है, जबकि ग्राम्य जीवन में संसाधनों को जुटाना पड़ता है, ऐसी परिस्थिति में नगर और गाँव स्वत: एक दूसरे के निकट आते जाते हैं, और यही निकट उनमें व्यापारिक गतिविधियों को सक्रिय करती है। किसी स्थान पर नगर का विकास खाद्यान्न की आपूर्ति, विकसित शिल्प के लिए कच्चे माल की उपलब्धता, व्यापारिक मार्गों की सफलता और खानों आदि के ऊपर निर्भर होता है, जबकि गाँवों का विकास जमीन की उर्वरता और सिंचाई के साधनों पर अधिक निर्भर होता है।
संयोग से सिन्धु सभ्यता का केन्द्रीय और परिधीय क्षेत्र नगरों और गाँवों के विकास में योगदान देने वाले घटकों से परिपूर्ण था, इसलिए इस क्षेत्र में नगरीय सभ्यता का उद्भव और विकास सम्भव हो सका जिसमें क्षेत्र की विकसित आर्थिक व्यवस्था का विशेष योगदान रहा।

1. कृषि:-

सैंधव निवासियों के जीवन का मुख्य उद्यम कृषि कर्म था जो कि आर्थिक जीवन मे प्रधान था।

Farming site in harappan civilization
इस संस्कृति के सुविस्तीर्ण भौगोलिक क्षेत्र(वर्तमान पाकिस्तान तथा उत्तर पश्चिम भारत) की जलवायु को मोटे तौर पर शुष्क तथा कम वर्षा वाला क्षेत्र कहा जा सकता है।
तथापि सिन्धु तथा उसकी अन्य सहायक नदियों
द्वारा प्रतिवर्ष उर्वरा मिट्टी बहाकर लायी गयी कछारी मैदानों में उपलब्ध जलोढ़ उपजाऊ मिट्टी कृषि कर्म के लिए सर्वथा उपयुक्त थी।

सैन्धव कृषक समुदायों के उदय का प्राचीनतम साक्ष्य बलूचिस्तान तथा सिन्ध के मैदानी क्षेत्रों में अवस्थित मेहरगढ़ एवं फीली गुलमुहम्मद जैसी ग्रामीण बस्तियों के पुरावशेषों से प्राप्त हुए हैं।
यहाँ के लोग पशुचारण के साथ साथ ग्रामीण बस्तियों में स्थायी निवास तथा कृषि कर्म भी करते थे।
मेहरगढ़ संप्रति पाकिस्तान के बलूचिस्तान प्रान्त में प्रसिद्ध बोलन दरें के सन्निकट स्थित एक महत्वपूर्ण पुरास्थल है।
यहाँ ई०पू० पाँच सहस्राब्दी में स्थायी रूप से कैसे ग्रामीण बस्ती के पुरासाक्ष्य प्राप्त हुए हैं। मेहरगढ़ के किसान भेंड़-बकरी तथा अन्य पालतू पशुओं को पालने और उन्हें चराने के अतिरिक्त गेहूँ, जौ, खजूर एवं कपास, आदि की खेती भी करते थे पुरातात्विक उत्खननों में इनके द्वारा प्रयुक्त मृद्भाण्ड, दस्तकारी की वस्तुएं तथा कच्ची मिट्टी के झोपड़ों के साक्ष्य प्राप्त हुए हैं।

Harappan agriculture

यहाँ के प्रमख खाद्यान्न गेहूं तथा जौ थे। खुदाई में गेहूँ तथा जौ के दाने मिलते हैं।
संभवतः सिन्धु क्षेत्र में लोग धान की खेती करना नहीं जानते थे। गुजरात क्षेत्र में लोथल तथा रंगपुर के स्थलों से मृत्पिण्ड में लिपटे हए धान की भूसी मिली हैं जो अत्यन्त निम्न-कोटि के हैं। धान की खेती किये जाने का स्पष्ट प्रमाण हुलास से मिलता है किन्तु यह उत्तरकालीन है।

तीसरी सहस्राब्दी के मध्य काल तक अफगानिस्तान तथा बलूचिस्तान में सिन्धु नदी के तटवर्ती कछारी भू-भागों में बहुतेरे छोटे-बड़े गाँव बस चुके थे।
इनमें विशेष उल्लेखनीय गाँव थे – मुन्डीगक तथा फीलीगुल मोहम्मद ।
इसी प्रकार इस काल तक हड़प्पा के सन्निकट जलीलपुर, गुमला एवं रहमान डेरी आदि ग्रामीण बस्तियाँ सिन्धु तथा उसकी सहायक नदियों की उपजाऊ कछारी भाग में बस चुकी थीं। इन गांवों का विस्तृत आकार प्रकार यह इंगित करता है कि तत्कालीन कछारी इलाके के कृषक उपजाऊ जलोढ़ मिट्टी को कृषि-कार्य के लिए अधिक से अधिक उपयोगी बना लेना सीख गए थे।

उक्त उपजाऊ कछारी भूमि पर विकसित कृषि के परिणामस्वरूप अफगानिस्तान, बलूचिस्तान, सिन्धु, राजस्थान, पंजाब तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश आदि क्षेत्रों में ग्रामीण वस्तियों का निरन्तर विस्तार होता चला गया।

लोथल तथा रंगपुर से बाजरा की खेती किये जाने के प्रमाण मिलते हैं। रोजदी से बाजरे की छः किस्में जैसे-सांवा, कोदो, रागी, ज्वार आदि पहचानी गयी है।
हड़प्पा में मटर तथा तिल की खेती होती थी। सूती वस्त्रों के अवशेषों से निष्कर्ष निकलता है कि यहाँ के निवासी कपास उगाना भी जानते थे। सर्वप्रथम यहीं के निवासियों ने कपास की खेती प्रारम्भ किया था।
(ऐतिहासिक काल में मेसोपोटेमिया में कपास के लिये ‘सिन्ध’ शब्द का प्रयोग किया जाने लगा तथा यूनानियों ने इसे सिन्डन (Sindon) कहा जो सिन्धु का ही यूनानी रुपान्तर है।)
फलों में केला, नारियल, खजूर, अनार, नीबू, तरबूज आदि का उत्पादन होता था सिंचाई के लिये नदी से पर्याप्त जल प्राप्त होता था। मिट्टी नरम होने के कारण पाषाण तथा कांस्य निर्मित उपकरणों की सहायता से खेती की जाती थी।

कृषि-कर्म में उपयोगी उपकरणों के निर्माण हेतु इस काल के कृषक पत्तथर तथा धातु की खदानों का भरपूर उपयोग करने लगे थे। इस काल में चाक, तांवा तथा हल के प्रयोग ने कृषि-उत्पादन में क्रान्ति ला दिया। चाक पर बने असंख्य मृद्भाण्ड-खण्डों की बहुतायत में प्राप्ति से इनकी विविधता तथा इनके बहुविध उपयोग का पता चलता है। सैन्धव मृदभाण्डों की अद्भुत बनावट तथा शिल्पांकन पर इस बात को भी इंगित करता है कि इनके निर्माण में तत्युगीन क्षेत्रीय परम्पराओं का भी योग रहा होगा किन्तु तकनीकी दृष्टि से संपूर्ण सैन्धव युगीन मृद्भाण्ड में असाधारण एकरूपता मिलती है। इस काल में किसान श्रम से अधिक उत्पादन प्राप्त करने के लिये हल अथवा हैरो तथा माल ढोने के लिए पहिएदार बैलगाड़ी का प्रयोग करते थे। प्रारम्भिक उत्खननों में सैन्धव संस्कृति के किसी भी पुरास्थल से कृषि में प्रयुक्त होने वाले किसी भी उपकरण की प्राप्ति नहीं हो सकी थी।
मिट्टी नरम होने के कारण पाषाण तथा कांस्य निर्मित उपकरणों की सहायता से खेती की जाती थी।
हल आदि कृषि उपकरणों के साक्ष्य के अभाव में डी0 डी0 कोशाम्बी का विचार है कि सैन्धव निवासियों के पास भारी हल नहीं था तथा वे पाषाण निर्मित कुदाल की सहायता से ही खेती कर लेते थे।
डी0 डी0 कोसांबी के अनुसार- सिन्धुवासी संभवतः हल के स्थान पर काँटेदार पांचा अथवा हैरो जैसे किसी उपकरण का प्रयोग करते थे।
परन्तु इधर वी० वी० लाल’ ने सुप्रसिद्ध पुरास्थल कालीबंगन में संस्कृति के पूर्व के स्तरों से नगर की सुरक्षा प्राचीर के बाहर हल से जुते हुए खेत का स्पष्ट साक्ष्य प्राप्त किया है। फलतः अधिकांश विद्वान अब यह मानने लगे हैं कि हड़प्पा संस्कृति के कृषक हल से परिचित थे।
इस बीच पाकिस्तान के पंजाब और वहावल क्षेत्रों में गंभीर पुरातात्विक खोजें हुई हैं।
बहावलपुर क्षेत्र में हाकरा नदी की सूखी तलहटी में अवस्थित लगभग 40 ऐसी सैन्धव कालीन ग्राम्य-बस्तियों का पता चला है, जहाँ कृषि-कर्म का विशेष विकास हो चुका था।
इन क्षेत्रों से प्राप्त पुरावशेषों में मिट्टी से बने हलाकृति के कतिपय खिलौनों (Terracotta Ploughs) की प्राप्ति से भी उक्त मत की पुष्टि होती है।
जैसा कि पहले बताया जा चका है, यहाँ के लोग न केवल खेत की जुताई करते थे अपितु एक ही खेत में एक साथ दो फसले भी उगाना जानते थे।
संभव है उनके हल लकड़ी के रहे हो जो अब नष्ट हो गये हो क्योंकि हलों के हलों अभाव में व्यापक पैमाने पर कृषि की कल्पना नहीं की जा सकती।
मोहनजोदड़ो से मिट्टी के बने एक हल का प्रारूप तथा चोलिस्तान और हरियाणा के बनावली से मिट्टी के बने हल ( हल खिलौनों ) का पूरा प्रारूप प्राप्त हो चुका है।

विद्वानों में इस बात पर आज भी विमर्श जारी है कि सैन्धव कृषक कृषि कर्म में सिंचाई के लिए कौन सा साधन अपनाते थे।
सिंधु सभ्यता के प्रसार क्षेत्र में स्थित किसी भी पुरास्थल के उत्खनन से नहर द्वारा सिंचाई के साक्ष्य अब तक नही मिले हैं।
इस सम्बन्ध में अब तक दो प्रकार के विचार आये हैं― प्रथम तो यह कि सैन्धव कालीन पश्चिमोत्तर भारत की जलवायु सम्भवतः आज की अपेक्षा अधिक नम रही होगी।
द्वितीय विचार पुरातत्वविद लेम्ब्रिक का है। उन्होंने यह परिकल्पित किया है कि अधिक जल चाहने वाली फसलें बरसात में तथा कम सिंचाई चाहने वाली फसलें बरसात के ठीक बाद नदियों की बाढ़ वाले कछारी भाग में उगाई जाती रही होगी।

Hadappa sabhyata mein krishi

सैन्धव नगरों की समृद्धि को देखते हुए यह निष्कर्ष निकालना स्वाभाविक है कि वहाँ के किसान अपनी आवश्यकता से अधिक अनाज उत्पन्न करते थे तथा अतिरिक्त उत्पादन को नगरों में भेजते थे। सिन्धु सभ्यता का व्यापक नगरीकरण अत्यन्त उपजाऊ भूमि की पृष्ठभूमि में ही संभव हो सका था।
उस समय के कृषक पर्याप्त मात्रा में अन्न का उत्पादन कर न केवल अपनी बल्कि नगर में रहने वाले विभिन्न शिल्पियों, व्यापारियों एवं सामान्य नागरिकों की आवश्यकताओं की पूर्ति भी किया करते थे।
विभिन्न नगरों में अनाज रखने के लिये अन्नागार बने होते थे। इनमें सम्भवतः जनता से कर के रूप में वसूल किया गया अनाज रखा जाता था। अन्नागार या कोठार हड़प्पा संस्कृति के महत्वपूर्ण अंग प्रतीत होते है। इनके रखरखाव की व्यवस्था शासन द्वारा की जाती थी। इसके लिये राज्य की ओर से पदाधिकारी एवं कर्मचारी नियुक्त किये जाते थे ये बैंक या खजाने का काम करते होंगे। चूंकि उस समय सिक्कों के प्रचलन का निश्चित प्रमाण नहीं मिलता, अतः संभव है विनिमय अनाज के माध्यम से ही होता रहा हो।’

सैन्धव युगीन किसान अपने जीविकोपार्जन के लिए अनेक फसलों का उत्पादन करते थे। वे गेहूं की कम से कम दो किस्मों (ट्रिटिकम कम्पैक्टम और ‘ट्रिटकम स्फेरोकम) से परिचित हो चुके थे।
वह गेहूँ (Triticumcompactum अथवा T. sphacrococcum) आज भी पंजाब में उत्पन्न होता है। परन्तु उस समय का जौ (Hordcum Vulgate) अब पंजाब में नहीं होता।
इनके साक्ष्य हड़प्पा तथा मोहनजोदड़ो के उत्खननों से प्राप्त हुये हैं। लोग जो, मटर, तिल, सरसों, तरबूज, खजूर तथा कपास आदि की खेती करते थे। लोथल तथा रंगपुर में चिकनी मिट्टी की प्राप्ति तथा इस प्रकार की मिट्टी से बने पात्र में चावल की भूसी के मिलने से अब यह कहा जाने लगा है कि सम्भवतः इस काल के किसान चावल की खेती करने लगे थे।
पर्याप्त रूप से जल मिल जाने के कारण सिन्धु-निवासी चावल की खेती भी सुगमतापूर्वक करते थे।
हड़प्पा सभ्यता के लोग गन्ने से अपरिचित थे।
इसी प्रकार लोथल से बाजरे की खेती का प्रमाण मिला है।

उल्लेखनीय है कि समकालीन मेसोपोटामिया सभ्यता के प्रायः सभी नगरों से अन्नागारों के साक्ष्य मिलते हैं जिनमें कुछ तो अत्यन्त विशाल होते थे। अन्नागारों के पास ही अनाज कटने के चबूतरे तथा मजदूरों की बस्तियों के भी अवशेष मिले है। इनके अतिरिक्त लोग घरों में अनाज रखने के लिये खत्तियां भी बनाते थे। हडप्पा से इस प्रकार की तीन खत्तियां मिलती हैं। कालीबंगन से बड़े आकार के मर्तबान (जार) एक के ऊपर एक करके रखे हुए मिलते हैं। इनसे सूचित होता है कि लोग अपने खाने से अधिक उत्पन्न करते थे तथा भविष्य के लिये अनाज सुरक्षित भी रखते थे। अनाज को ओखली में कूटकर तथा सिलबट्टे द्वारा पीसकर आटा तैयार किया जाता था। प्रायः सभी स्थलों से सिलवट्टे मिलते है लोथल से एक वृत्ताकार चक्की के दो पाट भी मिलते हैं। ऊपर वाले पाट में अनाज डालने के लिये एक छेद बनाया गया है।

हडप्पा से प्राप्त मृण्पात्र की आकृति एक नारियल की भाँति है। दूसरे पात्रों पर केला, खजूर और अनार की आकृतियाँ बनी हैं। इनसे विद्वानों ने निष्कर्ष निकाला है कि कदाचित् सिन्धु-निवासी इन फलों की खेती करते थे। इसी प्रकार इस आभूषण की आकृति नीबू की भाँति है।

  2. पशुपालन:-

सिन्धु सभ्यता में कृषि के साथ पशुपालन के भी साक्ष्य मिले हैं। कृषि के साथ पशुपालन अत्यावश्यक माना जाता था तथा महत्वपूर्ण भी था। पशुपालन सिंधु घाटी सभ्यता के आर्थिक जीवन का दूसरा महत्वपूर्ण आधार था।
सिन्धु सभ्यता में प्राप्त पशुओं की मूर्तियों, मुद्रा में उत्कीर्ण पशुओं के चित्रों और उत्खनन से प्राप्त पशओं के अवशेषों(हड्डी) से पशुपालन की जानकारी मिलती है।
indus valley civilization seals
 सिन्धु सभ्यता के प्रमुख पालत पशओं में बैल, भैंस, गाय, भेड-बकरी, कुत्ते, खच्चर, गधे और सूअर आदि हैं।
यद्यपि गाय का कोई धार्मिक महत्व दृष्टिगोचर नहीं होता है तथापि दूध के लिए यह बहुसंख्यक मात्रा में पाली जाती थीं। यही कथन भैसों के लिए भी सत्य है।
उल्लेखनीय है कि सिन्ध सभ्यता में बैलों की दो श्रेणियाँ मिली हैं-डीलदार बैल तथा बिना डील वाले बैल । डीलदार बैलों के चित्रों के सामने मुुद्राओं में नाँद का अंकन नहीं मिलता है।
seals image of harappan civilization
animal seals of harappan civilization
विद्वानों का मत है कि सम्भवत: डील वाला बैल पूजा के लिए रहा होगा।
सिन्धु सभ्यता के लोग हाथी का पालन भी करते थे।
 हाथी के कपाल का अवशेष मोहनजोदडो से प्राप्त हुआ है। सिन्धु सभ्यता की मुद्राओं पर भी हाथी, ब्याघ्र तथा गैंडा(भारतीय गैंडे  का एक मात्र प्रमाण आमरी से मिला है।)
अतः हाथी का पालन भी सम्भवतः प्रारम्भ हो गया था। हाथी का एक कपालखण्ड मोहनजोदड़ो में मिला है। इसके अतिरिक्त हाथी दांत का प्रयोग कलात्मक वस्तुओं के निर्माण में किया गया है।
ये सब तत्कालीन समाज मे पालतू जानवर थे अथवा इनका शिकार होता था ये अभी भी विमर्श का विषय बना हुआ है।
सिन्धु सभ्यता के लोग घोड़े और ऊँट से परिचित थे अथवा नहीं, इस विषय पर विद्वानों में मतभेद है।
मोहनजोदड़ो के उत्खनन के समय ऊपरी स्तर से प्राप्त घोड़े का अस्थि-अवशेष आज भी विद्वानों को संशय में डाल रखा है। एस० आर० राव ने लोथल से प्रात एक मृण्मूर्ति पर घोड़े की आकृति को अंकित पाया है। परन्तु यह अश्वाकृति ही है या कुछ और, अभी भी निश्चयपूर्वक कुछ नहीं कहा जा सकता है। स्टुअर्ट पिगट की धारणा है कि बलूचिस्तान में स्थित राना घुण्डई में बसने वाले सैन्धव लोग घोड़े से अवश्य परिचित थे क्योकि राना घुंडाई से घोड़े के दाँत(जबड़ा) मिला है।
सुरकोटदा से घोड़े के अस्थिपंजर मिले हैं।
सैन्धव संस्कृति में अश्व अस्तित्व को प्रमाणित करने वाले कतिपय साक्ष्य सियाल्क तथा अनी नामक पुरास्थलों के द्वितीय स्तर से भी प्राप्त हुए हैं।
इसके अतिरिक्त लोथल तथा कालीबंगन आदि पुरास्थलों से भी घोड़े की मृण्मूर्तियां, हड्डियां, जबड़े आदि के अवशेष मिले हैं।

जहाँ तक घोड़े का प्रश्न है, प्रारम्भ में ऐसा माना जाता था कि सेन्धव लोग इससे परिचित नहीं थे और यह आर्यों का प्रिय पशु था। किन्तु लोथल, सुरकोटदा, कालीबंगन आदि स्थलों से घोड़े की मृण्मूर्तियों, हड्डियों, जोड़ने आदि के अवशेष मिल जाने के पश्चात अब यह निश्चित हो गया है कि इस पशु से भी सैन्धव लोग परिचित थे।

हङप्पा sabhyta
लोथल से प्राप्त घोड़े के दूसरे तथा दायां ऊपरी चौघड़ (molar) के दाँत तो बिल्कुल आधुनिक पालतू घोड़े के दांत कैसा है।
बी0 बी0 लाल ने कालीबंगन के उत्खनन से घोड़े के अवशेष मिलने की सूचना दी है। अतः अब यह नहीं कहा जा सकता कि घोड़े का अस्तित्व आर्य सभ्यता में ही था।
उपरोक्तानुसार यह माना जाता है कि सिंधु सभ्यता के लोग हाथी और घोड़े से परिचित अवश्य थे किंतु वे उन्हें पालतू बनाने में सफल नही हो सके थे क्योंकि हाथी और घोड़े पाले जाने के साक्ष्य प्रामाणिक नहीं हो पाए हैं।
सैंधव सभ्यता के लोग कुत्ते बिल्लियों के अतिरिक्त साधारण सवारी हेतु गधा भी पालते थे।
सुअर भी सिंधु प्रदेश का एक पालतू पशु था। खुदाई में इसके अस्थिपंजर तथा खिलौने उपलब्ध हुए हैं।
अन्य छोटे पशुओं और पक्षियों में बिल्ली, बंदर, खरगोश, हिरन, मुर्गा, तोता, उल्लू, मोर, हंस, बत्तख आदि के चित्र मूर्ति और खिलौने मिले हैं।

शेर का कोई साक्ष्य नही मिला है।

समाज में लोगों द्वारा पशुओं का उपयोग भार ढोने के लिए और खेती के कार्यों में किया जाता था। इसके अलावा सिन्धु सभ्यता के लोगों को पशुओं से दूध, मांस, खाल और ऊन प्राप्त होता था।
इसके अतिरिक्त कुछ पशुओं का धार्मिक महत्व था तथा कुछ को मांस के लिए पाला जाता रहा होगा।

3. शिल्प तथा उद्योग धन्धे:-

कृषि तथा पशुपालन के अतिरिक्त सैंधव निवासी शिल्पों एवं उद्योग धन्धों में भी रुचि लेते थे।
सिन्धु सभ्यता के पुरावशेषों से विभिन्न उद्योग-धन्धों के साक्ष्य की पुष्टि होती है।
हड़प्पा संस्कृति ताम्राश्मयुगीन थी। अतः इस काल में प्रस्तर-शिल्प कला के साथ-साथ कांस्य-शिल्प कला की भी समुन्नति हुई।
 प्रस्तर-शिल्पांकन के अनेक महत्वपूर्ण साक्ष्य
अब तक खोजे जा चुके है। उत्खननों से लाल बहुले पत्थर द्वारा बने मानव धड़ मिले हैं, जिनमें दोनों भजाओं तथा सिर को अलग से निर्मित कर क्रमशः कंधों तक ग्रीवा के नीचे बने छिद्रों (साकेट) से जोड़ दिया गया है।
इसी तरह सलेटी पत्थर से बनी नर्तकी की एक लघु प्रतिमा अपने निर्माण-शिल्प के लिये उल्लेखनीय है ।
मोहनजोदड़ो से प्राप्त दाढ़ीयुक्त पुरुष-मुख तथा नृत्य-मुद्रांकित प्रस्तर-नारी मूर्तियाँ हड़प्पा कालीन प्रस्तर शिल्प कला के महत्वपूर्ण उदाहरण माने जा सकते हैं। इस काल में प्रस्तर-प्रौद्योगिकी के फलस्वरूप बहुतायत में समानांतर फलक सेलखड़ी की आयताकार मुहरें तथा बहुसंख्यक मनकों का निर्माण किया गया था।
इनके अतिरिक्त इस युग के लोग अकीक (Cornllian), सुलेमान पत्थर (Agate), सूर्य-कांत (Lapislazzuli) तथा नीलम (Jasper) आदि मूल्यवान रत्नों से महिलाओं को निर्मित करने में बहुत दक्ष थे।
 इनके अतिरिक्त वे जीवन में उपयोगी बहुसंख्यक प्रस्तर-उपकरणों के निर्माण में तो पारस्परिक रूप से कुशल थे ही। सैन्धव निवासी धातु-कर्म से भलीभाँति परिचित थे। उन्होंने राँगा तथा ताँबा धातुओं को मिलाकर ‘कांसा धातु बनाने की तकनीक विकसित कर लिया था। परन्तु काँसे से विकसित उपकरण बनाने की जगह वे कृषि कर्मयोगी आरी तथा मुड़ा हुआ वर्मा(Drill) बनाने में अधिक अनुरक्त थे।
 मोहनजोदड़ो से मिली कतिपय कांस्य-मूर्तियाँ तत्कालीन विकसित धातु प्रौद्योगिकी को अनुरेखित करती हैं। यहाँ से प्राप्त काँस्य-निर्मित नर्तकी प्रतिमा अपनी शिल्पगत श्रेष्ठता के लिए विश्वविख्यात है।
सोने, चाँदी, पीतल, ताँबा आदि धातुओं के आभूषणों, गुरियों, मुद्राओं, खिलौनों और बर्तनों को देखने से प्रकट होता है कि सैन्धव स्वर्णकारों ने अपने काम में काफी निपुणता प्राप्त कर ली थी। वे धातुओं को गलाना जानते थे। मोहनजोदड़ो में ताँबे का गला हुआ एक ढेर.
मिला है। धातु के गले हुए द्रव को साँचों में भरकर विविध आकार दिये जाते थे। सिन्धु सभ्यता के शिल्पियों को धातुओं के गलाने, ढालने, काटने, तराशने आदि की विधिवत जानकारी के साक्ष्य मिले हैं। सिन्धु सभ्यता में शिल्पी धातुओं की बंद साँचे में ढलाई करते थे। धातुओं की ढलाई में मधूच्छिष्ट तकनीक का विकास हो चुका था।
 कभी-कभी धातु को पीट कर चादरें भी बनाई जाती थीं और फिर उन्हें काट-काट कर विभिन्न आकृति के पशु-पक्षी इत्यादि बनाये जाते थे। धातुओं के साथ-साथ वे शंख, सीप, घोंघा, हाथीदाँत आदि के काम में भी निपुण ये हड़प्पा से शंख का बना हुआ एक बैल मिला है।
खुदाई में सीप की भी एक गुरिया प्राप्त हुई है। घोंघे की बनी गुड़िया और खिलौने तो काफी मिले हैं। इसी नगर में हाथी-दाँत की बनी हुई एक छड़ मिली है। शांतिप्रिय होने के कारण सिन्धु-प्रदेश में युद्ध के हथियार कम मिलते हैं। इनकी तलवार की दुधारी होती थीं हड़पा में पाँच कटारें भी मिली हैं। ये तावे की हैं। खुदाई में वी और भाले भी प्राप्त हुए हैं।
दो ताबीजों पर धनुष के द्वारा शिकार करने का दृश्य है। इन समस्त औजारों और हथियारों को देखने से प्रकट होता है कि सिन्धु-प्रदेश में आधुनिक लोहार की भाँति धातुओं पर काम करने वाला कोई वर्ग था।
चन्हूदड़ों में मैके को इक्के के दो खिलौने मिले हैं। हड़प्पा में भी पीतल का एक इक्का पाया गया है। मोहनजोदड़ो और हड़प्पा में गाड़ी के पहिये और तख्ते भी मिले हैं। इनसे प्रतीत होता है कि सिन्धु-प्रदेश में बढ़ई का काम भी होता था। खुदाई में सीने की सुइयाँ मिली हैं। परन्तु चतुर्दिक पृथक्-पृथक् व्यवसायियों को देखते हुए यह अनुमान होता है कि सिन्धु-प्रदेश में भी दर्जी की दूकानें होंगी। मूर्तियों, खिलौनों और मुद्रा-चित्रों पर अंकित वेश-भूषा पर विविध रंगों का प्रयोग यह सिद्ध करता है कि रंगरेजों का व्यवसाय काफी लोकप्रिय रहा होगा।
सिन्धु सभ्यता में मनकों का निर्माण कार्य भी बड़े पैमाने पर किया जाता था लोथल और चान्हदडों से मनके बनाने के कारखाने प्रकाश में आये हैं। मनकों के अलावा महरों का साक्ष्य भी सिन्धु सभ्यता में प्रचुरता से मिला है। मुहरों के बनाने के उद्योग भी पूर्ण विकसित थे मुहरों का निर्माण चर्ट, सेलखडी, कांचली मिट्टी, तांबे और मिट्टी से किया गया है । सिन्धु सभ्यता में कतिपय अभिलेख भी प्राप्त हुए हैं, जिन पर चित्राक्षर लिपि उत्कीर्ण है। इनके अलावा मूर्तिकला और खिलौनों के निर्माण से भी सिन्धु सभ्यता के लोगों के विकसित शिल्प और उद्योग की जानकारी मिलती है। इस प्रकार सिन्धु सभ्यता के निवासियों ने अनेक उद्योग-धन्धों को विकसित कर लिया था, जिससे उनकी अर्थव्यवस्था सुदृढ़ हुई और व्यापारिक गतिविधियों को गति मिली।
 हड़प्पावासी मृद्भाण्ड-निर्माण में बड़े दक्ष थे।
pots images of harappan civilzation
हड़प्पा सभ्यता के मृदभांड
 चाकू से छोटे-छोटे भाण्डों को गढ़ने की तकनीक का उन्हें विधिवत् ज्ञान था। उनके कुछ मृद्भाण्ड अति सुन्दर तथा चित्रित मिले है। वे गाढ़ी लाल चिकनी मिट्टी का लेप लगाकर अपने बर्तनों को काले रंग से रंगने तथा उन पर विविध आकतियों अथवा डिजाइनों को बनाने में पारंगत थे। सैन्धव निवासी पत्थर से बने मनकों (Beads) को क्षार के प्रयोग से कुरेदने तथा भट्ठी में उसे गर्म करने की रासायनिक प्रक्रिया को भलीभाँति जानते थे।
Hadappa sabhyta ke mridbhand
बर्तनों को विभिन्न आकार-प्रकार में बनाया गया है और उन्हें विभिन्न अलंकरणों से सजाया गया है।
सिन्धु सभ्यता में ईंटों का निर्माण भी सम्भवत: उद्योग का रूप धारण कर चुका था। ईंटों के निर्माण में समरूपता के कारण सम्भावना व्यक्त की गयी है कि ईंटों का निर्माण एवं वितरण बड़े पैमाने पर किया जाता था ईंटों को पकाने के लिए भट्ठों के साक्ष्य नगर के बाहर मिले हैं।
bricks size of harappan civilization
 शोर्तुघई (Shortughai) नामक सैन्धव पायल से प्राप्त बहसंख्यक वैदूर्यमणि से अब यह निष्कर्ष निकाला जाने लगा है कि हड़प्पावासी कई प्रकार के खनिज पदार्थों का न केवल ज्ञान रखते थे अपितु उन खनिज क्षेत्रों को अपने अधीन रखने के लिए भी गतिशील भी थे। जहाँ खनिज पदार्थ उपलब्ध थे, वहाँ के लोगों के साथ सैन्धव वासियों का घनिष्ठ संपर्क था।
 इस काल में मुहर काटने, ईंट बनाने, नगर-विन्यास तथा भवन निर्माण करने जैसी कला तकनीक अत्युच्च अवस्था में पहुँच चुकी थी।
 विविध प्रकार के उद्योग-धन्धों का प्रचलन था।
 खुदाई में प्राप्त कताई-बुनाई के उपकरणों (तकली, सुई आदि) से पता चलता है कि कपड़ा बुनना एक प्रमुख उद्योग था।
मोहनजोदड़ो से सूती वस्त्र उद्योग के प्रमाण मिले हैं।
 साहनी ने मोहनजोदड़ो से चाँदी के एक कलश में कपड़े का टुकड़ा प्राप्त किया है, जो लाल रंग से रंगा गया है। वस्त्र को रंगने के लिए मजीठ का प्रयोग किया गया है।
इसी प्रकार मैके ने अनेक वस्तुओं में लिपटे हुए सूत धागे प्राप्त किये हैं।
मोहनजोदड़ो से सुती कपड़े और सूती धागे भी मिले हैं, जो ताँबे के दो उपकरणों में लिपटे हुए हैं। कालीबंगा से एक उस्तरे में भी सूती वस्त्र लिपटा हुआ मिला है। इसी पुरास्थल से मृद्भाण्ड के एक टुकड़े पर सूती वस्त्र की छाप अंकित है। लोथल में भी मुद्रांकों पर सूती वस्त्रों की छाप के निशान मिले हैं। आलमगीरपुर से भी बुने हुए वस्त्र के निशान एक नाँद पर अंकित है।
 सिंधु सभ्यता में अधिकांश मकानों से तकुये मिले हैं। तकुओं का निर्माण कांचली मिट्टी, शंख और मिट्टी से किया गया है। तकुओं में दो या तीन छिद्र बने हुए हैं। सिन्धु सभ्यता में वस्त्रों पर कढ़ाई के साक्ष्य भी मिले हैं। इस प्रकार सिन्धु सभ्यता में वस्त्र उद्योग पूर्ण विकसित अवस्था में दिखायी पड़ता है ।
सिन्धु प्रदेश में पटुए (Flax) के अवशेष मिलते हैं। शाल तथा धोती यहाँ के निवासियों के प्रमुख वस्त्र थे जिनका निर्माण यहाँ के कारीगरों द्वारा किया जाता था मोहेनजोदड़ों से जो पुरोहित की मूर्ति मिली है वह तिपतिया अलंकार से युक्त है। इससे निष्कर्ष निकलता है कि यहाँ के वस्त्रों पर कढ़ाई करना भी जानते है।

रंगे बर्तनों से पता चलता है कि सिंधु लोग रंगाई करने के काम से परिचित थे। चाक पर मिट्टी के बर्तन बनाना, खिलौने बनाना, मुद्राओं का निर्माण करना, आभूषण एवं गुरियों का निर्माण करना आदि कुछ अन्य प्रमुख उद्योग-धन्धे थे। धातुओं में सोना, चाँदी, ताँबा, कांसा तथा सीसा का उन्हें ज्ञान था और इनसे विविध प्रकार के आभूषण एवं उपकरण बनाये जाते थे खुदाई में तांबे-कांसे के उपकरण अधिक मात्रा में उपलब्ध होते हैं। इनमें घरेलू तथा कृषि-संबंधी उपकरण, अस्त्र-शस्त्र, बर्तन, कड़ाही, प्रसाधन सामग्रियां आदि प्रमुखता से मिलती है। तांबे तथा कांसे का प्रयोग मानव एवं पशु मूर्तियाँ बनाने में भी किया जाता था। चाँदी के न केवल आभूषण अपितु बर्तन भी बनाये जाते थे किन्तु सोने का कोई भी बर्तन नहीं मिलता है। इसी प्रकार सीसे के भी कुछ उपकरण मिलते धातुओं को गलाने, उन्हें पीटने तथा उन पर पानी चढ़ाने की विधि से लोग अच्छी तरह परिचित थे। शंख, सीप, घोंघा, हाथी-दाँत से भी उपकरणों का निर्माण करना वे जानते – थे। लकड़ी की वस्तुओं से पता चलता है कि बढईगिरी का व्यवसाय भी होता गाड़ी के पहियों तथा तख्तों के कई अवशेष मिलते हैं। सैन्धव भवन पकी ईंटों के बने है। इससे सूचित होता है कि ईंट उद्योग भी काफी विकसित अवस्था में था तथा कुछ लोग रोजगार के व्यवसाय में भी निपण थे। यहाँ के निवासी नावों का निर्माण करना भी जानते थे। सैंधव निवासियों ने विभिन्न उद्योग-धन्धों में निपुणता प्राप्त कर ली थी। उनके कुछ आभूषण एवं बर्तन, कला एवं तकनीक की दृष्टि से अत्यन्त उच्चकोटि के हैं। यहाँ के कुम्हार विशेष आकार-प्रकार के बर्तन बनाते थे। ये चिकने और चमकीले होते थे तथा इनकी अपनी अलग पहचान थी। सैन्धव सभ्यता के कुछ नगर विशिष्ट वस्तुओं के निर्माण के लिये प्रसिद्ध थे चन्दड़ो तथा लोथल में मनका बनाने (Lapidary) का कार्य होता था। दोनों स्थानों से इसके लिये कच्ची धातुयें, भट्टियां, गोरियां आदि पाई गयी है। चन्हूदड़ो में सेलखड़ी मुहरें तथा चर्ट के बटखरे भी तैयार किये जाते थे| बालाकोट तथा लोथल का सीप उद्योग (Shell-industry) सुविकसित था। सैन्धव निवासियों द्वारा पहने जाने वाले कंगन तथा अन्य आभूषण संभवतः यहीं तैयार किये जाते थे।

4.  व्यापार वाणिज्य

सैन्धव संस्कृति की प्रमुख विशेषता उसका नगरीकरण है। इस काल में असंख्य छोटे-छोटे नगरों की स्थापना हुई थी। संपूर्ण सैन्धव क्षेत्र में इस प्रकार के नगरों का अधिक से अधिक बसाया जाना, तत्कालीन सक्रिय व्यापार-तंत्र को आलोकित करता है। प्रायः नगरीय अर्थव्यवस्था में अन्तर्सम्बन्धों का एक ऐसा तन्त्र विकसित हो जाता है, जो क्षेत्रीय अथवा भौगोलिक सीमाओं में बँध कर नहीं रहता है। कच्चे माल तथा व्यापारिक वस्तुओं के पारस्परिक आदान-प्रदान हेतु हड़प्पावासी अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के अतिरिक्त अपने अगल-बगल तथा दूर-दराज बसे देशों के साथ भी व्यापारिक एवं विनियम-सम्पर्क रखते थे।

यह सुविदित तथ्य है कि शहरी लोग खाद्यान्नों का स्वयं उत्पादन न करके अपने आस-पास अवस्थित ग्रामीण क्षेत्रों पर निर्भर करते हैं। अतः सैन्धव कालीन नगरवासी कृषि-कर्म में लग कर, व्यापार निर्माण कार्य, प्रौद्योगिकी एवं शिल्पांकन विकास धार्मिक तथा प्रशासानिक व्यवस्था आदि में संलग्न थे। इन कर्मों के फलस्वरूप कर, भेंट, उपहार, दान अथवा क्रय-विक्रय जन्य आर्थिक लाभ शहरी अर्थव्यवस्था को गतिशील करने में सहायक सिद्ध हुआ।

 हड़प्पा कालीन शहरों में रहने वाले लोग अपने लिए उपभोग्य वस्तुओं की खोज में दूरस्थ देशों तक संपर्क रखते थे। यही कारण है कि इस काल में सैन्धव नगरों का जाल अफगानिस्तान में स्थित शारदा घई से लेकर गुजरात में स्थित भगवतराव तक विस्तीर्ण मिलता है। इन नगरों की अवस्थिति से हड़प्पा वासियों के अन्तक्षेत्रीय व्यापार, आपसी सम्बन्ध, आर्थिक अन्तर्निर्भरता तथा सुव्यवस्थित व्यापारिक गतिविधियों पर प्रकाश पड़ता है। उक्त आर्थिक परस्परावलंबन तथा संपर्क का मूल कारण मौलिक संसाधनों का अलग-अलग क्षेत्रों से उपलब्ध होना माना जा सकता है। इन संसाधनों में कृषि, पशु, खनिज, बहुमूल्य पत्थर तथा लकड़ी आदि सम्मिलित थे। इन वस्तुओं को व्यापारिक केन्द्रं, तथा मार्गों की स्थापना करके ही उपलब्ध किया जा सकता था।

कतिपय बहुमूल्य पत्थरों की प्राप्ति हेतु वे कई-कई दिन तक चलकर दूरस्थ प्रदेशों तक जाते थे। उदाहरण के लिए वैदूर्यमणि तथा फिरोजा के लिए वे हिन्दुकुश तथा पश्चिमोत्तर सीमांत देशों तक की यात्रा करते थे। संभवतः काश्मीर में सोना तथा मिथिला के स्रोत्रों से भी वे परिचित थे।

वे नील रत्न (Lapis Lazuli) को बदख्शां से, हरितमणि (Jade) को मध्य एशिया से, नीलमणि को महाराष्ट्र से, सुलेमानी पत्थर को पश्चिमी भारत तथा सौराष्ट्र से तथा शंख-कौड़ियों को सौराष्ट्र तथा दक्षिण-पश्चिम भारत के समुद्र तटों से लाते थे तथा उनका उपयोग करते थे।

मनके के लिए गोमेद का आयात गुजरात से किया जाता था। पाकिस्तान के रोड़ी और सक्कर की खानों से फ्लिंट तथा च्ट की आपूर्ति उपकरण बनाने के लिए अन्य क्षेत्रों में की जाती थी।
सैन्धव संस्कृति में धातुओं में सर्वाधिक खपत एवं उपयोग ताँबे का था। इसकी प्राप्ति राजस्थान के नागौर, जोधपुर तथा गणेश्वर आदि ग्रामों से तथा मुख्य रूप से खेतड़ी की खानों से होती थी। अकेले गणेश्वर पुरास्थल से 58 तांबे की कुल्हाड़ियाँ, 50 मछली पकड़ने वाले काँटे तथा 400 से अधिक ताम्र निर्मित वाण-फलक प्रकाश में आये हैं। राजस्थान के
अतिरिक्त तांबे का आयात अफगानिस्तान, बलूचिस्तान तथा उत्तरी-पश्चिमी सीमांत क्षेत्रों से भी किया जाता था।

चाँदी संभवतः ईरान तथा अफगानिस्तान से लाई जाती थी।

 सोना जैमी बहुमूल्य धातु संभवतः कर्नाटक प्रदेश में स्थित कोलार खान, काश्मीर, फारस तथा अफगानिस्तान से मंगाया जाता था। विद्वानों का अनुमान है कि सिंधु संस्कृति के व्यापारीगण मेसोपोटामिया को भेजे गये अपने माल के बदले में संभवतः सोना एवं चाँदी आदि धातुओं को ही मूल्य के रूप में लिया करते थे।

अन्य धातुओं में शीशा संभवतः काश्मीर, राजस्थान, पंजाब तथा बलूचिस्तान प्रभृति क्षेत्रों से प्राप्त होता था।

किन्तु वैदूर्यमणि जैसी बहुमूल्य पत्थर उत्तरी-पूर्वी अफगानिस्तान में बदख्शां कीमती पत्थरों (Badakshan) से तथा जेड तथा फिरोजा आदि को मध्य एशिया से ही आयात किया जाता था ।

लाजबते, सफेद स्फटिक, गोमेद आदि रल पश्चिमी भारत तथा सौराष्ट्र प्रदेश में उपलब्ध थे।

इसी प्रकार जम्मू में स्थित मांदा (चेनाब नदी के तट पर) से कीमती लकड़ी तथा समुद्री-सीपियां गुजरात तथा पश्चिमी भारत के समुद्र तटों से उपलब्ध की जाती थी।

हडप्पा संस्कृति के लोग समानान्तर आकार के पत्थर के ब्लेड का प्रयोग करते थे, जिन्हें उच्च कोटि के पत्थरों से निर्मित किया जाता था। ये उत्तमोत्तम पत्थर सिन्धु क्षेत्र से हर जगह उपलब्ध नहीं थे पुरातत्वविदों के अनुसार इस प्रकार के पत्र संभवतः सिन्धु उपत्यका में अवस्थित सुक्कर (Sukkur) नामक पहाड़ी स्थल से प्राप्त किया जाता था। इस परिकल्पना का मुख्य आधार गुजरात प्रदेश में स्थित रायपुर पुरास्थल को प्रारम्भिक स्तर से मिले बहुतेरे प्रस्तर उपकरण है, जिन्हें तैयार करने के लिए वांछित पत्थरों को केवल इसी क्षेत्र से लाया जाता रहा होगा। कालान्तर में, यहाँ के हासोन्मुख हड़प्पा वासियों ने स्थानीय पत्रों से हथियार बनाना प्रारम्भ कर दिया था।

इसी प्रकार हड़प्पा संस्कृति की सभी बस्तियों से मिले धातु (ताँबा एवं काँसा) तथा प्रस्तर-उपकरणों में प्राप्त एकरूपता भी चौकाने वाली है। इनकी बनावट तथा वस्तुगत एकरूपता यह इंगित करती है कि समस्त सैन्धव क्षेत्र में उत्पादन तथा वितरण प्रणाली निश्चयतः किसी न किसी केन्द्रीय संस्था द्वारा नियन्त्रित की जाती रही होगी ऐसी केन्द्रीय संस्थाओं के नियंत्रक या तो तत्कालीन शासकगण रहे होंगे अथवा व्यापारीगण।

खनिज पदार्थों अथवा कच्चे मालों की संप्राप्ति से लेकर उनसे बनने वाली वस्तुओं के वितरण अथवा विनिमय आदि कार्यों की व्यवस्था हड़प्पा संस्कृति में विकसित नगरीय अर्थतन्त्र की देन थी। शहरीकरण के उत्तरोत्तर वृद्धि के साथ-साथ ही सैन्धव युगीन व्यापार तथा व्यापारिक सम्बन्धों के विकास को भी अनुरेखित किया जा सकता है। उत्खननों में मिले आकर्षक मनकों को तत्कालीन शहरीजन बड़ी रुचि के साथ प्रयोग में लाते थे।

चन्हुदड़ो से वैदूर्यमणि के कतिपय ऐसे मनके मिले हैं, जो आधे तैयार हो चुके थे तथा उनका आधा बनना बाकी रह गया था।

इस प्रकार के साक्ष्यों से स्पष्ट होता है कि सैन्धव निवासी बहुमूल्य पत्थरों को दूरस्थ क्षेत्रों से आयात कर उससे सुन्दर वस्तुएँ निर्मित कर सुदूर क्षेत्रों तथा देशों तक भेजा करते थे। उपलब्ध साक्ष्यों से यह भी ज्ञात होता है कि चन्हूदड़ो तथा लोथल में लाल पत्थर (Camelian) तथा गोमेद के मनके बहुतायत में बनते थे तथा इन्हें विदेशों में भी भेजा जाता था।

हड़प्पा युगीन नगर अधिकतर खानों के सन्निकट अथवा व्यापारिक मार्गों पर अवस्थित थे। कुछ नगर कृषि-उत्पादन वाले क्षेत्रों में तथा कुछ अनुपजाऊ भू-भागों में भी अवस्थित मिले। उदाहरण के लिए, बलूचिस्तान में मकरान, समुद्र-तट पर अवस्थित सत्कालिन नामक नगर मेसोपोटामिया के साथ हड़प्पा वासियों द्वारा स्थापित व्यापारिक सम्म संरेखित करता है। संभवतः यह एक विश्राम स्थल अथवा व्यापारिक चौकी जैसा पर केन्द्र रहा होगा।

 शोर्तुघई (Shortughai) से मिले बहुसंख्यक वैदूर्यमणि के अवशेषों आलोक में कुछ विद्वान यह प्रस्तावित करते हैं कि दूरस्थ प्रदेशों में अवस्थित खनिजों प्राति हेतु हड़प्पा संस्कृति के लोग संभवतः अपने लिए उपनिवेश के रूप में छोटे-छोटे नगर को बसाया करते थे। इस प्रकार का उपनिवेशीकरण तत्कालीन सैन्धव लोगों की व्यापार कर्म में गहरी रुचि को प्रमाणित करता है। संभव है कि बाह्य या दूरस्थ देशों में वस्तुओं की प्राप्ति के प्रति उनकी आर्थिक संलग्नता के परिणामस्वरूप इन नगरों को बसाया गया रहा हो। ऐसा लगता है कि इस प्रकार की व्यापारिक व्यवस्था संभवतः किसी केन्द्रीय शासन द्वारा नियन्त्रित की जाती रही होगी।

(i) अंतर्क्षेत्रीय व्यापार-

प्रस्तुत विमर्श में सर्वप्रथम यह समझना अपेक्षित है कि सैन्धव लोगों की अन्तर्क्षेत्रीय विनिमय प्रणाली कैसी रही होगी।

 यह तो तय है कि इस सुविस्तृत संस्कृति-क्षेत्र में अन्तक्षेत्रीय व्यापार का एक सुव्यवस्थित तंत्र अवश्य स्थापित रहा होगा पारस्परिक आदान-प्रदान की प्रक्रिया में विभिन्न समुदाय सक्रिय रहे होंगे उत्खननों से पता चलता है कि उस समय हड़प्पा संस्कृति के एक बड़े भू भाग में शिकारी समुदाय के लोग रहे होंगे, जिनका शिकार के अतिरिक्त एक अन्य महत्वपूर्ण कार्य खनिज पदार्थों का संग्रह करना भी रहा होगा।

 इसके अतिरिक्त पठारी क्षेत्रों में यायावरीय जीवन यापन करने वाले पशु-चारक तथा उपजाऊ मैदानी भाग में कृषक समुदाय के लोग अवस्थित थे। विद्वानों का अनुमान है कि तत्कालीन खानावदोस अथवा शिकारी वर्ग के लोग, जो खनिज पदार्थों के संग्रह का कार्य करते थे, के साथ हड़प्पा युगीन व्यापारियों का नियमित लेन-देन न होकर, मौसमी अथवा एक नियत समय पर एक निश्चित स्थान, हाट या बाजार में एकत्रित होकर विनिमय संपन्न किया जाता था।

व्यापारिक प्रक्रिया को व्यवस्थित ढंग से गतिशील रखने के लिए सैन्धव युगीन व्यापारियों ने संपूर्ण क्षेत्र में एक समरूप नाप और तौल प्रणाली विकसित कर लिया था।
मोहनजोदड़ो, हड़प्पा, कालीबंगा और लोथल के उत्खनन से विभिन्न प्रकार के बाट प्राप्त हुए हैं।

weights grams of harappan civilization

पुराविद् स्टुअर्ट पिगट की व्याख्यानुसार तौल द्विचर (दुगुना) प्रणाली में क्रमश:1,2,4,8.16,32,64,160,320,640,1600 तथा 3200 तक ऊपर नियोजित किया गया था। इस तौल-प्रणाली में सबसे चालू पट्टा 16 इकाई का प्रतीत होता है, जो 120.898 रत्ती (13.64 ग्राम) के लगभग अपनी तौल-मूल्य रखता था। उक्त विद्वान की धारणा है कि छोटे तालों में मापक्रम द्विचर अथवा युग्मक, किन्तु बड़ी तौल अथवा ज्यादा चालू बट्टा 16 से गुणा होने वाले दर्शक माने जा सकते हैं।
इसी प्रकार खण्डात्मक तौलों में प्रायः तृतीयांश मापन प्रणाली प्रचलित थी। सैन्धव बट्टे अपनी बनावट में रोचक लगते हैं। ये प्रायः घनाकार हैं। छोटे बट्टे चौकोर तथा बड़े तिकोनिया बनाये जाते थे सैन्धव युगीन बट्टों में प्रायः एकरूपता मिलती है।
छोटे बट्टों को सलेटी अथवा चकमक पत्थर से बनाया जाता था। किन्तु इस काल के अधिकांश बट्टों का निर्माण चकमक के अतिरिक्त चर्ट, चाल्सिडनी, स्लेट पत्थर, सेलखड़ी, चूना पत्थर तथा प्रस्तर-खण्डों से किया गया है। यह विभिन्न आकार- बेलनाकार, ढोलाकार, शंक्वाकार, घनाकार और वर्तुलाकार आदि मिले हैं।
सामानों को तौलने के लिए मिट्टी और धातु के तराजू के पलड़े भी मिले हैं किंतु इनकी संख्या सीमित है। सम्भवतः बांस की टोकरी के आकार के पलड़ों का भी उपयोग किया जाता रहा होगा।

जहां तक माप का प्रश्न है, लम्बाई प्रायः आज के एक फुट की इकाई के समान मान्य थी, संभवतः 37.6 सेंटीमीटर की माप परिगणित रही होगी। इसी प्रकार अद्यावधि लोकप्रचलित एक हाथ की लम्बाई का माप लगभग 51.8 से 53.6 सेंटीमीटर तक बहुमान्य प्रतीत होती है।
मोहनजोदड़ो के उत्खनन से सीप निर्मित एक पैमाना(स्केल) मिला है। इसी प्रकार लोथल से भी हाथी दांत का एक पैमाना प्राप्त हुआ है।

सैन्धव युगीन नगरों के व्यापारिक स्थलों से बहुसंख्यक मुद्रा (मुहर) तथा मुद्रांकन प्राप्त हए हैं। इन मुद्रांकनों के पृष्ठ-भाग पर अंकित चटाई अथवा रस्सीनुमा चिन्ह इस बात को घोषित करता है कि इनका उपयोग संभवतः व्यापारिक माल की गाँठ पर ठप्पे की तरह किया जाता रहा होगा।
पुराविद् एस० आर० राव को लोथल में उत्खनन के समय व्यापारिक गोदामों में जली हुई राख में पड़े कतिपय मुद्रांकन प्राप्त हुए हैं। डा० राव के अनुसार संभवतः इन मुद्रांकन को बाह्य देशों से आयातित माल के गट्ठरों को गोदामों में खोल लेने के बाद एक किनारे फेंक दिया गया था।
अस्तु, निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि सैन्धव कालीन मुद्रांकनों का प्रयोग माल के स्वामित्व-निर्धारण तथा बाह्य अथवा दूरस्थ देशों को निर्यात किए जाने वाले व्यापारिक माल की गुणवत्ता तथा सत्यता को प्रमाणित करने के लिए किया जाता था।

सिन्धु सभ्यता में व्यापारिक गतिविधियों को संचालित करने के लिए विभिन्न यातायात के साधनों की जानकारी भी उत्खनन से मिली है। पुरातात्विक साक्ष्यों के आधार पर माना जाता है कि मैदानी क्षेत्र में दो या चार पहियों की गाड़ी का प्रयोग किया जाता था गाड़ियों में बैलों और भैसे का प्रयोग होता था। गाडियों के अलावा हाथियों, बकरों और खच्चरों का उपयोग माल ढोने के लिए किया जाता था। मोहनजोदड़ो से एक मुहर प्राप्त हुई है, जिस पर नाव का अंकन किया गया है। इसी प्रकार लोथल के उत्खनन से खिलौना-नाव’ का साक्ष्य मिला है। सम्भवत: सिन्धु घाटी के आन्तरिक और बाह्य (विदेशी)व्यापार में नावों का उपयोग यातायात के लिए किया जाता था। लोथल के उत्खनन से गोदी (बंदरगाह) पत्थर के लोग और पोत निर्माण के साक्ष्य मिले हैं जिससे विदेशी व्यापार में नावों या जलपोतों के उपयोग की पुष्टि होती है। सिन्धु सभ्यता के अनेक पुरास्थल समुद्र तटीय भी मिले हैं जो व्यापारिक गतिविधियों के संचालन के केन्द्र रहे होंगे। ऐसे प्रमुख केन्द्रों में गुजरात में भगतराव (किम नदी के तट पर), मेघम (नर्मदा के तट पर), प्रभास पाटन (हिरण्य नदी के तट पर) लोथल (भोगवा और साबरमती के संगम पर), पाकिस्तान के दक्षिणी बलूचिस्तान में स्कागेन-डोर (दश्त नदी के मुहाने पर). सोत्का-कोह (शादीकौर नदी के मुहाने पर) और बालाकोट (विन्दार नदी के तट पर) आदि की गणना की जा सकती है।

(ii) विदेशी व्यापार-

सिन्धु सभ्यता के विदेशी (बाबा) व्यापार के विषय में पुरावशेषों से विस्तृत जानकारी प्राप्त होती है। प्राप्त साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि सिन्धु सभ्यता का सम्बन्ध पश्चिम एशिया और मध्य एशिया से था। सिन्धु सभ्यता का व्यापार अफगानिस्तान, दक्षिणी तुर्कमेनिस्तान (सोवियत रूस), फारस की खाड़ी के देशों, मेसोपोटामिया (ईरान-ईराक) के साथ होता था।

हड़प्पावासियों का व्यापारिक सम्बन्ध हजारों मील दूर स्थित मेसोपोटामिया के साथ स्थापित था। इस बात के पुरातात्विक प्रमाण दजला-फरात नदियों (मध्य एशिया) के तटों पर अवस्थित तत्कालीन निसुर सुमेर, उर तथा सूसा आदि नगरों के उत्खननों से मिली लगभग दो दर्जन हड़प्पा कालीन मुहरें हैं। निप्पुर नामक पुरानगर से उपलब्ध एक मुहर पर सैन्धव लिपि अंकित है तथा उस पर एक-शृंगी पशु को भी उकेरा गया है ऐसी ही दो सैन्धव मुहरें मेसोपोटामिया के प्रसिद्ध पुरानगर किश (Kish) के उत्खनन से भी प्राप्त हुई हैं, जिन पर एक-श्रृंगी पशु तथा सैन्धव लिपि उत्कीर्ण है। यहाँ के प्राच्य नगर उम्मा (umma) के पुरावशेषों में एक सैन्धव लिपि अंकित हड़प्पा युगीन मुहर की प्राप्ति भी उल्लेखनीय है।

फारस की खाड़ी में स्थित बहरीन (Behrain) तथा फैलका (Failka) आदि पुरानगरों से विगत देशकों में कतिपय सैन्धव कालीन मुहरों का पता चला है। मध्य एशियाई भू-भागों में सैन्धव मुहरों की प्राप्ति इस बात की साक्षी है कि हड़प्पा संस्कृति के लोग उक्त क्षेत्रों के साथ व्यापारिक सम्बन्ध रखते ये। मुहरों के अतिरिक्तमध्य एशियाई देशों से कतिपय अन्य सैन्धव पुरावशेषों की प्राप्ति से भी इसी तथ्य की पुष्टि होती है। सैन्धव मृण्मूर्तियां मेसोपोटानियों के निप्पल, किश तथा तेल असमार आदि पुरानगरों से उपलब्ध हुई हैं। यहाँ से प्राप्त मृणाकृतियों में एक मोटे उदर वाला पुरुष, अस्पष्ट घड़, पशु आकृतियाँ, सिर हिलाने वाले तथा पूंछदार पशु आकृतियों आदि महत्वपूर्ण हैं मृण्मूर्तियों के अतिरिक्त किश, उर तथा तेल असमार से प्राप्त नकाशीदार लाल पत्थर के मनके, तौल के बट्टे, जोड़ा युक्त हड्डी के शिल्पांकन भी सैन्धव कालीन व्यापारिक सम्बन्ध के पुरातात्विक साक्ष्य माने जा सकते हैं।

सैन्य युगीन व्यापारियों में बहुत लोकप्रिय चौसर (पासा) के बहुसंख्यक सूर्य मेसोपोटामिया के पुरास्थलों से प्रकाश में आए हैं। जिस प्रकार सूर्य युगीन मनके, पासे, मुहरें तथा शिल्पाकृतियाँ मेसोपोटामिया से उपलब्ध हुई हैं, उसी प्रकार मेसोपोटामिया संस्कृति की कतिपय वस्तुएँ सैन्धव युगीन नगरों के उत्खननों से भी प्राप्त हुई हैं। उदाहरण के लिए, मोहनजोदड़ो से मेसोपोटामिया की बेलनाकार मुहरें तथा धातु की कुछ तैयार वस्तुएं मिली है, जिसे सैन्धव वासियों ने वहीं से आयात किया था। बेलनाकार किन्तु किञ्चित् लघु आकार की कतिपय पारसीक मुहर लोथल से भी प्राप्त हुई हैं। इन पर पक्षियों के आलोक में यह संभव प्रतीत होता है कि सैन्धव एवं मेसोपोटामिया के व्यापारियों के बीच प्रत्यक्ष व्यापारिक सम्बन्ध स्थापित रहा होगा। किन्त कुछ विद्वान साक्ष्यों अत्यल्प को ध्यान में रखकर दोनों देशों के बीच प्रत्यक्ष ब्यापारिक सम्बन्ध पर सन्देह व्यक्त करते है। परन्तु मेसोपोटामिया से उपलब्ध कतिपय प्राचीन लेख उक्त व्यापारिक सम्बन्धों की पुष्टि करते हैं। सारगान (2350 ई० पू०) जो अक्काद (मेसोपोटामिया) का एक महान् नरेश था, ने एक लेख में कहा है कि दिलमुन (Dilmum), मगन (Magan) तथा मेलुहा (Meluha) आदि केन्द्रों के जहाज उसकी राजधानी में आकर रुकते थे।

ब्रिजेंट एल्विन एवं एम० ई० एल० मेलावा प्रभृति पुरातात्विक विद्वानों ने दिलमुन की पहचान वर्तमान बहरीन देश से करना यथोचित बताया है। कतिपय विद्वानों ने मगान का समीकरण वर्तमान पाकिस्तान के मकरान से तथा मेलुा की पहचान सिन्धु के मुहाने पर अवस्थित सैन्धव नगर से अथवा समुद्र तटीय सैन्धव व्यापारिक नगरियों से किया है। मेसोपोटामिया के सुप्रसिद्ध पुरानगर उर (Ur) से प्राप्त साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि वहाँ के व्यापारी मेलुहा के व्यापारियों से हाथी दाँत, गोमेद, ताँबा, सीपी, मोती, वैदर्यमणि तथा इमारती लकड़ी आदि खरीदते थे इसी प्रकार, सिन्धु संस्कृति के लोग मेसोपोटामिया तथा फारस से ऊन, कपड़े, चाँदी, मेवे, चमड़े तथा खुशबूदार तेल आदि वस्तुओं का आयात करते थे। मेसोपोटामिया से प्राप्त उपर्युक्त आभिलेखिक साक्ष्य से ज्ञात होता है कि सिन्धु संस्कृति के साथ मध्य एशियाई देशों का गम्भीर व्यापारिक सम्बन्ध ई० पू० 2350 से लेकर 1900 ई० पू० तक विकसित अवस्था में था। ऐसा मानने का एक प्रमुख आधार यह है कि मेसोपोटामिया के साहित्यिक उल्लेखों में मेलुहा क्षेत्र से जाने वाले सैन्धव व्यापारियों का अंकन मात्र 1900 ई० पू० तक ही हुआ है, तदुपरान्त नहीं।

सैन्धव युगीन विदेशी व्यापार अधिकांशतः बड़ी-बड़ी नौकाओं अथवा जहाजों के माध्यम से होता था। उत्खननों से मिली मुहरों पर नावों अथवा जहाजों को उचित्रित किया गया है। लोथल के उत्खनन में 219 मीटर लम्बा, 37 फुट चौड़ा तथा 4.5 मीटर ऊंचा ईटों से निर्मित एक गोदीशाला अथवा माल घाट (Dock Yard) का पता चला है, जहाँ सैन्धव युगीन जहाजों को रोक कर व्यापापिक माल लादा अथवा उतारा जाता था। लोथल से एक जहाज की मृण्मूर्ति प्राप्त हुई है, जिसको देखने से तत्युगीन नौकायन का बोध होता है। सैन्धव युगीन कतिपय अन्य महत्वपूर्ण बन्दरगाहों में सोमनाथ, रंगपुर तथा बाला कोट आदि उल्लेखनीय हैं। इसी प्रकार इस काल मे बैलगाड़ी, गधा तथा भैंसों को अधिकतर परिवहन के साधन के रूप में उपयोग में लाया जाता था। बैलगाड़ी अंतरक्षेत्रीय परिवहन का प्रमुख साधन रही होगी इसका सर्वाधिक अंकन तत्कालीन मृण्मूर्ति कला में हुआ है। हड़प्पा नगर के पुरावशेषों में कांस्य निर्मित बैलगाड़ी के भी कतिपय साक्ष्य मिले हैं। सामान्य भार-वाहन-हेतु बैलों को बहुत उपयोगी समझा जाता था।

सामाजिक संरचना एवं जीवन यापन का स्वरूप:

 

सैन्धव वासियों की शारीरिक बनावट, रंग तथा उनके आकार-प्रकार का परिज्ञान हमें इस काल की पाषाण, धातु तथा पकी मृण्मूर्तियों की आकृतियों के अतिरिक्त उत्खनन में मिले कंकालों के अवलोकन से होती है। मोहनजोदड़ो के उत्खनन से उपलब्ध मानव कंकालों की शारीरिक संरचना के सम्यक् अध्ययन के आधार पर सिन्धु उपत्यका में निवसित मनुष्यों को निम्न चार नृजाति-समूहों में विभक्त किया जा सकता है
1- प्रोटो-आस्ट्रेलायड
2- भूमध्य सागरीय
3- मंगोलायड तथा
4- अल्पाइन

मोहनजोदड़ो से प्रोटो-आस्ट्रेलायड नृजाति समूह के तीन कंकाल प्रकाश में आए हैं। इनका कद नाटा, कपाल संकरा और लंबा, नाक किञ्चित् चपटी एवं चौड़ी तथा ठुड्डी बाहर की ओर निकली हुई है। इनके सिर के बाल घुंघराले तथा शरीर का रंग काला रहा होगा। इधर इनकी शारीरिक संरचना की तुलना श्रीलंका के पेद्दा जाति तथा दक्षिण भारत में निवसित कतिपय आदिवासी जातियों से की जाने लगी है। विद्वानों का एक वर्ग उन्हें सिन्धु क्षेत्र का मूल निवासी मानता है मोहनजोदड़ो से भूमध्य सागरीय नृजाति वर्ग के अब तक कुल छह कंकालों के साक्ष्य प्राप्त हुए हैं। शारीरिक बनावट में ये प्रोटो आस्ट्रेलायड कंकालों से भिन्न हैं क्योंकि इनके कपाल आकार में लम्बे तथा नाक नुकीली एवं अपेक्षाकृत छोटी है। इसी कोटि का एक नरकंकाल बलूचिस्तान क्षेत्र में अवस्थित नाल से तथा दो कंकाल अनु नामक पुरास्थल से उपलब्ध हुए है। जहाँ तक मंगोलायड जाति का सम्बन्ध है, उसके कंकालीय साक्ष्य बहुत कम मिल पाए है। अभी तक मात्र एक नरकंकाल इस नृजाति वर्ग का मिल पाया है।

स्टुअर्ट पिगट का मत है कि यह मंगोलायड वर्गीय कंकाल सिन्धु उपत्यका का निवासी न होकर संभवतः बाहर से आया हुआ मंगोल सैनिक प्रतीत होता है। मैके उक्त कंकाल को ईरान के पठारी क्षेत्र का निवासी मानते हैं। हड़प्पा संस्कृति-क्षेत्र में बसने वाली चौथी नृजाति अल्पाइन मूल की प्रतीत होती है। इस कोटि के अभी तक तीन कंकाल प्रकाश में आए हैं। पिगट की धारणा है कि इस प्रकार के अस्थि-अवशेष ईरान देश के सिलाल्क क्षेत्र भी से प्राप्त हुये हैं, जिनकी संभावित तिथि चार हजार ईसा पूर्व प्रतिपादित की गई है पुराविद् गुहा एवं सेवा की धारणा है कि मोहनजोदड़ो नगर मध्य एशियाई क्षेत्रों से स्थलमार्ग द्वारा जुड़ा हुआ था। अस्तु, इस नगर में विभिन्न नृ-समूहों का बराबर आवागमन तथा निवास सहजतः अनुमेय है। मोहनजोदड़ो से मिली कांस्य-नर्तकी की मुखाकृति प्रोटो-आस्ट्रेलायड नृजाति के लक्षणों से मेल खाती है। अधिकांश विद्वान इन्हीं प्रोटो-आस्ट्रेलायड लोगों को सिन्धु घाटी का मूल निवासी मानते हैं। कालान्तर में इनका वैवाहिक सम्बन्ध भूमध्यसागरीय नृ-जाति समूह के लोगों के साथ स्थापित होने लगा था।

अब तक प्राप्त साक्ष्यों तथा शोधों के आधार पर अधिकांश विद्वान इसी निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि सिन्धु उपत्यका में एक नहीं अनेक नृजाति समूह का मिश्रित जीवन तथा निवास था।

1. वर्ग-भेद-

सैन्धव संस्कृति एक विकसित नगरीय संस्कृति का प्रतिनिधित्व करती है। अस्तु, इस प्रकार की व्यवस्था में कई प्रकार के आर्थिक एवं सामाजिक वर्गों की परिकल्पना करना स्वाभाविक है।
उनकी सामाजिक व्यवस्था का मुख्य आधार परिवार रहा होगा।
पुराविद् गार्डन चाइल्ड ने इन्हीं सन्दर्भो के आलोक में यह प्रस्तावित किया है कि सैन्धव संस्कृति में तत्कालीन समाज कई वर्गों में विभक्त था।
इनमें प्रधान स्थान शासक अथवा पुरोहित वर्ग का परिकल्पित किया जा सकता है।
सैन्धव युगीन हड़प्पा, मोहनजोदड़ो, लोथल एवं कालीबंगा आदि पुरास्थलों पर दुर्ग-क्षेत्र अर्थात् प्रशासन सम्बन्धी भवन, सामान्य नागरिक आवासों अर्थात् नगरवासियों से पृथक तथा किञ्चित् ऊपरी टीले पर विन्यस्त मिलते हैं।
इन दुर्गीकृत भवनावशेषों के आधार पर तत्कालीन समाज में प्रशासन को नियंत्रित करने वाले शासक वर्ग के लोगों का अस्तित्व स्वीकार किया जा सकता है। ये शासकवर्गीय लोग पुरोहित वर्ग के ही लोग थे अथवा अन्य- यह आज भी अनिर्णित तथा अज्ञात सा है।

कुछ विद्वानों की राय में सैन्धव संस्कृति के धर्म प्रधान स्वरूप को देखते हुए यह प्रस्तावित करना समीचीन लगता है कि मिस्र तथा मेसोपोटामिया की संस्कृतियों की भाँति यहाँ भी पुरोहित ही शासक हुआ करते थे। फिलहाल, यदि पुरोहित वर्ग को शासक संवर्ग में सम्मिलित न भी माना जाय, तो भी तत्कालीन समाज में इनकी विशेष सम्मानित स्थिति की परिकल्पना की जा सकती है।
मैके ने तत्कालीन समाज में पुरोहितों की धार्मिक एवं सामाजिक प्रतिष्ठा को विविध साक्ष्यों के आलोक में अनुरेखित किया है।
सेनानायकों तथा उच्चपदस्थ शासकीय कर्मचारियों का भी समाज में आदरणीय स्थान रहा होगा।
सैन्धव समाज में एक अन्य सम्मानित वर्ग धनाढ्य व्यापारियों का प्रतीत होता है। इनके आवासीय भवन दुर्ग-क्षेत्र में अन्य संभ्रांत वर्ग आवासों के साथ ही मिलते हैं। इस वर्ग के सम्पन्न लोग बहुमूल्य वस्तुओं की प्राप्ति हेतु दूर-दूर तक व्यापारिक समुदायों तथा केन्द्रों से सम्पर्क रखते थे।
खुदाई में तलवार, पहरेदारों के भवन तथा प्राचीरों के अवशेष मिलते हैं जिनके आधार पर समाज में क्षत्रियों से मिलते जुलते किसी योद्धा वर्ग के होने का अनुमान किया जा सकता है।

इनके अतिरिक्त सैन्धव समाज में शिल्पकारों, कृषकों तथा श्रमिकों के पथक-पथक वर्ग अवस्थित थे।
सिन्धु घाटी की उर्वरा-भूमि पर नये-नये प्रौद्योगिकी का उपयोग करके तत्कालीन कृषक खाद्यान्नों का उत्पादन अपने उपयोग से अधिक करने लगे थे। ज्ञातव्य है कि इसी कृषि-उत्पादन पर तत्कालीन शहरी आवादी निर्भर करती थी।

अत: कृषकों की तत्कालीन आर्थिक एवं सामाजिक जीवन में अहम् भूमिका रही होगी। इसी प्रकार इस काल में शिल्प तथा प्रौद्योगिकी में अनेक नये-नये प्रयोग किए गए तथा इसमें अभूतपूर्व विकास हुआ था।
शिल्पीवर्ग में धातु कर्मी, स्वर्णकार, पत्थरतराश,  खुदाई करने वाले, बुनकर, जुलाहे, स्वर्णकार भवन निर्माण कर्ता तथा विभिन्न प्रकार की मुहरें, मूर्तियों, मनकों एवं मृदभाण्ड-निर्माता लोगों को सम्मिलित किया जा सकता है। हड़प्पा के उत्खनन में छोटी-छोटी कोठरियों अथवा बैरक सदृश आवासों में रहने वाले शर्मिकजनों की सामाजिक स्थिति निम्न प्रतीत होती है। परन्तु उनकी सामाजिक स्थिति दासों जैसी थी- यह कहना बड़ा कठिन है।

ह्वीलर का मत है कि संभवतः उनकी स्थिति मेसोपोटामिया के समाज में प्राप्य दासों अथवा अर्द्ध दासों जैसी रही होगी। जो भी हो, इन श्रमिकों की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी तथा समाज में इन्हें निचले क्रम में परिगणित किया जाता था।
अंतिम वर्ग भृत्यों तथा श्रमिकों का था जिनमें चर्मकार, कृषक, मछुआरे, आदि प्रमुख रहे होंगे।
हड़प्पा की श्रमिक बस्तियों के आधार पर कुछ विद्वान समाज मे दास प्रथा के अस्तित्व का निष्कर्ष निकलते हैं। ह्वीलर का अनुमान है कि इनमें दास ही थे। किन्तु राव इस मत से सहमत नही हैं। उल्लेखनीय है कि हड़प्पा की खुदाई में विशाल तथा लघु भवन पास पास मिले हैं जो इस बात का प्रमाण हैं कि समाज मे धनी-निर्धन का भेदभाव नहीं था तथा सभी लोग मिलजुल कर रहते थे।
निष्कर्ष के तौर पर कहा जा सकता है कि मिस्री तथा सुमेरियन समाज के समान सैंधव समाज में दास प्रथा का अस्तित्व खोजना तर्कसंगत नहीं होगा।
पुराविद फेयर सर्विस ने सैन्धव युगीन उपकरणों एवं तकनीकों में एकरूपता की प्राप्ति को बहुत ही महत्वपूर्ण माना है उनके अनुसार इस काल के नगरों का एक-जैसा विन्यास, उपकरणों की बनावट में विलक्षण समरूपता तत्कालीन समाज में परम्परावादी प्रवृत्ति तथा उसके प्रति गहरी रूढ़िवद्धता को अभिव्यंजित करती है।
इस संदर्भ में आल्विन एवं श्रीमती आल्विन का यह विचार महत्वपूर्ण प्रतीत होता है कि सिन्धुवासी उपकरणों के निर्माण में उपयोगिता तथा मजबूती की ओर विशेष रूचि रखते थे।
फलतः नई-नई कल्पनाशीलता अथवा नवीनता के प्रति उनमें उदासीनता देखने को मिलती है। आल्विन दम्पति ने इस प्रवृत्ति के पीछे सैन्धव वासियों की परम्परावादिता अथवा परलोकवादिता को मूल कारण बताया है।

इस प्रकार सैन्धव संस्कृति में तत्कालीन समाज कई वर्गों में विभक्त प्रतीत होता है। उत्खनन के समय इनके अलग-अलग निर्मित मिले हैं।
इस काल में वर्ण-व्यवस्था का पूर्ण अभाव था।

हड़प्पा के विभिन्न आकार प्रकार के मकानों के आधार पर कुछ विद्वान समाज मे जाति प्रथा के प्रचलित होने का अनुमान करते हैं।

उत्खनन में उपलब्ध बहुसंख्यक नारी अथवा मातृदेवी की मूर्तियों के आधार पर अधिकांश विद्वान इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि सैन्धव समाज संभवतः मातृसत्तात्मक (Matriarchal Society) रहा होगा।

2. खान-पान

सिन्धु उपत्यका कृषि-उत्पादन की दृष्टि से बड़ी उर्वरा थी। हड़प्पा के उतजनन से गेहूँ और जौ के पुरावशेष प्राप्त हुये हैं। इनसे प्रमाणित होता है कि ये दोनों अनाज तत्कालीन लोगों के मुख्य खाद्यान्न रहे होंगे।
लोथल तथा रायपुर उत्खनन के समय मिट्टी के बर्तनों में रखे चावल की भूसी के पुरावशेष प्राप्त हुए हैं, जो यह प्रमाणित करते हैं कि तत्कालीन लोग चावल भी खाते रहे होंगे। हालांकि अभी तक यह तय नहीं हो सका है कि इस क्षेत्र में चावल की नियमित खेती की जाती थी या नहीं।

इसी प्रकार सैंधवकालीन अन्य फसलों में अनार, खरबूजा, केला, नींबू, अंजीर, आम, खजूर, मटर, तिल तथा सरसों को भी भोज्यार्थ उगाया जाता था।
कृषि के अतिरिक्त इस काल में पशुपालन भी विकसित अवस्था में था। अतः लोग दूध तथा इससे बनने वाले पदार्थों का सेवन करते थे।

उत्खनन के समय कहीं-कहीं प्राप्त अर्द्धजलित भालू, हिरण, सुअर, मुर्गी, बत्तख, घड़ियाल, भेड़, बकरी तथा मछली आदि की अस्थियां तथा उनके चमड़े के पुरावशेष-यह इंगित करते हैं कि सैन्धव कालीन लोग भोजन में मांस तथा मछली का भी प्रयोग करते थे।
एक मृद्भाण्ड-खण्ड पर बंहगी पर मछली-वहन करते हुए एक मछुआरे को दर्शाया गया है। इससे तत्कालीन समाज में मछली पकड़ने तथा खाने का पता चलता है।

3. वेशभूषा-

मोहनजोदड़ो से मिले एक रजतपात्र के एक किनारे चिपका हुआ सूती कपड़े का एक छोटा टुकड़ा उपलब्ध हुआ है, जिसे लाल मजीठिया रंग में रंगा गया था। विद्वानों की धारणा है कि उक्त कपड़े का सूत कृषि-उत्पादित कपास से बनाया गया था।

clothes of harappan civilization

अस्तु, सिन्धु संस्कृति के लोग सूती वस्त्र निर्माण तथा प्रयोग के साथ-साथ कपास की खेती का भी ज्ञान रखते थे।
स्टुअर्ट पिगट के अनुसार सैन्धव युगीन सूती वस्त्रोद्योग की संपुष्टि अवान्तर युगीन एतदर्थ प्रयुक्त ‘सिन्धु’ शब्द से भी संकेतित होता है संभवतः ‘सिन्धु’ शब्द से ही यूनानी शब्द ‘सिन्दोन’ भी व्युत्पन्न हुआ है।
विद्वानों की धारणा है कि सिन्धुवासी सूती-वस्त्रों को दूर-दराज के केन्द्रों तक व्यापारार्थ भेजा करते थे। भेड़-बकरियों के पालन के आधार पर यहाँ यह भी अनुमेय है कि इस काल के लोग ऊनी कपड़े भी पहनते रहे होंगे, हालांकि इसके पुरासाक्ष्य अद्यावधि प्राप्त नहीं हुए हैं।

जहाँ तक सैन्धव युगीन परिधान का सम्बन्ध है, ऐसा प्रतीत होता है कि पुरुष उत्तरीय अथवा शाल तथा अधोवस्त्र मोहनजोदड़ो से प्राप्त बहुचर्चित के रूप में पैरों से सटी धोती जैसा कोई वस्त्र पहनते थे। पुरुष मूर्ति को तिपतिया शॉल अथवा उत्तरीय वस्त्र से आच्छादित किया गया है। इसी प्रकार से हड़प्पा से मिले एक मृण्पात्र-खण्ड पर एक पुरुष के अधोभाग को धोती-सदृश वस्त्र से भूषित किया गया है। नारी मूर्तियों में ऊर्ध्वभाग को अधिकतर अनावृत्त ही रखा गया है। परन्तु उनके अधोभाग में घुटनों से किञ्चित् ऊपर तक के अंग को आच्छादित करने वाला घेरदार (घाघरा) वस्त्र प्रदर्शित मिलता है।

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आल्विन दम्पति ने विद्वानों का ध्यान मोहनजोदड़ो से मिली एक मुहर की ओर आकृष्ट किया है, जिस पर उत्कीर्ण कई नारी आकृतियों के अधो अंग को घेरेदार परिधान से आवृत्त दिखाया गया है।
खुदाई में सुईयों के अवशेष से यह पता चलता है कि उनके वस्त्र सिले हुए होते थे।
शारीरिक सौन्दर्य की अभिवृद्धि के लिए सैन्धव युगीन पुरुष तथा नारी दोनों अलंकार-प्रिय लगते हैं।

 पुरुष छोटी-छोटी दाढ़ी तथा हल्की मूंछ रखते थे। कभी-कभी कुछ पुरुष दाढ़ी तो रखते थे किन्तु मूंछ नहीं रखते थे। यथा, मोहनजोदड़ो से प्राप्त प्रस्तर-निर्मित मूंछ विहीन पुरुष मूर्ति । इसके वाल बडे करीने के साथ कढ़े तथा पीछे की ओर फेरे हुए दिखते हैं।

 कभी-कभी ये अपने वालों को एक फीतानुमा बन्धन से बाँधते भी थे। इन फीतों की गांठ प्रायः पुरुष के माथे पर होती थी।
गाँठ किसी गोल अलंकरण से आवृत्त की जाती थी। इस काल की पुरुषाकृतियों में प्रायः सिर के बीचो-बीच मांग पढ़ने की प्रथा देखने को मिलती है।


नारी आकृतियों की केश-सज्जा की रूपरेखा पंखानुमा शीर्ष-परिधान से ढंक जाने के कारण बहुत स्पष्ट नहीं दिख पाती है। कतिपय मुहरों पर अंकित नारी अलकावलियों को जोड़कर संजोकर उसे पीछे की ओर लटकते हुए प्रदर्शित किया गया है।
जूड़ा बनाकर उसे गर्दन की ओर फुलाकर लटकाने की केश-सज्जा तत्कालीन नारियों को सम्भवतः विशेष प्रिय थी।
इससे किंचित भिन्न रूप हमें मोहनजोदड़ो से प्राप्त कांस्य-नर्तकी के केशविन्यास में देखने को मिलती है। इसमें नर्तकी की अलकावली को दो चोटियों में विभक्त तथा उसे कान के बगल फुलाकर लटकते हुये अंकित किया गया है।
सिन्धु सभ्यता के लोग अलंकार-प्रिय थे। यही कारण है कि इस काल के पुरुष तथा नारी दोनों आभूषण धारण करते थे। वे गले तथा हाथों में कई तरह के अलंकरण धारण करने के अतिरिक्त  उंगलियों में अंगूठी तथा कलाइयां में कंगन भी पहनते थे। इसी प्रकार स्त्रियों हाथ, उंगली तथा गले में विविध प्रकार के आभूषणों के अतिरिक्त कटि-प्रदेश में मेखला, कानों में बलय, भुजाओं में कटकावली अथवा चूड़ियों और बाजूबन्द तथा वक्षप्रदेश तक विस्तीर्ण पेण्डुलम-युक्त लम्बी लम्बी कई लड़ियों वाले हार धारण करती थीं।
इसके अतिरिक्त कर्णफूल, हँसुली, कड़ा, अंगूठी, करधनी, आदि आभूषण भी पहने जाते थे।

इन आभूषणों को प्रायः सोना, चाँदी, ताँबा, तथा काँसा आदि धातुओं से निर्मित किया जाता था इनके अतिरिक्त आभूषण-निर्माण में कार्नीलियन, हकीक, राजावर्त, स्टीटाइट, शंख, कैल्सेडनि तथा जेडाइट आदि बहुमूल्य पत्थरों तथा हाथी दांत, हड्डी का भी उपयोग किया जाता था।
हड़प्पा से सोने के 6 लड़ियों का सुंदर हार मिला है। छोटे छोटे सोने तथा सेलखड़ी के मनकों वाले हार भी काफी संख्या में मिले हैं।
मोहनजोदड़ो से मार्शल ने एक बड़े आकार का हार प्राप्त किया है जिसके बीच मे गोमेद के मनके हैं। यहां से कार्नीलियन के मनकों वाला लंबा हार भी मिला है। कांचली मिट्टी, शंख तथा सेलखड़ी की बनी हुई चूड़ियां भी मिलती हैं।

हड़प्पा से सोने का बना एक बड़ा कंगन मिलता है। सोने, चाँदी तथा कांसे की चूड़ियाँ, मिट्टी और तांबे की अंगूठियाँ आदि भी मिलती हैं। श्रृंगार-प्रसाधन की ओर विशेष ध्यान दिया जाता था।
मोहनजोदड़ो की नारियाँ काजल, पाउडर तथा शृङ्गार प्रसाधन की अन्य सामग्रियों से परिचित थीं।
चन्हूदड़ों की खोजों से लिपस्टिक के अस्तित्व का भी संकेत मिलता है। शीशे और कंघी का भी प्रयोग होता था। तांबे के दर्पण, छुरे, कंघे, अंजन लगाने की शलाकायें श्रृंगारदान आदि भी मिले हैं।

खुदाई में घड़े, थालियाँ, कटोरे, तश्तरियाँ, गिलास, चम्मच अदि बर्तन मिलते हैं। वे लोग कुर्सी, चारपाई, स्टूल, चटाई का भी प्रयोग करते थे। नौशारो तथा मेहरगढ़ से प्राप्त मिट्टी की कुछ नारी मूर्तियों की माँग में लाल रंग भरा गया है। स्पष्टतः यह सिन्दूर है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि माँग में सिन्दूर भरने की प्रथा हड़प्पाकालीन है।

चन्हुदड़ो के उत्खनन में गुड़िया अथवा मनका बनाने वाली कर्मशाला प्रकाश में आई है। इन बहुमूल्य पत्थरों के अतिरिक्त फेयन्स (काँचली मिट्टी) से बने शंकाकार विविध आभूषण प्राप्त हुए हैं, जिन्हें शरीर के विभिन्न अंगों के अलंकृत करने में धारण किया जाता था।
सैन्धव पुरास्थलों के उत्खनन में तत्कालीन समाज में प्रसाधन हेतु प्रयुक्त सलाइयाँ, सुरमेदानियाँ तथा विविध प्रकार के रंगों से पुक्त छोटे-छोटे आकर्षक मृत्तिका-खण्ड प्राप्त हुए हैं। इन सात्यों से यह स्पष्ट इंडित होता है कि सिन्धु-निवासी वस्त्र-परिधान, केश-सज्जा, आभूषण-धारण तथा प्रसाधन आदि वस्त्राभूषणों में गहरी रुचि रखते थे।

4. आमोद-प्रमोद

सिन्धु संस्कृति के निवासी बड़े आमोदप्रिय थे। वे विविध साधनों से अपना मनोरंजन किया करते थे।
उत्खनन में उपलब्ध कतिपय मुहरों में अंकित दृश्यांकनों में धनुष-बाण से जंगली पशुओं का आखेट करते हुए आकृतियों को उकेरा गया है।
इस प्रकार की आकृतियों से यह स्पष्ट होता है कुछ मानव कि तत्कालीन वयस्क लोग संभवतः आखेट-प्रेमी थे।
मछली फ़साने के कई कांटे मिलते हैं।
एक मुहर पर तीर से हिरन को मारते हुए दिखाया गया है।

इससे स्पष्ट है कि लोग शिकार में रुचि रखते थे।
मछली फसाना तथा चिड़ियों का व्यापार करना नियमित व्यवसाय था।
बच्चे छोटे-छोटे मिट्टी के खिलौनों के साथ खेला करते थे। नौशारो से मिट्टी की बनी खिलौना गाड़ियों के पहिए बड़ी संख्या में मिलते हैं।

छोट-छोटे झुनझुने, बैलगाड़ियों, सीटों, गेंद की तरह छोटी-छोटी गोलियाँ, सिर हिलाने वाले बैलों की छोटी आकृतियाँ तथा भांति-भांति की चिड़ियों की मृण मूर्तियाँ बच्चों के मनोरंजनार्थ बहुतायत में बनाई जाती।
सिन्धु संस्कृति में बसने वाले लोग चौसर (पासा) खेल के बड़े शौकीन थे। उत्खननों से मिट्टी अथवा प्रस्तर-निर्मित घनाकृति अनेक पासे प्रकाश में आये हैं।

हड़प्पा सभ्यता का पासा

इस काल में लोग पक्षियों को लड़ाने में बड़ी रुचि रखते थे तथा मनोरंजनार्थ उन्हें पालते भी थे। ऐसा प्रतीत होता है कि कुछ सामाजिक उत्सवों पर बालों को दौड़ाना तथा उन्हें एक दूसरे से लड़ाना भी सैन्धव लोगों के मनोरंजन का एक अभिन्न अंग था।
पटलवत पासे अधिकतर हाथी दाँत से बने मिले हैं।
सैंधव निवासी आमोद-प्रमोद के प्रेमी थे। पासा इस युग का प्रमुख खेल था।
हड़प्पा से मिट्टी, पत्थर तथा कांचली मिट्टी के बने सात पासे मिलते हैं।
मोहनजोदड़ो से भी मिट्टी तथा पत्थर के पैसे मिलते हैं।
विभिन्न स्थलों से आजकली के शतरंज की गोटियों से मिलती-जुलती मिट्टी, शंख, संगमरमर, स्लेट, सेलखड़ी आदि की बनी गोटियां भी मिलती हैं।

लोथल से खेलने के बोर्ड के 2 नमूने मिलते हैं। जिनमे से एक मिट्टी तथा दूसरा ईंट का बना है।
विभिन्न स्थलों से पत्थर, सीप, आदि की गोलियां भी मिलती हैं।

हड़प्पा संस्कृति के लोगों को संगीत से बड़ा अनुराग था। मोहनजोदड़ो से मिली नर्तकी की कांस्य-प्रतिमा तथा ऐसी ही कतिपय अन्य मूर्तियाँ तत्कालीन लोगों की नृत्य एवं संगीत-प्रियता को प्रमाणित करती हैं। उत्खननों में प्राप्त कतिपय साक्ष्यों के आलोक में तत्कालीन प्रमुख वाद्ययंत्रों की भी जानकारी मिलने लगी है।


सैन्धव लिपि में कुछ अक्षरों की बनावट बीणा अथवा सारंगी-सदृश लगती है। इसी प्रकार कुछ ताबीजों पर मृदंग अथवा डॉल-जैसी आकृतियां अंकित मिलती है। उत्खनन में एक करताल के आकार का वाद्ययंत्र तया एक मृण्मूर्ति ऐसी प्राप्त हुई है, जिस पर ढोलक का स्पष्ट अंकन मिलता है। पुराविद् मैके तथा कतिपय अन्य विद्वानों की स्पष्ट धारणा है कि सैन्धववासी संगीत कला में नृत्य, गायन तथा वाद्य यंत्रों से अवश्य परिचित थे।
ज्ञातव्य है कि इसी प्रकार के बाद्ययंत्रं के साक्ष्य मेसोपोटामिया के सुंदर नगर के उत्थान से भी प्राप्त हुए हैं।
उपलब्ध साक्ष्यों में प्रायः आखेट के दृश्यांकनों तथा तत्कालीन लोगों द्वारा प्रयुक्त तीर धनुष, कटार, भाला, गदा, तलवार, परशु, मिट्टी की पकी गोलियों के आधार पर यह प्रस्तावित करना समीचीन प्रतीत होता है कि सैन्धव लोग संभवतः आखेट-प्रिय अधिक किन्तु युद्ध-प्रिय कम थे।

अस्त्र- शस्त्र प्रायः तांबा तथा कांसा के बनते थे
अन्य उपकरणों में बरछा, कुल्हाड़ी, बसूली, आरा आदि प्रमुख थे।
उनके नगरों के विन्यास में दर्द अथवा गढ़ी को अलग से बसाया जाना तथा दुर्ग पर सुरक्षा हेतु बुर्ज का निर्माण होना तथा उन पर सुरक्षा प्रहरियों को तैनात किया जाना आदि उनकी युद्धप्रियता को आलोकित करने वाले साक्ष्य प्रतीत होते हैं।

कच्छ की खाड़ी के पच्चम द्वीप में स्थित कुरान (Kuran) नामक गाँव के समीप खुदाई में दो विस्तृत स्टेडियम मिले हैं जिनका उपयोग सामुदायिक बैठकों, सामाजिक कार्यक्रमों तथा खेलकूद जैसे सामाजिक कार्यों के लिये किया जाता था।
भारतीय उपमहाद्वीप में केवल यहीं से स्टेडियम मिलते हैं जो दुर्ग के दक्षिणी छोर पर स्थित आयताकार हैं। इनमें दो प्रवेश द्वार हैं। पहले से दुर्ग तक जाया जाता था जबकि दूसरे से व्यक्ति स्टेडियम में जाता था।
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग की बड़ोदरा की खुदाई शाखा के उत्खननकर्ताओं ने कच्छ की खाड़ी में चार माह के कठिन श्रम के पश्चात् इन्हें खोज निकाला है। अधीक्षण पुराविद् शुब्र प्रामाणिक के अनुसार नि:संदेह यह एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है।
यदि लोथल अपनी गोदीबाड़ा के लिये प्रसिद्ध था तो कुरन क्षेत्र अपने स्टेडियम के लिये।

5. स्त्रियों की दशा-

सैन्धव समाज में स्त्रियों का बड़ा समुद्र था। धार्मिक तथा सामाजिक समारोहों में पुरुषों के समान स्त्रियां भी बराबर भाग लेती थीं। इस काल में विनिर्मित बहुसंख्यक नारी-मृण्मूर्तियों तथा अधिकांश विलक्षण मातृदेवी-रूपों के अंकनों के आलोक में यह सहज अनुमेय है कि सैन्धव समाज मातृसत्तात्मक था। नारियों को इस समाज में बड़ा महत्वपूर्ण तथा आदरणीय स्थान प्राप्त था। इस काल में पर्दा-प्रथा के साक्ष्य नहीं मिलते हैं। नारियाँ शिशुपाल, घर-आंगन का कार्य, सूत काटना तथा ग्रामीण-क्षेत्रों में पुरुषों के साथ कृषि आदि कर्मों में बराबर सहयोग प्रदान करती थीं।

               :-हड़प्पा सभ्यता का धर्म-:

सिन्धु सभ्यता के विभिन्न नगरों के उत्खनन से प्राप्त पुरावशेषों से लोगों के धार्मिक क्रियाओं और श्रद्धा विश्वास के विषय में जानकारी मिलती है।
 सिन्धु सभ्यता के लोगों का भौतिक जीवन धर्म से उसी प्रकार अनुप्राणित था जिस प्रकार प्राचीन भारतीय संस्कृति में धर्म को केन्द्र बिन्दु Jमानकर समस्त सांसारिक कर्तव्यों के निर्वहन का निर्देश किया गया है। सिन्धु सभ्यता के पुरातात्त्विक साक्ष्यों मूर्तियों, मुहरों, विशिष्ट प्रकार के भवनों और चित्रों आदि के माध्यम से. सैन्धव धर्म के विषय में ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है, किन्तु पुरातात्त्विक मौन साक्ष्यों की अपनी सीमाएँ होती हैं। उसी सीमा के अन्दर ही धर्म की व्याख्या की जा सकती है।
 सैंधव लिपि के अपाठ्य होने के कारण धर्म के वास्तविक स्वरूप (सिद्धान्त पक्ष) को समझना कठिन है। पुरावशेषों के आधार पर केवल धर्म के स्थूल स्वरूप (क्रिया पक्ष) पर ही प्रकाश डाला जा सकता है।
  प्रत्येक धर्म के दो पक्ष होते हैं :
 1. क्रिया पक्ष,
2. सिद्धांत पक्ष
     धर्म के क्रिया पक्ष में धार्मिक कर्मकाण्ड, धार्मिक अनुष्ठान एवं धार्मिक विश्वास आते हैं।
 सिद्धान्त पक्ष में उस धर्म की दार्शनिक मान्यताओं का समावेश होता है जिसके ज्ञान के लिए लिखित साक्ष्य अति आवश्यक हैं।
 मार्टीमर हीलर ने ठीक ही कहा है कि “पुरातात्त्विक साक्ष्य धर्म के केवल क्रिया पक्ष पर ही यत्किंचित प्रकाश डाल सकते है। पुरातात्त्विक साक्ष्यों से धर्म के सैद्धान्तिक पक्ष पर कोई प्रकाश नहीं पड़ता है।”
 पुरातात्त्विक साक्ष्यों की दूसरी सीमा यह है कि कभी-कभी पुरातात्त्विक साक्ष्यों के विषय में यह निर्णय करना कठिन हो जाता है कि किसी पुरावशेष का धार्मिक महत्त्व था अथवा लौकिक जैसे सैंधव सभ्यता के पुरास्थलों से प्राप्त मूर्तियाँ पूजा के लिए थीं अथवा उनका कुछ अन्य उपयोग था। सैंधव सभ्यता के पुरातात्त्विक साक्ष्यों का इस दृष्टि से विशेष महत्त्व है कि वे आर्यों के पहले के आर्योतर भारतीय धर्म पर प्रकाश डालते हैं।
उपलब्ध पुरातात्त्विक साक्ष्यों के आधार पर सैंधव धर्म के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डालने का प्रयास किया जा रहा है। मातृ-शक्ति की पूजा, पशुपति के रूप में देव-उपासना, लिंग एवं योनि पूजा, पशु एवं नाग उपासना, वृक्ष पूजा, जल की पवित्रता, मूर्ति पूजा, योग, द्विमुख देवता, देवदासियां आदि सैंधव धर्म के अभिन्न अंग प्रतीत हैं। इनके अतिरिक्त अभिचार एवं परलोकवाद के सम्बन्ध में भी पुरातात्विक साक्ष्यों से कुछ प्रकाश डाला जा सकता है।
सिन्धु सभ्यता के विभिन्न पुरास्थलों के पुरावशेषों में अभी तक किसी पूजा स्थल या मन्दिर का स्पष्ट साक्ष्य नहीं मिला है, किन्तु पुरातत्वविद् मोहनजोदड़ो के कतिपय स्मारकों को धार्मिक गतिविधियों का केन्द्र मानने के पक्ष में हैं।
 ऐसे विशिष्ट स्मारकों में मोहनजोदड़ों के निचले नगर से एक भवन का अवशेष मिला है, जिसमें एक संस्मारकीय द्वार और मंच की ओर जाने के लिए दोहरी सीढ़ियाँ बनी हैं। इसी मंच (चबूतरे) पर 16.5 इंच की एक पाषाण प्रतिमा प्राप्त हुई है। प्रतिमा पुरुष की है, उसके दाढ़ी है और वह हाथों को घुटनों पर रखे हुए है। सिर पर एक पट्टी बंधी है, जिसका दोनों सिरा पीठ की ओर लटका हुआ है इसी भवन में एक अन्य पाषाण प्रतिमा भी मिली है। यही कारण है कि पुरातत्त्वविद् इस भवन को मन्दिर की संज्ञा देते हैं।
    इसके अलावा मोहनजोदड़ो के ‘विशाल स्नानागार और ‘पुरोहित-आवास’ को भी धार्मिक भवन के रूप में देखा जाता है।
सिन्धु सभ्यता में आराधना के लिए लोगों ने पुरुष और नारी दोनों शक्तियों को चुना, क्योंकि सैन्धव पुरावशेषों में पुरुष और नारी दोनों की प्रतिमायें मिली हैं नारी प्रतिमाओं की संख्या अधिक है, जबकि पुरुष प्रतिमाएँ सीमित मात्रा में मिली हैं। अत: संभावना की जा सकती है कि समाज में देवी (नारी) पूजा का प्रचलन अधिक रहा होगा।
नारी प्रतिमाओं के अलावा जो पुरुष प्रतिमाएँ भी मिली हैं, उन्हें भी उपासना के लिए प्रयुक्त किया जाता रहा होगा। देवोपासना के साथ-साथ प्रकृति से जुड़ी शक्तियों वृक्षों, नागों, जल, पशुओं आदि की आराधना से सम्बन्धित प्रमाण भी मिले हैं। उल्लेखनीय है कि मुहरों पर वृक्षों, नागों और पशुओं का अंकन किया गया है, जिनमें अधिकांश का सम्बन्ध विद्वान् उपासना से मानते हैं।

1. मातृदेवी की उपासना:-

    सैन्धव सभ्यता में नारी की मूर्तियाँ सर्वाधिक मिली हैं।
 मूर्तियों के अलावा मुहरों पर भी नारियों का अंकन किया गया है। नारी मृर्तियाँ अधिकांशत: सिन्ध और पंजाब (पाकिस्तान) से मिली हैं। नारी प्रतिमाओं में कमर में करधनी, गले में हार और सिर पर शिरोवेषभूषा प्रदर्शित किया गया है नारी प्रतिमाओं में अनेक प्रकार की केश-सज्जा दिखायी गयी है। मूर्तियाँ प्रायः अर्द्धनग्न हैं। सिन्धु सभ्यता की कतिपय नारी मूर्तियाँ विशिष्ट प्रकार की हैं। ऐसी मूर्तियों में कुछ प्रतिमाओं में नारी को गोद में बच्चा लिए हुए दिखाया गया है।
पुरातत्त्वविद् सिन्धु सभ्यता के नारी प्रतिमाओं का सम्बन्ध मातृ-देवी की उपासना से मानते हैं।
 प्रश्न यह है कि क्या प्रमाण है कि ये पूजापरक मूर्तियां हैं?
यद्यपि कतिपय विद्वान् इसमें सन्देह व्यक्त करते हैं। सिन्धु सभ्यता की कुछ नारी प्रतिमाओं पर धुंये के साक्ष्य मिले हैं। इस संबंध में अर्नेस्ट मैके ने कुछ साक्ष्यों की ओर ध्यान आकर्षित किया है।
नारी अंकनो के साथ साथ उनकी शिरोभूषा के दोनों ओर दीपक जैसी आकृतियां मिली हैं। जलाये जाने के कारण इन दीपको पर कालिख के निशान हैं।  मैके, किरण कुमार थापल्याल आदि विद्वान इन्हें मातृ देवी की पूजा में दीपदान हेतु प्रयुक्त दीपक मानते हैं।
 विद्वानों का अनुमान है कि पूजा के समय जलाये गये दीपक या धूप से मूर्तियों पर धुँये के निशान पड़े होंगे।
उल्लेखनीय है कि दक्षिण भारत के कतिपय नारी मूर्तियों के हाथों में तेल-पात्र निर्मित हैं, जिनमें दीपक जलने से मूर्तियों में धुएं के निशान मिले हैं, किन्तु विद्वान् दक्षिण भारत की इन मूर्तियों को सिन्धु सभ्यता के बाद का मानने के पक्ष में हैं।
    मातृदेवी की उपासना के अन्य साक्ष्यों में मुहरों पर अंकित नारी प्रतिमाओं को परिगणित किया जाता है। शहरों में हड़प्पा से प्राप्त एक मुहर की गणना की जा सकती है, जिस पर लेख उत्कीर्ण है। मुहर के एक ओर शीर्षासन किये एक स्त्री का चित्र है, स्त्री के जननांग से एक पौधा अंकरित होते हुए दिखाया गया है। मुहर के दूसरी ओर एक पुरुष अंकित है, जिसके हाथ में शस्त्र है, और एक स्त्री का अंकन है, जो हाथ ऊपर उठाये हुए है। पुरातत्त्वविदों का अनुमान है कि मातृदेवी की उपासना सम्भवत: बलि द्वारा किये जाने का विधान था। इस मत के विपरीत केदारनाथ शास्त्री इसे मातृदेवी मानने में सन्देह व्यक्त करते हैं। उन्होंने इसे नर्क का अंकन माना है।
 इसी प्रकार अनेक अन्य मुहरें भी प्राप्त हुई हैं, जिनमें स्त्रियों को विभिन्न मुद्राओं में दिखाया गया है। एक मुहर में नारी को स्तनपान कराते हुए प्रदर्शित किया गया है।
 एक अन्य मुहर में नारी के गर्भ से वृक्ष का अंकुरण दिखाया गया है।
 शहरों में पशुओं के साथ भी नारी का चित्रांकन किया गया है।
 एक मुहर में एक नारी का चित्रांकन पीपल की दो शाखाओं के मध्य किया गया है।
 पीपल के वृक्ष के नीचे एक मानव का चित्र है, जो बकरा लिए हुए है। मुहर में नीचे भीड़ का अंकन है। पुरातत्त्वविदों की मान्यता है कि सम्भवत: यह अंकन मातृदेवी की सामूहिक पूजा का प्रतीक है। मातृदेवी की उपासना में सम्भवतः बलि का विधान भी रहा होगा।
इस प्रकार विभिन्न महरों में नारी अंकन के जो साक्ष्य मिले हैं, उनसे सैन्धव सभ्यता में मातृदेवी की उपासना को बल मिलता है।
उल्लेखनीय है कि सैन्धव सभ्यता में मातृदेवी की जो प्रतिमा और मुहरें मिली हैं, वे सभी मिट्टी की हैं, इस आधार पर कतिपय पुरातत्त्वविदों ने निष्कर्ष निकाला है कि मातृदेवी की उपासना का प्रचलन आम जनता में प्रचलित था, यह लोक धर्म के रूप में प्रचलित रहा होगा। मातृदेवी की पूजा को राज्याश्रय प्राप्त नहीं था, अन्यथा पाषाण मूर्तियां भी प्राप्त हुई होती।
 जॉन मार्शल और ह्वीलर के अनुसार मातृदेवी की उपासना सिंधु सभ्यता के देव-मण्डल में प्रमुख मानी जाती थीं इसके विपरीत केदारनाथ शास्त्री प्रमुख देवता के रूप में पीपल के अधिष्ठाता देवता को, जो सींगयुक्त था, मान्यता देते हैं। किन्तु शास्त्री जी के मत से विद्वान् सहमत नहीं हैं।
 ऐसा प्रतीत होता है कि सैन्धव सभ्यता में देवी और देवता दोनों को सम्मान प्राप्त था। समाज में मातृदेवी और पशुपति शिव की उपासना का प्रचलन था, किन्तु यह कहना कठिन है कि मातृदेवी और पशुपति शिव में क्या सम्बन्ध थे?
ज्ञातव्य है कि मतृपूजा की यह परम्परा सम्भवतः आदिम पाषाणकाल में ही उद्भूत हो चुकी थी तथा विश्व की लगभग सभी ताम्राश्म युगीन संस्कृतियों में इसके साक्ष्य प्राप्त हुए हैं।
मेसोपोटामिया, पर्सिया, मध्य एशिया, क्रीट, यूनान, मिस्र, ईरान, टर्की, सीरिया, दक्षिणी बलूचिस्तान की कुल्ली संस्कृति, उत्तरी बलूचिस्तान की जॉब संस्कृति, अफगानिस्तान के मुंडीगॉक आदि देशों की विभिन्न संस्कृतियों में मातृ देवी की पूजा नाना रूपों तथा प्रतीकों में प्रचलित मिलती है। यथा- इनिन्नी, आइसिस, अनाहिता, इश्तर, तथा अदिति आदि।
सैन्धव-युगीन इन उपास्य नारी-मूर्तियों को मार्शल ने महीमाता या पृथ्वी का प्रतिरूप बताया है। वासुदेव शरण अग्रवाल की धारणा है कि इनमें से कुछ नारी-मूर्तियों की पहचान वर्तमान भुइयां अथवा मही माँ देवियों के साथ करना सर्वथा समीचीन प्रतीत होता है।
मातृदेवी का उत्तर कालीन विकास शक्ति, अम्बिका अथवा दुर्गा आदि देवी रूपों में अवलोकित किया जा सकता है। सैन्धव जिन जिन नारी-मूर्तियों के अलग बगल अथवा जननेन्द्रिय से संयुक्त वृक्षों को दिखाया गया है, उनकी पहचान बनदेवी से करना विशेष यौक्तिक प्रतीत होता है। कतिपय मुहरों पर वृक्षादित मातृदेवी अथवा वनदेवी को बकरा अथवा अन्य किसी पशु की बलि ग्रहण करते हुये प्रदर्शित किया गया है।
उपरोक्त साक्ष्यों से स्पष्ट होता है कि सिंधु सभ्यता के बाहर भी मातृशक्ति की उपासना प्रचलित थी। इस सम्बन्ध में पुराविदों की धारणा है कि आद्य ऐतिहासिक काल में मातृशक्ति की उपासना पश्चिम में नील नदी की घाटी से लेकर पूर्व दिशा में सिन्धु नदी की घाटी तक प्रचलित थी।
 मातृदेवी की उपासना के प्रसार में भूमध्यसागरीय मानव प्रजाति का महत्त्वपूर्ण योगदान धा। इस मानव प्रजाति के लोग जैसे-जैसे अपने मूलस्थान से आगे बढ़ते गये, वैसे-वैसे मातृदेवी की उपासना का प्रसार होता गया। यह निश्चित है कि ऋग्वैदिक काल में मातृदेवी की उपासना विशेष लोकप्रिय नहीं थी।
 ऋग्वेद में केवल ऊषा, वाकू एवं अदिति आदि देवियों को छोड़कर, देवों की प्रधानता मिलती है। अतः मातृदेवी की पूजा को आर्येतर उपासना माना जा सकता है।
उल्लेखनीय है कि सैन्धव सभ्यता में मातृदेवी की उपासना के साक्ष्य सिन्ध और पंजाब (पाकिस्तान) से ही प्राप्त हुए हैं। भारतीय गणराज्य के राजस्थान, गुजरात आदि क्षेत्रों के पुरास्थलों से मातृदेवी की प्रतिमा नहीं मिली हैं। हरियाणा का बणावली पुरास्थल एकमात्र इसका अपवाद है जहाँ मातृदेवी (नारी) की दो मृण मूर्तियाँ मिली हैं । राजस्थान और गुजरात के पुरास्थलों कालीबंगा और लोथल के उत्खनन से अग्नि कुंड के साक्ष्य मिले हैं । पुरात्वविदों का अनुमान है कि सम्भवतः इन क्षेत्रों में यज्ञ और बलि का प्रचलन रहा होगा। कुछ भी रहा हो, सैन्धव सभ्यता में मातृदेवी की उपासना का प्रभाव कालान्तर में भारतीय संस्कृति पर भी माना जाता है । यद्यपि वैदिक काल में देवियों का यत्र-तत्र उल्लेख ही मिलता है, किन्तु ऐतिहासिक काल तक आते आते देवी उपासना का प्रचलन अधिक हो गया, जो आज भी समाज में रूप परिवर्तन के साथ प्रचलित है।

2. पशुपति अथवा आराध्य देवता परम पुरुष की उपासना:-

 सिन्धु सभ्यता के लोगों के प्रमुख आराध्य देवता सम्भवतः पशुपति शिव थे।
 मोहनजोदड़ो से मैके द्वारा प्राप्त एक मुहर पर एक तीन मुख वाले पुरुष को चौकी (सिंहासन) पर योग की मुद्रा में बैठा दिखाया गया है। पुरुष के सिर पर सींग है ओर वह लगभग नग्न है। उसके दोनों हाथों में भुजा से कलाई तक कंकन पहने हुए दिखाया गया है। पुरुष के दायों ओर एक हाथी और एक बाघ तथा बायीं ओर एक गैंडा और एक भैंसा का अंकन है। आसन के नीचे दो हिरण बने हैं, जिनमें एक खण्डित है। मुहर पर 7 अक्षरों का एक लेख भी उत्कीर्ण है.जो अभी तक पढ़ा नहीं जा सका है।
मार्शल, डी0 डी0 कोशाम्बी, वासुदेव शरण अग्रवाल, शैलेण्ड तथा ए0 एल0 बाशम आदि विद्वानों ने उसे पशुपति (शिव) का आदिम रूप माना है।
इस संदर्भ में गोपीनाथ राव का विचार है कि उक्त मानवाकृति रुद्र-शिव की ही प्रतीत होती है। उनके अनुसार इसमें संभवतः तीन मुख नहीं, अपितु मूलतः चार मख रहे होंगे। कतिपय विद्वान इसे मानवाकृति ने मानकर पशुमुखाकृति ही मानते हैं तथा इसे पशुपति (शिव) का पूर्व रूप मानने से इन्कार करते हैं।
ऐसे विद्वानों में सैलेटर, के० एन० शास्त्री, हेमचन्द्र राय चौधरी तथा भगवत शरण उपाध्याय आदि उल्लेखनीय हैं।
   केदारनाथ शास्त्री के अनुसार यह महिष सिर का देवता है।
 एच० सी० राय चौधरी का मत है कि मुहर के अंकन में शिव के वाहन नंदी का अभाव है, अत: यह शिव का रूप नहीं हो सकता।
इस प्रसंग में विद्वानों का एक बड़ा वर्ग ऋग्वैदिक युग में शिव के विशेष लोकप्रिय देवता के रूप में निरूपित न किये जाने के कारण यह प्रतिपादित करता है कि सिन्धु सभ्यता में पशुपति शिव को पुरुष देवता के रूप में पूजा जाता था तथा शिव का उक्त अलौकिक रूप विशेष लोकप्रिय भी रहा होगा।
 पशुपति शिव की मुहर के अलावा मोहनजोदड़ों से दो अन्य मुहरें भी मिली हैं, जिनसे देव पूजन का संकेत मिलता है। एक मुहर पर देवता को योग-मुद्रा में चौकी पर बैठा दिखाया गया है। पुरुष (देवता) के दोनों हाथ फैले हुए हैं, जिनमें कंकन पहने हुए है। इसके तीन मुख हैं, सिर पर सींग से युक्त मुकुट धारण किये हुए हैं। देवता के सिर पर पीपल को टहनी से अलंकरण किया गया है।
 मोहनजोदड़ो से प्राप्त एक अन्य मुहर में भूमि पर बैठे हुए एक पुरुष-आकृति का अंकन है। इसमें एक मुख ही दर्शाया गया है। मूर्ति के सिर से एक वनस्पति को अंकुरित होते हुए दिखाया गया है।
 इसी प्रकार मोहनजोदड़ो की एक अन्य मुहर में योग मुद्रा में बैठी हुई मानवाकृति के आस-पास एक-एक पुरुष खड़े हैं, जो हाथ जोड़े हुए हैं। इन पुरुषों के पीछे फनधारी सर्प का अंकन है।
    मोहनजोदड़ो के अलावा हड़प्पा से भी ऐसी मुहरें प्रकाश में आयी हैं, जिससे सैन्धव धर्म पर प्रकाश डाला जा सकता है। हडप्पा की एक मुहर में एक देवता का अंकन है। देवता को सिर पर तीन पंखों को धारण किये दिखाया गया है। उसके हाथों में भुजबन्ध है।
इसी प्रकार की कुछ अन्य मुहरें हडप्पा और कालीबंगा से भी प्राप्त हुई हैं। कालीबंगा की एक मुहर में एक पुरुष को खड़ा प्रदर्शित किया गया है. जिसके सिर पर सींग का अंकन है। दूसरी और एक पुरुष द्वारा एक पशु को रस्सी में बाँध कर ले जाते हए दिखाया गया है। पुरातत्त्वविदों की मान्यता है कि सींग वाला पुरुष सम्भवत: शिव का प्रतीक है जबकि दूसरी तरफ पशु-बलि का अंकन किया गया है।
   इस प्रकार उपरोक्त साक्ष्यों के आलोक में कहा जा सकता है कि शिव के विभिन्न रूपों की उपासना सिन्धु सभ्यता में होती रही होगी, जिनका अंकन भिन्न-भिन्न मुहरों में मिला है।

3. द्विमुख देवता:-

मोहनजोदड़ो में मिट्टी की बनी हुई एक मूर्ति मिली है। अभाग्यवश इसके गले के नीचे का भाग टूट गया है। अब केवल गले के ऊपर का शीर्ष भाग ही अवशिष्ट है। इस भाग में मूर्ति के दो मुख हैं। यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि यह द्विमुख देवता कौन है।

4. देवदासियाँ:-

मोहनजोदड़ो में एक नर्तकी की मूर्ति मिली है। वह नग्न रूप में नृत्य करती हुई सी लगती है। अपने गले और हाथों में वह आभूषण धारण किये है। कुछ विद्वानों का मत है कि वह देवदासी की मूर्ति है।

5. लिंग पूजा:-

सिंधु सभ्यता के विभिन्न पुरास्थलों– हड़प्पा, मोहनजोदड़ो तथा लोथल आदि से कतिपय पुरावशेष ऐसे प्राप्त हुए हैं, जिन्हें पुरातत्वविद लिंग की संज्ञा देते हैं।
हड़प्पा संस्कृति के लोग लिंग-सदृश प्रस्तर-आकारों के उपासक प्रतीत होते हैं, जो इस काल के लगभग सभी पुरास्थलों से बहुतायत में प्राप्त हुये हैं।
 इस प्रकार की लिंगाकृतियाँ साधारण पत्थर के अतिरिक्त लाल पत्थर, नीले सैंडस्टोन, चीनी मिट्टी, सीप, फियान्स, कांचली मिट्टी, शंख, मृत्तिका (मिट्टी) तथा हाथीदांत आदि से भी बनाई जाती थीं।
 ये दो प्रकार के हैं।
1) फैलिक और
 2) बीटल्स,
प्रथम प्रकार के ‘फैलिक’ लिंगों का शीर्षभाग गोल है अर्थात वर्तुलाकार।
 परन्तु द्वितीय प्रकार के बीटल्स लिंगों का शीर्ष भाग नुकीला है अर्थात शंक्वाकार।
 इन आकारों के आधार पर अधिकांश विद्वान यह मानते हैं कि सिन्धु संस्कृति के अधिकांश लोग लिंगोपासक थे। लिंगाकृतियों को शिव की सृजनात्मक शक्ति का प्रतीक माना जाता है तथा शिवोपासना-परम्परा में अद्यावधि इस प्रकार की पूजा का बहुत महत्वपूर्ण स्थान है अर्थात कालांतर में विकसित हिन्दू धर्म मे लिंग व योनि की पूजा को काफी महत्व पूर्ण स्थान प्राप्त हुआ और शिव उपासना के साथ लिंग पूजा से संबंध जुड़ा।
 सैन्धव पुरावशेषों मे कोई-कोई लिंग इतने छोटे हैं कि उन्हें जेब में रख कर एक स्थान से दूसरे स्थान को वडी सरलतापूर्वक ले जाया जा सकता है। इनके विरुद्ध कोई कोई लिंग 4 फीट तक ऊँचे हैं।
 विद्वानों की धारणा है कि संभवतः बड़े लिंग आकार को किसी जगह स्थापित कर उसे पूजने की परम्परा रही होगी तथा लघु आकारों को लोग अपने पास दैनिक पूजा-हेतु रखते रहे होंगे या ताबीज में रखकर पहनते रहे होंगे।
ऐसा प्रतीत होता है कि छोटे-छोटे लिंग सिन्धु निवासी सदैव अपने साथ रखते थे। यह कल्याणकर समझा जाता होगा। रामायण का उल्लेख है कि रावण जहाँ कहीं भी जाता था वहाँ अपने साथ शिव-लिंग ले जाता था।
उत्खनन में कतिपय रक्षा-बीटिकाएँ C शरीर पर रक्षा-सूत्र के सहारे ताबीज की तरह उपयोग में आने वाली (लिंगाकृतियां) भी प्राप्त हुई हैं, जिनसे सैन्धव समाज में लिंगोपासना की व्यापक लोकप्रियता पर प्रकाश पड़ता है।
 यहाँ यह उल्लेखनीय है कि कुछ विद्वान ऋग्वेद में ‘शिश्नोपासकों की भर्त्सना का प्रश्न उठाकर यह प्रमाणित करना चाहते हैं कि आर्य लिंगोपासकों से घृणा करते थे तथा उन्हें अपना विरोधी शत्रु शिश्नदेवाः कहते थे।
 परन्तु इस सन्दर्भ में सायण का भाष्य वक्ष्यमाण है जिसमें शिश्नोपासना को गर्हित नहीं कहा गया है बल्कि इस शब्द से ऐसे व्यक्तियों की ओर संकेत किया गया है, जो लिंगोपासक नहीं बल्कि अब्रह्मचारी थे। अस्तु, ऋग्वेदोक्त ‘शिश्नोपासकों’ को ‘लिंगोपासकों से पृथक् समझना ही समीचीन प्रतीत होता है। इसकी संपुष्टि महाभारत के इस कथन से होती है जिसमें शिव को ही वह परमदेव कहा गया है जिनकी लिंगाकार देवता के रूप में पूजा की जाती है।
यहाँ यह समझ लेना चाहिए कि लिंग-पूजा सिन्धु-प्रदेश के अतिरिक्त मिस्र, यूनान और रोम इत्यादि प्राचीन देशों में भी प्रचलित थी हिन्दू-धर्म में लिंग-पूजा कदाचित् सिन्धु-निवासियों की देन है। ऋग्वेद में लिंग-पूजा अथवा शिश्नपूजा का एक-आध बार उल्लेख अवश्य हुआ है, परन्तु वहाँ वह आर्यों की ही पूजा प्रकट होती है।
पुरातत्त्वविदों ने उपरोक्त पुरावशेषों के आधार पर सिन्धु सभ्यता में लिंग एवं योनि पूजा का समर्थन किया है, यद्यपि प्रसिद्ध पुरातत्त्ववेत्ता एच० डी० सांकलिया इस मत से सहमत नहीं हैं। उनका मत है कि सिन्धु सभ्यता के लिंग एवं योनियाँ गलियों और नालियों में पड़े मिले हैं, यदि इनका प्रयोग धार्मिक रहा होता, तो इन्हें पूजा स्थलों या कमरों में स्थापित मिलना चाहिए था। जॉर्ज एफ डेल्स का भी ऐसा ही मत है।
ऐसा प्रतीत होता है कि सिन्धु-प्रदेश में प्राप्त समस्त लिंग-पूजा के उपकरण न थे। उनमें से कुछ, जिन्हें हम लिंग समझ वैठे हैं मूसल, लोढ़ा वट्टे हो सकते हैं। इनसे सिन्धु-निवासी कूटने-पीसने का काम लेते होंगे।
 मैके महोदय की यही धारणा है। कुछ तथाकथित लिंगों के निचले भाग घिसे हुए मिलते हैं। सम्भवतः कूटने-पीसने के कारण ही उनमें यह घिसान आ गई थी। कुछ अन्य छोटे ‘लिंग’ ताबीज अथवा पाँसे भी हो सकते हैं।
उपरोक्त विवेचन से यह कहा जा सकता है कि  लिंग पूजा का प्रचलन सिन्धु सभ्यता में था अथवा नहीं, यह सन्देहास्पद हो सकता है, किन्तु भारतीय संस्कृति के ऐतिहासिक युग में लिंग-योनि पूजा का पूर्ण विकास दिखायी पड़ता है, जिसका सम्बन्धु शैव धर्म से है, यद्यपि वैदिक साहित्य में लिंग पूजा की निन्दा की गयी है, किन्तु इसका प्रचलन आज भी समाज में देखा जाता है।

6. योनि पूजा:-

सिन्धु-सभ्यता ने उत्खनन के समय बहुसंख्यक गोलाकार छल्ले उपलब्ध हुए हैं। विद्वानों ने इनकी पहचान सृजन की अधिष्ठात्री देवी से किया है।
अधिकांश विद्वान इन छल्लों को योनियां मानते हैं।। उनका मत है कि सिंधु निवासी लिंग पूजा के साथ साथ योनि पूजा भी करते थे।
भारत वर्ष के अनेक स्थानों पर मौर्य काल के बने हुए ही छल्ले मिले हैं।
 योनि आकार के इन छल्लों को पत्थर, मिट्टी, चीनी मिट्टी, सीप, शंख तथा कार्नेलियन आदि से बनाया गया है।
 सामान्तयता इन छल्लों का व्यास 1.27 से० मी० से 1.21 मीटर तक प्राप्य है। सर्वप्रथम इस प्रकार के चक्र या छल्ले आरेल स्टाईन को बलूचिस्तान में पेरियानोघुण्डई नामक पुरास्थल से प्राप्त हुए थे।
मैके आदि पुरातत्वविदों के अनुसार इस कोटि के सभी छल्लों को योनि-मूर्ति नहीं माना जा सकता है। इनमें कुछ आकृतियाँ सैन्धव स्थापत्य में निर्मित स्तम्भों का आधार-भाग प्रतीत होते हैं।
इनके ऊपर स्तम्भ खड़े किए थे। स्तम्भ तो नष्ट हो गए, परंतु उनके आधार ये छल्ले आज भी बहुसंख्या में पाये जाते हैं।
 इसी प्रकार हेनरी कालिन्स यह मानते हैं कि इन प्रस्तर-छल्लों को स्तम्भ-शीर्ष को अलंकृत करने के लिए उपयोग में लाया जाता रहा होगा।
 इधर कुछ विद्वान पुरास्थलों से प्राप्त छोटे छल्लों को सैन्धव युगीन मुद्रा (सिक्कों) का प्रतिरूप मानने लगे हैं। परन्तु इस प्रकार की धारणा को तर्कसंगत मानने में बड़ी कठिनाइयाँ प्रतीत होती है क्योंकि अवान्तर युगों में उक्त चक्रवत् आकृतियों को योनि-पूजा का प्रतीक माना गया है।
 रोपड़, तक्षशिला, अहिच्छत्र, पाटलिपुत्र तथा मथुरा आदि पुरास्थलों से उत्खनन के समय अनेक ऐसे छल्ले अथवा चक्राकृतियां मिलती हैं, जिन पर नग्ननारी आकृतियां अंकित हैं।
 ये आकृतियां मातृदेवी की प्रतीक मानी जाती हैं। अस्तु, सैन्धव कालीन लोग योनि-आकार के छल्लों को मातृदेवी की उपासना के लिए उनकी सृजनशक्ति के प्रतीक रूप में पूजा करते थे।

7. नागोपासना:-

सिन्धु संस्कृति से उपलब्ध मृद्भाण्डों पर यत्र तत्र नागों के चित्र अंकित मिलते हैं।
 इसी प्रकार इस काल की एक ताबीज पर एक नाग को बैठा हुआ दिखाया गया है। एक मुहर पर योगासन-मुद्रा में बैठी पुरुषाकृति के दोनों ओर एक-एक नाग तथा सामने दो नागों को अंकित किया गया है। सैन्धवयुगीन ऐसी ही एक मुद्रा पर एक व्यक्ति को नाग की पूजा करते हुए प्रदर्शित किया गया है। इन पक्षियों के आलोक में विद्वानों की धारणा है कि सिन्धु संस्कृति के लोग नागों की पूजा करते थे। पुराविद् मैके का अनुमान है कि इस संस्कृति के लोग अरिष्ट-निवारण हेतु चबूतरे पर नाग को दूध पिलाया करते थे। भारत में नाग पूजा की परंपरा शिल्पांकनो में बहुशः मिलती है। नागोपासना कि परम्परा आज भी भारतीय समाज मे प्रचलित है।

8. वृक्ष पूजा:-

वृक्षों को देवता के रूप में मानने और पूजने की परम्परा बड़ी प्राचीन है। हड़प्पा संस्कृति के पुरावशेषों तथा मुहरों पर अंकित वृक्षों से तत्कालीन समाज में वृक्षों के प्रति अनुरक्ति तथा उनकी धार्मिक महत्ता का पता चलता है।
 उपलब्ध पुरासाक्ष्यों के आधार पर हड़प्पा संस्कृति में हमें वृक्ष-पूजा के दो रूप मिलते हैं। प्रथम वास्तविक वृक्ष की पूजा-पद्धति, जिसके सर्वाधिक मुद्रा-साक्ष्य हड़प्पा पुरानगर से प्राप्त हुए हैं।
द्वितीय रूप में वृक्ष की सीधे पूजा न होकर उसके प्रतीकात्मक अधिदेवता की उपासना पर बल मिलता है, जिन्हें मोहनजोदड़ो से मिली कतिपय मुहरों पर उकेरा गया है। इस रूप में वृक्ष देवी या देवता को बीच में नन अवस्था में खड़ा किया गया है तथा उनके दोनों ओर पीपल वृक्ष की शाखाओं को अंकित किया गया है।
मोहनजोदड़ो से प्राप्त हुए उक्त मुहर में प्रदर्शित वृक्षदेवी के सिर पर तिकोनी शिरोभूषा है तथा पीछे की तरफ एक लम्बी चोटी लटका दी गई है। उसके सामने लगभग उसी वेशभूषा में एक अन्य मानवाकृति हाथ जोड़कर वृक्षदेवता ( देवी) की पूजा में रत है तथा सबसे नीचे 7 नारी मानव आकृतियां मूर्तित की गई हैं, किन्तु कुछ विद्वान वृक्ष-देवी की पुजारिन मानते हैं।
 इसी प्रकार एक अन्य मुहर में दो पशु-आकृतियों के संयुक्त गले वाले भाग एक वृक्ष को अंकुरित होता हुआ दिखाया गया है।
 वृक्षोपासना की प्रतीक ऐसी अनेक मुहरें मोहनजोदड़ो के अतिरिक्त अन्य सैन्धव पुरास्थलों से भी मिली हैं। इनमें से एक मुहर पर पीपल वृक्ष देवता के पूजन की मुद्रा में किच्चित् आगे की ओर झुकी हुई एक उपासिका को प्रदर्शित किया गया है, जिसकी लम्बी-लम्बी अलकावलि हैं तथा जिसके बगल में पीछे की ओर एकशृंगी वृषभ-शावकों की संयुक्त मृण्मूर्ति अंकित की गई है।
मार्शल सहित कतिपय विद्वान इन्हें अश्वस्थ (पीपल) वृक्ष-देवता का वाहन मानते हैं। सैन्धव मृद्भाण्डों पर भी वृक्षों का अंकन मिलना इनकी धार्मिक महत्ता को अभिव्यक्त करता है। वृक्ष देवता (देवी) के रूप में यक्षिणियों को दिखाए जाने की परम्परा शुंग-युगीन भरहुत तथा सांची स्तूप-शिल्प में भी पाई जाती है। वृक्ष-पूजा की परम्परा वर्तमान भारतीय समाज में भी पर्याप्त प्रचलित है।

9. पशु-पक्षी-पूजा:-

 सिन्धु घाटी संस्कृति के निवासी वृक्ष पूजा की ही तरह पशुपक्षी-पूजा में भी विश्वास करते थे। प्राप्त पुरावशेषों में सर्वाधिक अंडे हमें पशु-आकृतियों की ही देखने को मिलती है। यहाँ दो तरह की पशु-आकृतियाँ अंकित मिलती हैं।
प्रथम कोटि में उन पशु-पक्षी आकृतियों को रखा जा सकता है, जिन्हें हम वास्तविक जगत में प्रायः देखते हैं। दूसरी कोटि में उन काल्पनिक पशुओं को मूर्तित पाते हैं, जिनको तत्कालीन धार्मिक आस्था ने परिकल्पित किया था, किन्तु वास्तविक जगत में वे अदृश्य रहे हैं।
इस काल की उपलब्ध मुहरों, मुद्रांकनों, मृद्भाण्डों तथा उपकरणों आदि पर बने वास्तविक पशु-पक्षियों में वृषभ, महिष, गज, गैंडा, व्याघ्र, बन्दर, मगर, मछली, नेवला, गिलहरी, कछुआ, वृश्चिक, साँप, मुर्ग, मोर, कबूतर तथा बत्तख आदि को परिगणित किया जा सकता है।
 इसी प्रकार इस काल के प्रमुख काल्पनिक पशुओं में अजश्रृंगी देवता, एकशृंगी वृषभ, उलूकशीर्षी बकरा, शृंगयुक्त व्याघ्र, त्रिशिरा पशु, पक्षी मुख मगर तथा तीन परस्पर संयुक्त व्याघ्र आदि आकृतियाँ उल्लेखनीय हैं। इन काल्पनिक पशु-पक्षियों की सही व्याख्या तो इन मुहरों पर उत्कीर्ण लिपि के उपरान्त ही किया जा सकता है। फिर भी, इनकी अलौकिक आकृति-रचना में यह अवश्य प्रतिभाषित होता है कि ये मानवेतर शक्तिशाली देव अथवा दानव शक्तियों के प्रतीकांकन प्रतीत होते हैं तथा लोग इन पशुओं की पूजा करके अपनी भौतिक सुख-शान्ति की कामना करते थे तथा अरिष्ट निवारण का तोष प्राप्त करते थे।

10. प्रतीकोपासना:-

सैन्धव संस्कृति की मुहरों पर कतिपय ऐसे मांगलिक प्रतीक अंकित मिलते हैं, जिनसे तत्कालीन समाज में विभिन्न देवों की प्रतीकोपासना का आभास मिलता है। इन प्रतीकों में सर्वाधिक उल्लेखनीय हैं- स्वस्तिक, पीपलपात, चक्र, स्तम्भ, स्नान कुण्ड तथा क्रास के चिन्ह आदि। इनके आधार पर तत्कालीन समाज में प्रचलित निम्न देवों की प्रतीकोपासना परिकल्पित की जा सकती है –

(i) सूर्य-पूजा:-

 सिन्धु घाटी संस्कृति की ऐसी अनेक मुहरें मिली हैं, जिन पर स्वस्तिक तथा चक्राकार आकृतियाँ बनी हुई हैं। के० एन० शास्त्री प्रकृति विद्वान इन चिन्हों को सूर्य देव का प्रतीक मानते हुए तत्कालीन समाज में सूर्य-पूजा-परम्परा के व्यापक प्रचलन को स्वीकार करते हैं।
 ज्ञातव्य है कि विश्व की अन्य ताम्राश्म संस्कृतियों में भी सूर्य-पूजा बड़ी लोकप्रिय थी।
सैन्धव मुहरों पर स्वस्तिक को बामावर्त्त तथा दक्षिणावर्त दोनों तरह से अंकित किया गया है, जो सूर्य की गतियों के सूचक माने जा सकते हैं। सूर्य के आकार को अभिव्यंजित करने वाले अन्य प्रतीकांकनों में चक्र तथा क्रास-चिन्हों को भी महत्वपूर्ण माना जा सकता है।
ऐसी ही एक मुहर पर एकशृंगी पशु के सम्मुख एक ऐसी गोलाकृति अंकित मिलती है, जिससे किरणें प्रस्फुटित होती हुई सी जान पड़ती हैं।

(ii) जल पूजा अथवा जल की पवित्रता:-

सिन्धु संस्कृति के निवासी जलाशय तथा स्नान शालाओं के निर्माण में विशेष अनुरक्ति रखते थे।
 कुछ विद्वानों ने स्नान के लिए बने तत्कालीन बड़े-बड़े स्नानागारों को तथा उनमें सामूहिक स्नान को जल देवता की पूजा का प्रतीक माना है।
 भारत में ही नहीं, वरन विश्व की अनेक संस्कृतियों में जल देवता की परिकल्पना मिलती है। सिन्धवासियों का स्नान-विधान अथवा जल से अधिक सान्निध्य रखना केवल उनको स्वच्छता-भावना को ही अभिव्यंजित नहीं करता, अपितु तत्कालीन जनमानस में जल-पूजा की परम्परा को भी अभिव्यक्त करता है।
मोहनजोदड़ो से प्राप्त विशाल स्नानागार, जिसका विस्तृत वर्णन ऊपर किया जा चुका है, इसका प्रबल प्रमाण है।
स्नानकुण्ड के अतिरिक्त कोई अन्य ऐसा प्रमाण नही मिला है जिससे यह प्रमाणित हो सके कि सिंधु सभ्यता के लोग जल की पूजा करते थे।
परंतु सिर्फ इस साक्ष्य के आधार पर जॉन मार्शल ने यह अनुमान लगाया है कि सैंधव सभ्यता के लोग जल पूजा और सम्भवतः सरित पूजा किया करते थे।

11. मूर्ति पूजा:-

सिन्धु सभ्यता के किसी भी पुरास्थल से उत्खनन से अभी तक किसी देवालय के स्पष्ट साक्ष्य नहीं मिले हैं। हड़प्पा के टीलों के उत्खनन से इस तरह का कोई साक्ष्य नहीं मिला है।
 मोहनजो-दड़ो के दो-तीन भवनों को हीलर देवालय मानने के पक्ष में हैं। मोहनजो-दड़ों के दुर्ग-टीले पर जहाँ कुषाण-काल में एक स्तूप का निर्माण किया गया था, देवालय माना जा सकता है।
 कुछ विद्वानों की ऐसी धारणा है कि यहाँ पर काष्ठ-निर्मित एक देवालय रहा होगा, जो नष्ट हो गया।
विशाल स्नानकुण्ड के उत्तर-पूर्व में एक अन्य महत्त्वपूर्ण तथा 83 मीटर लम्बे एवं 24 मीटर चौड़े एक विशाल भवन की रूपरेखा मिली है। इसमें 10 मीटर वर्ग के आकार का एक खुला हुआ आँगन था जिसके साथ ही तीन बरामदे थे। पकी ईंटों से बने हुए फर्श वाले छोटे आकर के कतिपय कमरे इस भवन में थे।
 ई.एच. मैके नामक विद्वान् का अनुमान है कि यह भवन संभवतः पुरोहित के आवास के लिये प्रयुक्त होता रहा होगा।
मोहनजोदड़ो के दुर्ग के दक्षिण में 750 वर्ग मीटर के आकार के एक विशाल कक्ष (हॉल) की रूपरेखा मिली है जिसकी छत बीस स्तम्भों पर टिकी हुई थी। इसमें पाँच-पाँच स्तम्भों की चार पंक्तियाँ थीं। इस कक्ष के धार्मिक समारोह आदि के अवसर पर उपयोग की संभावना प्रकट की गई है।
कुछ विद्वानों का ऐसा सुझाव है कि सिंधु सभ्यता में मंदिर नहीं बनाये गए थे। देवी-देवताओं की पूजा खुले स्थानों पर की जाती थी। धूप-दीप, पुष्प, पशु-बलि और सम्भवतः यदा कदा मानव-बलि द्वारा पूजा की जाती थी।
 राजस्थान में स्थित कालीबंगा और गुजरात में विद्यमान लोथल नामक पुरास्थलों के उत्खनन से अग्निकुण्ड और अग्निवेदिकाएँ उपलब्ध हुई हैं। कालीबंगा के दुर्ग पर जो अग्नि-कुण्ड मिले हैं उनमें पशुओं की हड्डियाँ, सींग एवं राख मिली हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि राजस्थान और गुजरात के क्षेत्रों में अग्नि-पूजा तथा यज्ञ का प्रचलन था।
सैंधव सभ्यता में मूर्ति-पूजा प्रचलित थी, इसके उदाहरण मोहनजो-दड़ो से प्राप्त एक मुहर पर अंकित देवता की आकृति एवं देव प्रतिमाओं के साथ ही साथ अनेक सधव पुरास्थलों से उपलब्ध मातृदेवी की मृण्मूर्तियाँ हैं।
ऋग्वेद में प्रतिमा पूजा का कोई स्पष्ट साक्ष्य नहीं मिलता है। ऋग्वेद की एक ऋचा जिसका अर्थ है कि,”कौन मेरे इस इन्द्र को 10 गायों में खरीद सकता है,” के आधार पर कतिपय विद्वानों ने इन्द्र की प्रतिमा की पूजा का अनुमान लगाया है। यहाँ पर इन्द्र का अर्थ इन्द्र की मूर्ति से हो सकता है परन्तु दस गायों से इन्द्र को खरीदने की बात का तात्पर्य दस गायों से इन्द्र की कृपा प्राप्त करने से भी हो सकता है। अतः ऋग्वैदिक काल में इन्द्र की प्रतिमा बनती थी अथवा नहीं, यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता है।
प्राचीन भारत में कालान्तर में विकसित होने वाली मूर्ति-पूजा में भी सैंधव सभ्यता का प्रभाव माना जा सकता है जो वर्तमान समय तक प्रचलित है।

12. योग:

प्राचीन भारत में योग की परम्परा का धार्मिक महत्त्व रहा है। योग की यह परम्परा कहाँ से आई इस प्रश्न पर विचार करते हुए विद्वानों ने यह कहा कि ऋग्वेद में योग की मुद्राओं का कोई साक्ष्य नहीं मिलता है। अतः योग की परम्परा को आर्येतर लोगों की देन माना जा सकता है।
 इस सम्बन्ध में सिन्धु सभ्यता के पुरातात्त्विक साक्ष्य महत्त्वपूर्ण हैं। मोहनजो दड़ो से प्राप्त एक मुहर में एक पुरुष की आकृति पद्मासन मुद्रा में है। पद्मासन योग की एक मुद्रा है।
 योग की एक दूसरी मुद्रा का अंकन मोहनजोदड़ो से उपलब्ध पत्थर की एक मूर्ति में मिलता है जिसमें आधी खुली आँखें नासिका के अग्रभाग पर केन्द्रित हैं। इस मुद्रा को ‘शाम्भवी मुद्रा’ से सम्बन्धित किया जा सकता है जिसका वर्णन परवर्ती प्राचीन भारतीय साहित्य में इस प्रकार मिलता है : ‘अन्तर्लक्ष्यं बहिर्दृषिः निमेषोन्मेष वर्जितः ।’
कहने का तात्पर्य यह कि योग के क्रिया-पक्ष की कुछ मुद्रा का पूर्व रूप हमें सैंधव सभ्यता में प्राप्त होता।

13. धार्मिक निष्ठा एवं प्रथाएं:-

सिन्धु संस्कृति के लोग बहुदेववादी होने के साथ ही साथ उनकी मूर्ति-पूजा में भी गहरी निष्ठा रखते थे।
 इनमें परम पुरुष (पशुपति शिव), मातृ देवी, (नारी मूर्तियाँ), विलक्षण पशु-पक्षी, वृक्ष, जल, नाग आदि देवी-देवताओं का विस्तार से उल्लेख ऊपर किया गया है।
प्रस्तुत सन्दर्भ में केवल यह स्पष्ट करना अभीष्ट प्रतीत होता है कि सिन्धुवासी केवल साकार देवोपासना में ही विश्वास नहीं रखते थे बल्कि वे प्रतीकों के माध्यम से निराकारोपासना में भी पर्याप्त अनुरक्त थे।
 उत्खनन के परिणामस्वरूप उपलब्ध कतिपय प्रतीकांकन, यथा स्वस्तिक, चक्र, क्रास, पीपल-पत्र, वृक्ष, लिंगाकृतियाँ, योनि-प्रतीक छल्ले, सींग तथा अलौकिक पशु-पक्षी आदि तत्कालीन समाज में प्रचलित निराकारोपासना को इड्गित करते हैं।
इनके अतिरिक्त तत्कालीन सामाजिक जनों में विविध प्रकार के विश्वास भी दृढ़ हो चुके थे, जिनमें ‘पबित्र अवसरों पर दीपदान, धार्मिक स्त्रान, पशु-वलि, ताबीज-धारण’ मृतक-संस्कार आदि विशेष उल्लेखनीय हैं।
 सैन्धव पुरास्थलों से मन्दिर निर्माण के अवशेष नहीं मिले हैं। अस्तु, इस काल में मन्दिर स्थापत्य तथा उनमें मूर्ति-स्थापना एवं पूजा की परिकल्पना निराधार लगती हैं। परन्तु इस काल के लोग मूर्ति-पूजक अवश्य थे वे जादू, टोना, टोटका, भूत-प्रेत अथवा दानवी शक्तियों में भी विश्वास करते थे। इन दुरात्माओं से बचाव के लिए वे ताबीज भी धारण करते थे। सैन्धवयुगीन मानव संभवतः योग-साधना से भी परिचित था। मार्शल ने मोहनजोदड़ो से प्राप्त दाढ़ीयुक्त, नासाग्रदृष्टि-संपन्न तथा अर्द्ध निमीलित नेत्र-युक्त एक बहुचर्चित पुरुषाकृति की ओर विद्वानों का ध्यान आकृष्ट किया है।
अधिकांश विद्वान इस पुरुष को योगस्थ मुद्रा में अंकित मानकर सैन्धव समाज में योग-साधना के प्रचलन को स्वीकार किया है। इसी प्रकार सिन्धु संस्कृति में प्रचलित मृतक-संस्कार से भी तत्कालीन समाज में बहुशः मान्य परलोकवाद की संपुष्टि होती है।

14. पूजा विधियां:-

स्नान कुंड, स्नानघर और कुँओं के अस्तित्व से ऐसा अनुमान किया जाता है कि पूजा अथवा धार्मिक कर्म के पूर्व शारीरिक शुद्धि आवश्यक समझी जाती थी।
 पूजा में धूप-दीप का भी प्रयोग होता था खुदाई में मातृदेवी की कुछ मूर्तियाँ मिलती हैं। उनके ऊर्ध्वभाग में दीपक भी बने हैं।
 अनेक मुद्राओं और मूर्तियों में नर्तक और नर्तकी दिखाये गये हैं।
हड़प्पा से एक मुद्रा प्राप्त हुई है जिसमें एक समारोह का दृश्य है। मनुष्यों के झुण्ड के बीच में एक मनुष्य ढोल बजा रहा है।
दूसरी मुद्रा में एक स्त्री ढोल को अपने बगल में दबाये है। एक मुद्रा पर एक मनुष्य ढोल बजा रहा है और उसके सम्मुख कुछ अन्य मनुष्य नृत्य कर रहे हैं। कहीं कहीं वीणा के चित्र भी मिले हैं। पीछे एक नर्तकी का उल्लेख किया जा चुका है।
सम्भव है कि ये सारे अंकन व्यक्तिगत अथवा सामूहिक आमोद-प्रमोद के हों। परन्तु यह भी सम्भव है कि संगीत-नृत्य के द्वारा ये नर-नारी किसी धार्मिक क्रिया में संलग्न अपने देवी-देवताओं को प्रसन्न कर रहे हों।
 कहीं-कहीं पशु-बलि के भी उदाहरण मिलते हैं। मोहनजोदड़ो से प्राप्त एक मुद्रा पर एक बकरा बना है। उसी के पीछे एक व्यक्ति चौड़े फल वाला हथियार लिए खड़ा है।
दूसरी मुद्रा में वृक्ष के नीचे एक देवी खड़ी है। उसी के समीप एक बकरा भी खड़ा है हड़प्पा में दयाराम साहनी को बैल, घोड़ा, भेड़ आदि अनेक पशुओं की हड्डियों का एक ढेर मिला था।
 बहुत संभव है कि उस स्थान पर कोई सामूहिक बलि दी गयी हो। इसी नगर में एक मानव-अस्थिपंजर के निकट एक बकरी का अस्थिपंजर मिला है। कुछ विद्वानों का अनुमान है कि मृतक संस्कार के सम्बन्ध में ही कदाचित् बकरी की बलि दी गई होगी। लोथल में पशु-बलि के स्पष्ट साक्ष्य मिले हैं। वहाँ एक चबूतरे पर निर्मित वेदी पाई गई है। इसमें पशु की हड्डियों, राख, मिट्टी के बर्तन, और सोने का एक आभूषण तथा एक कार्नेलियन का मनका मिले हैं।
कालीबंगा में भी एक चबूतरे पर वेदी प्राप्त हुई है। इसके घेरे के भीतर पशु की हड्डियाँ और हिरन के सींग मिले हैं।

15. अंत्येष्ठि:-

सिन्धु सभ्यता के पुरास्थलों के उत्खनन से शवाधान के अनेक साक्ष्य मिले हैं, जिनसे लोगों का अपने पूर्वजों के प्रति सम्मान प्रदर्शित करने की पुष्टि होती है।
जॉन मार्शल के अनुसार सैन्धव पुरास्थलों से तीन प्रकार के शवाधान प्रकाश में आये हैं-पूर्ण शवाधान, आंशिक शवाधान और दाह-क्रिया।
विश्व की अन्य ताम्राश्म संस्कृतियों की भाँति हड़प्पा संस्कृति के निवासी भी मृतकों को विविध उपयोगी उपकरणों तथा वस्तुओं के साथ दफनाने में विश्वास करते थे। शवाधान के समय कब्र में उपयोगी उपकरणों के रखने के आधार पर विद्वानों ने यह परिकल्पित किया है कि सिन्धुवासी संभवतः परलोकवादी थे।
सिन्धु सभ्यता में मृतकों का अन्तिम संस्कार आवासीय क्षेत्र के बाहर किया गया है। सिन्धु सभ्यता के जिन पुरास्थलों से शवाधान के साक्ष्य मिले हैं, उनमें हड़प्पा, मोहनजोदड़ों, लोथल, कालीबंगा, रोपड़, सुरकोटदा, सुतकागेंडोर, तरखानेवालाडेरा और रण्डल-हडवा आदि की गणना की जा सकती है।
 सिन्धु सभ्यता में पूर्ण शवाधान में जमीन में गड़ा खोदकर शव को दफनाया गया है। कहीं-कहीं समाधि में कच्ची ईंटों का प्रयोग भी किया गया है।
हड़प्पा पुरानगर के दुर्ग क्षेत्र के दक्षिण दिशा में अवस्थित ‘कब्रगाह आर-37’ के उत्खनन के समय पूर्ण समाधीकरण का साक्ष्य प्राप्त हुआ है।
इस प्रकार के समाधिकरण में मृतक के शव के साथ उपभोग्य शृंगार-प्रसाधन, आभूषण, उपकरण, मृद्भाण्ड आदि दफनाए जाने की प्रथा थी।
 नील नदी घाटी तथा दजला-फरात नदी घाटियों में अवस्थित ताम्राश्म संस्कृतियों के पुरावशेषों में भी शवोत्सर्ग एवं समाधीकरण की यही प्रथा मिलती है।
 आंशिक समाधीकरण में मृत शरीर को पशु-पक्षियों को खाने के लिए किसी खाली स्थान पर कुछ समय के लिए छोड़ दिया जाता था। बाद में इन शवों की अवशिष्ट अस्थियों को मृतक की उपभोग्य वस्तुओं के साथ दफना दिया जाता था।
तृतीय मृतक संस्कार, जिसे ‘दाह-संस्कार’ भी कहा जा सकता है, के अन्तर्गत शव को जलाने के पश्चात् अवशिष्ट शरीरांश को एक छोटे पात्र में एकत्र कर पुनः उसे बड़े मुँह वाले बड़े पात्र में रख कर गाड़ दिया जाता था। इस प्रकार के अस्थिपात्र प्रायः घर की फर्श के नीचे अथवा आवास के निकटस्थ सड़क के किनारे जमीन में गड़े हुए प्राप्त किए गए हैं।
 इनके अतिरिक्त हड़प्पा के उत्खनन में एक अतिविशिष्ट समाधि मिली है, जिसमें 7 फुट लम्बी तथा 2-12 फुट चौड़ी एक काष्ठ-पेटिका (ताबूत) में एक स्त्री शव को रख कर दफनाया गया है। पुरातत्ववेत्ता एस०पी० गुप्त ने इस विशिष्ट समाधि को भारतीय भूमि पर ताम्राश्म युगीन किसी विदेशी महिला का समाधिकरण बताया है।
ज्ञातव्य है कि दजला-फरात नदियों की घाटी से भी इस प्रकार की समाधियाँ प्राप्त हुई हैं। इस सन्दर्भ में पुराविद् एस० आर० राव ने लोथल पुरास्थल के तीसरे स्तर से मिली कतिपय विशिष्ट समाधियों का उल्लेख किया है,जो ‘युग्मक समाधि’ (Double Burial) प्रकार की है।
 लोथल के उक्त तृतीय स्तर के उत्खनित क्षेत्र से विदेशी शिल्पियों तथा व्यापारियों के निवास सम्बन्धी पुरासाक्ष्यों की प्राप्ति से डॉ० गुप्त द्वारा प्रस्तुत उक्त मत की संपुष्टि होती है।
सिन्धु सभ्यता की अधिकांश समाधियों में मृतक को उत्तर-दक्षिण लिटाकर दफनाया गया है. किन्तु दिशा-निर्धारण के अपवाद भी मिले हैं। ऐसी समाधियों में कालीबंगा, लोथल और रोपङ की समाधियों का उल्लेख किया जा सकता है।
कालीबंगा में दिशा निर्धारण दक्षिण-उत्तर,
 लोथल की समाधियों में पूर्व-पश्चिम और
 रोपड़ में पश्चिम-पूर्व में दफनाये जाने के साक्ष्य मिले हैं।
सिन्धु सभ्यता में कतिपय अपवादों को छोड़कर अधिकांशतः एकल समाधियाँ ही मिली हैं। युग्म समाधियों में कालीबंगा से एक और लोथल से तीन समाधियाँ मिली हैं ।
सिन्धु सभ्यता के लोगों द्वारा अपने मृतक परिजनों के लिए अन्त्येष्टि सामग्री भी रखने के साक्ष्य मिले हैं। उत्खनन से प्राप्त अन्त्येष्टि सामग्रियों में मृदभांड, आभूषण, उपकरण, दर्पण, दीप आदि की गणना की जा सकती है।
लोथल से पशुओं की हड्डियाँ और सींग भी प्राप्त हुए हैं। रोपड़ की एक कब्र में मृतक के साथ कुत्ते को भी दफनाया गया है। इससे संकेत मिलता है कि सिन्धु सभ्यता के लोगों को किसी लोकोत्तर जीवन के विषय में भी विश्वास रहा होगा। वे मानते रहे होंगे कि के बाद मृतक को सम्भवत: दैनिक उपभोग की वस्तुओं की आवश्यकता पड़ती है।
अत: मृत्यु अन्त्येष्टि सामग्री के रूप में दैनिक उपभोग की वस्तुओं को भी मृतक के साथ दफना दिया जाता था।
सिन्धु सभ्यता में कतिपय आंशिक शवाधान के साक्ष्य भी मिले हैं। आंशिक शवाधान कलशों में किये गये हैं।
मोहनजोदड़ो से कतिपय कलश प्राप्त हुए हैं, जिनमें पशुओं, चिड़ियों और मछलियों की अस्थियों के साथ आभूषण, राख, कोयला तथा मृद्भाण्ड के टुकड़े प्राप्त हुए हैं। विद्वानों का अनुमान है कि शव को जलाने के पश्चात् शेष हड्डियाँ और राख के साथ अन्त्येष्टि सामग्री रखकर कलश शवाधान किया जाता था, किन्तु मार्टीमर हीलर और स्टुअर्ट पिग्गॅट का मत है कि कलशों में मानव के हड्डियों के अवशेष नहीं मिले हैं अत: इन्हें कलश शवाधान नहीं माना जा सकता है। बल्कि इन्हें सोख्ता गड्डा माना जा सकता है।
 सिन्धु सभ्यता में शवाधानों के अतिरिक्त मोहनजोदडों से कतिपय शव ऐसे प्राप्त हुए हैं जो यत्र-तत्र भवनों, सड़कों और गलियों आदि में अव्यवस्थित अवस्था में बिखरे मिले हैं। इन बिखरे शवों की संख्या 42 है। इन मानव कंकालों में कुछ पर धारदार हथियार के चोट के चिह्न हैं। इस सन्दर्भ में ह्वीलर की मान्यता है कि किसी आकस्मिक आक्रमण के फलस्वरूप लोगों की मृत्यु हुई जिससे शव अस्त व्यस्त अवस्था में मिले हैं।
 ह्वीलर के उक्त मत का खण्डन जॉर्ज एफ० देल्स ने किया है। देल्स का मत है कि अस्त-व्यस्त प्राप्त नर कंकाल (जिनका सन्दर्भ ह्वीलर ने दिया है) सभ्यता के परवर्ती चरण से सम्बन्ध रखते हैं न कि अन्तिम चरण से। इसके अतिरिक्त मोहनजोदड़ो से प्राप्त 42 नर-कंकालों का अध्ययन के० यू० आर० केनेडी ने पुन: नये सिरे से किया। केनेडी महोदय का निष्कर्ष है कि 42 नर कंकालों में केवल एक मानव कंकाल पर चोट के निशान हैं, सम्भवत: इसकी मृत्य चोट से हुई। इसके अलावा सभी मानवों की मृत्यु किसी संक्रामक महामारी से हुयु होगी।
इस प्रकार ह्वीलर के आकस्मिक बर्बर आक्रमण का मत स्वतः खंडित हो जाता है।
इस प्रकार सैंधव धर्म मे मातृदेवी तथा पुरुषदेवता की उपासना के साथ हम अनेक पशु-पक्षियों, वृक्षों, वनस्पतियों, मांगलिक प्रतीकों आदि की पूजा का विधान पाते हैं।
मार्शल महोदय के अनुसार कालांतर में हिन्दू धर्म मे प्रचलित अनेक अंधविश्वास भी सैंधव सभ्यता में पाए जाते है और इस प्रकार हिन्दू धर्म के अनेक प्रमुख तत्वों का आदि रूप हमे सिंधु सभ्यता में ही मिल पाता है।

        सिन्धु लिपि (The Indus Script)–

सिन्धु लिपि आज भी विद्वानों के लिए रहस्य का विषय बनी हुई है। इस लिपि की उत्पत्ति के सम्बन्ध में कई विचार प्रचलित हैं।
 कुछ विद्वानों का विचार है कि सिन्धु घाटी की सभ्यता आर्यों से भी अधिक प्राचीन थी और इसके लोग, भाषा और लिपि सभी द्रविड़ थे। इस मत की पुष्टि करने वालों में सर्वप्रथम रैवरैण्ड हैरस और सर जॉन मार्शल हैं। रैवरैण्ड हैरस सिन्धु लिपि को बाएँ से दाएँ को पढते हैं और उसे तमिल भाषा में परिवर्तित करते हैं।
किन्तु इस धारणा को स्वीकार करना कठिन है क्योंकि ईसा पूर्व चौथी सहस्राब्दी में तमिल भाषा का नामोनिशान भी दिखाई नहीं देता। इन परिस्थितियों में रैवरैण्ड हैरस के विचार की पुष्टि नहीं की जा सकती।
दि इण्डो सुमेरियन सील्स डेसिफर्ड (The Indo Sumerian Seals Decipherd) शीर्षक अपनी पुस्तक में वैडल (Waddel) ने यह सुझाव प्रस्तुत किया कि ईसा पूर्व चौथी सहस्राब्दी में सुमेर निवासियों ने सिन्धु घाटी में अपना उपनिवेश स्थापित किया और वहाँ उन्होंने अपनी भाषा और लिपि का भी प्रचलन कर दिया।
वैडल ने इण्डो-आर्यों की सुमेर से उत्पत्ति सिद्ध करने की चेष्टा की और मुहरों पर वैदिक साहित्य में दिए गए राजाओं और उनकी राजधानियों के नाम भी पढ़े।
डॉ० प्राणनाथ का भी यही विचार है कि सिन्धु लिपि सुमेर की लिपि से ही उत्पन्न हुई।
मिस्र, क्रीत, पश्चिमी एशिया और भारतवर्ष में पाई गई प्राचीनतम लिपियों की चिन्ह-सांकेतिक प्रकृति के कारण उन लिपियों में पर्याप्त एकरूपता विद्यमान है, किन्तु हमारे ज्ञान की कमी के कारण यह कहना कठिन है कि सुमेरवासियों ने अपनी लिपि सिन्धु घाटी से प्राप्त की या सिन्धु घाटी के लोगों ने अपनी लिपि सुमेरवासियों से ली।
ऐतिहासिक परम्पराओं के अनुसार सुमेर की सभ्यता के लोग स्वयं कहीं बाहर से आए थे और सुमेर में लेखन कला को प्रचलित करने वाले देवताओं और नायकों के नाम भारतीय प्रतीत होते हैं। अतः वैडल (Waddel) और डॉ० प्राणनाथ के विचारों को स्वीकार करना कठिन है।
एक और विचारधारा भी है जिसके अनुसार सिन्धु घाटी के लोग या तो आर्य थे या असुर थे जो बाद में मैसोपोटेमिया और पश्चिमी एशिया की ओर चले गए। इस विचारधारा के अनुसार सिन्धु लिपि का जन्म भारत में हुआ और यहीं से इसे
सुमेर ले जाया गया।
जी०आर० हण्टर (G.R. Hunter) ने इस विषय पर लिखा है कि “बहुत से चिन्ह प्राचीन मिस्र की सांकेतिक लिपि से मिलते-जुलते हैं।
 देवताओं को मानव रूप में प्रस्तुत करने वाले लगभग सभी चिन्हों को मिस्र लिपि में पर्याय मिल जाते हैं और वे लगभग निश्चित हैं।
सबसे रोचक बात तो यह है कि इन चिन्हो का सुमेर लिपि या प्रोटो-एलमाइट (Proto-Elamite) लिपि में एक भी पर्याय नहीं मिलता।
इसके विपरीत हमारे कई चिन्हों के पर्याय प्रोटो-एलमाइट और जेम्दैत-नस्र शिलालेखों में प्राप्त होते हैं जिनके पर्याय मिस्र की लिपि में बिल्कुल भी नहीं मिलते।
यह मानना ही पड़ता है कि हमारे इस विचार का आधार सुदृढ़ है कि हमारी लिपि कुछ मिस्र की लिपि से और कुछ मैसोपोटेमिया की लिपि से ली गई है।
 कई ऐसे चिन्ह हैं जो तीनों लिपियों में पाए जाते हैं, जैसे वृक्ष, मछली, पक्षी आदि के चिन्ह। किन्तु सांकेतिक लिपि की प्रकृति के कारण यह स्वाभाविक है और वास्तव में अनिवार्य है।
केवल यही निष्कर्ष निकालना ठीक है कि एक लिपि के किसी सांकेतिक अक्षर का किसी अन्य भाव-अक्षर से सम्बन्ध है; और ऐसा करना उस समय और भी जरूरी है जब अत्यधिक प्रचलित भाव-अक्षर की किसी साँकेतिक अक्षर से उत्पत्ति स्थापित नहीं की जा सकती।
उनका किसी अन्य साँकेतिक लिपि के अक्षरों से कुछ-न-कुछ सम्बन्ध स्पष्ट दिखाई देता है। किन्तु सुगमतापूर्वक पहचाने जाने वाले साँकेतिक अक्षरों में साम्य दिखाई नहीं देता है। ऐसे अन्तर हमारी लिपि और प्रोटो-एलमाइट लिपि में स्पष्ट दिखाई देते हैं जैसा कि तुलनात्मक सारिणी (comparative table) से ज्ञात होता है। हाँ, यह सम्भव है कि तीनों लिपियों को जन्म देने वाली कोई एक अन्य लिपि हो और हमारी लिपि में मिस्र का तत्त्व ही बाहर से लिया गया हो। यह भी सम्भव है कि
चारों लिपियों की उत्पत्ति एक ही स्रोत से हुई हो। किन्तु इस खोज से हमें इस समय कोई का नहीं और इस खोज का समाधान करना सम्भव नहीं क्योंकि साँकेतिक लिपि नहीं कि प्रागैतिहासिक काल में नील.दजला और सिन्ध की घाटियों की जातियों में किसी प्रकार का जातीय सम्बन्ध विद्यमान था।”
डेविड डिरिंगर (David Diringer) ने इस विषय पर लिखा है : “इन दो समस्याओं का उल्लेख करना आवश्यक है : लिपि की उत्पत्ति और अन्य लिपियों के नाम पर इसका प्रभाव। यह स्पष्ट दिखाई देता है कि प्राप्त शिला-लेखों में । प्रबन्धानुकूल (schematic) और रेखीय (Linear) प्रतीत होने वाली सिन्धु घाटी की लिपि वास्तव में साँकेतिक थी; किन्तु यह निर्णय करना असम्भव है कि यह देशी थी या बाहर से लाई गई थी।
 इस लिपि में और कीलाक्षर (cunieform) तथा प्राचीन एलमाइट लिपियों की पूर्वज लिपि में किसी प्रकार का सम्बन्ध शायद रहा होगा, किन्तु यह कहना असम्भव है कि वह सम्बन्ध क्या था। कुछ प्राचीन और इस अनिश्चित समाधान प्रस्तुत किए जा सकते हैं, जैसे―
 (1) सिन्धु घाटी की लिपि सम्भवतः उस समय अज्ञात, लिपि से उत्पन्न हुई जो शायद कीलाक्षर और प्राचीन एलमाइट लिपियों की भी पूर्वज थी;
(2) तीनों लिपियों का जन्म स्थानीय है, जिनमें से एक सम्भवतः कीलाक्षर या प्राचीन एलमाइट लिपि का प्रतिरूप थी क्योंकि वह मौलिक लिपि थी और शेष दो लिपियों का जन्म उस प्रेरणा से हुआ जो कि लेखन-कला के कारण अस्तित्व में आ चुकी थी।”
उपर्युक्त वर्णन से स्पष्ट है कि सिन्धु लिपि की उत्पत्ति के सम्बन्ध में निश्चयपूर्वक कुछ भी कहना सम्भव नहीं है यह प्रश्न तो भविष्य में की जाने वाली खोज पर ही निर्भर है।

1. सिन्धु लिपि का पढ़ना (Decipherment of Indus Script)-

सिन्धु लिपि अभी तक पढ़ी नहीं गई है और इस सम्बन्ध में खोज करने वाले सभी व्यक्तियों ने यह स्वीकार किया है।
writing latters of harappan civilization
व्हीलर ने ठीक ही कहा है कि “इस लिपि का अनुवाद करने के लिए आवश्यक साधन अभी तक प्राप्त नहीं हो सके हैं। हमें आवश्यकता है-एक द्विभाषी शिलालेख की जिसमें एक भाषा का हमें पूर्ण ज्ञान हो, या एक लम्बा शिलालेख जिसमें कुछ महत्त्वपूर्ण भाग बार-बार प्रयोग किये गए हों। वर्तमान शिलालेखों में से अधिकाँश छोटे हैं और उनमें औसतन छः अक्षर हैं, सबसे लम्बे शिलालेख में भी केवल 17 अक्षर हैं। उनकी भिन्नता के कारण हम यह कल्पना नहीं कर सकते कि उनका सम्बन्ध मुहरों पर पाए जाने वाले नमूनों से है। यह भी अनुमान लगाया गया है कि ये शिलालेख शायद व्यक्तिवाचक संज्ञाएँ हैं और कभी-कभी उनके साथ पिता का नाम, उपाधि या व्यवसाय भी दे दिया जाता है। किन्तु हमें ठीक कुछ भी मालूम नहीं है।”
सिन्धु लिपि एक पहेली है और इसके विषय में कई प्रकार की कल्पनाएं की गई हैं।
 मैरिग्गी (Meriggi) का विचार है कि सिन्धु घाटी के शिलालेख शाब्दिक विचार हैं और उनमें केवल विचार-अक्षर ही पाए जाते हैं।
हण्टर (Hunter) और लैंग्डन (Langdon) का मत है कि सिन्धु लिपि ब्राह्मी लिपि का ही प्रतिरूप है। किन्तु इन दो लिपियों की एकरूपता लेवल ऊपरी है, और जब तक ब्राह्मी अक्षरों से मिलते जुलते सिन्धु लिपि के अक्षरों का ध्वन्यंकन निश्चित रूप से निर्धारित न कर दिया जाए, तब तक हण्टर और लैंग्डन के विचारों को स्वीकार करना सम्भव नहीं है।
 एक जर्मन विद्वान् हॉले (Grozny) का मत है कि सिन्धु लिपि हिट्टाइट (Hittite) लिपि से मिलती जुलती है।
हॉस्ने के विचार का मूल्यांकन अल्ब्राइट (Albright) ने इन शब्दों में किया है, “लिपियों को पढ़ने की हारने की अनुपम योग्यता हम स्वीकार करते हैं,किन्तु यह कहना ही पड़ता है कि इस बार उसने बहुत ही कठिन काम किया है।”
सिन्धु लिपि को किस ओर से किस ओर को लिखा गया है, इस विषय में भी विद्वानों में मतभेद हैं। कुछ विद्वानों का विचार है कि यह दाई ओर से बाईं ओर को लिखी जाती है।
 अन्य विद्वानों का विचार ठीक इसके विपरीत है। यदि हम सिन्धु लिपि को ब्राह्मी (ब्राह्मी) लिपि का ही प्रतिरूप मानें तो यह बाएँ से दाएँ को लिखी जाएगी। किन्तु अभी इस विषय में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता।
 यह कहा गया है कि सिन्धु लिपि तब तक एक रहस्य और पहेली ही रहेगी जब तक ‘रोजेट्टा स्टोन’ (Rosetta Stone) की भाँति किसी भाग्यशाली वस्तु की खोज न की जाए।”
 सुमेर और मिस्र की चिन्ह संकेत-अक्षर लिपियाँ बहुत लम्बी अवधि तक अज्ञात ही रही यदि भाग्य ने पुरातत्व-विद्वानों को बहिस्तान और राजेट्टा के त्रिभाषी अभिलेख प्रदान न किए होते।
जब तक हम ऐसे ही किसी त्रिभाषी या द्विभाषी प्रलेख को प्राप्त न करें, तब तक क्रीत और माया की चिन्ह संकेत-अक्षर लिपियों की भाँति सिन्धु लिपि भी रहस्य का विषय बनी रहेगी।”
सिन्धु लिपि अर्द्ध-साँकेतिक लिपियों के परिवार से सम्बन्धित है। इसमें 537 अक्षर हैं जिनमें से केवल 60 मूल अक्षर हैं और शेष उन्हीं के परिवर्तित रूप हैं। परिवर्तित रूप मूल अक्षरों में मात्राएँ या अर्थ-अक्षर या अन्य अक्षरों के साथ जोड़कर बनाए जाते थे। मूल मानव-चिन्ह या मीन-चिन्ह से कई प्रकार के विशेष और क्लिष्ट अक्षर बनाए गए हैं।
दूसरे शब्दों में―
सिन्धु सभ्यता के मुहरों पर लिपि उत्कीर्ण है। बणावली पुरास्थल से प्राप्त कतिपय मृद्भाण्डों पर भी लिपि के साक्ष्य मिले हैं।
 सैन्धव सभ्यता की लिपि चित्राक्षर लिपि है। लिपि की लिखने की पद्धति दाएँ से बाएँ ओर है। सैन्धव लिपि में 537 चिह्न मिले हैं सिन्धु सभ्यता की लिपि अभी तक पढ़ी नहीं जा सकी है। लिपि के अपाठ्य होने के कई प्रमुख कारण माने जाते हैं
(1) लिपि में अक्षरों का आदि-अन्त प्राय:समान है जिससे अक्षरों (चिह्नों) के विकासक्रम का ज्ञान नहीं होता है।
(2) मुहरों पर लेख अत्यधिक छोटे हैं। अभी तक सबसे लम्बा लेख सत्तर अक्षरों (चिह्नों) का मिला है। लेख तीन पंक्तियों से अधिक के नहीं मिले हैं।
(3) सिन्धु सभ्यता में कोई द्विभाषिक लेख नहीं मिला है।
(4) सिन्धु सभ्यता की लिपि की समानता तत्कालीन किसी विदेशी लिपि अथवा भारत की ऐतिहासिक लिपि से नहीं हो सकी है।
उपरोक्त कठिनाइयों के बावजूद विद्वानों ने लिपि के पढ़ने का प्रयास किया है। लिपि के पाठकों के दो वर्ग हैं।
प्रथम वर्ग के लोग इसका सम्बन्ध द्रविड़ लिपि से मानते हैं। इस वर्ग के विद्वानों में फादर हेरॉस, अस्को पर्पोला, कोनोरोजोव और आई० डी० महादेवन हैं।
 द्वितीय वर्ग सिन्धु सभ्यता की लिपि को भारोपीय लोगों से जोड़ने का प्रयास करता है। द्वितीय वर्ग के विद्वानों में प्राणनाथ, बी० एम० बरुआ, एस० आर० राव और फतेह सिंह हैं। यद्यपि विद्वान् अपने स्तर से पढ़ने का प्रयास कर रहे हैं, किन्तु दोनों वर्गों के विद्वानों को अभी भी पढ़ने में अनेक कठिनाइयाँ हैं, जिनका समाधान संभव: भविष्य के गर्भ में है।

           हड़प्पा सभ्यता का पतन–

तीसरी सहस्राब्दी के लगभग सिन्धु उपत्यका में नगरीय संस्कृति की स्थापना हुई, जो लगभग 1860 ई०पू० तक सतत् विकासोन्मुख बनी रही। इसी अवधि में हड़प्पा, मोहनजोदड़ो तथा चन्हूदड़ो, कालीबंगा, धौलावीरा जैसे बड़े नगरों का विन्यास हुआ एवं वहाँ वास्तु, मूर्ति, चित्र तथा अन्यान्य कलाओं के साथ प्रस्तर एवं धातु प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भी विशेष उन्नति हुई थी।

विद्वानों का अनुमान है कि लगभग 1800 ई० पू० के उपरान्त सिन्धु संस्कृति के नगरीय स्वरूप में परिवर्तन तथा ह्रास के साक्ष्य मिलने लगते हैं। मूलनगरीय सैंधव संस्कृति के स्थान पर वहाँ एक नवीन सांस्कृतिक स्वरूप, उभरने तथा विकास करने लगता है, जिसे हड़प्पा संस्कृति की नागरिकोत्तर-अवस्था अथवा ‘उत्तर-हड़प्पा’ नाम से संबोधित किया जा सकता है।
पुरातत्वविदों ने हड़प्पा संस्कृति के उक्त बड़े-बड़े नगरों के पतन का प्रारम्भिक काल 1800 ई० पू० के आस-पास प्रस्तावित करने का प्रमुख आधार मेसोपोटामिया से मिले साहित्यिक साक्ष्यों को माना है। प्राचीन मेसोपोटामिया से प्राप्त उल्लेखों में सुमेर आदि व्यापारिक नगरों में 1900 ई० पू० के अन्तिम दशकों के उपरान्त मेलुहा (सिन्धु संस्कृति) से आने वाले व्यापारिक जहाजों का उल्लेख नहीं मिलता है।
इसके अतिरिक्त सैन्धव युगीन भवनों, मूर्तियों, चित्रों, नगरों तथा उपकरणों आदि में उपलब्ध एकरूपता, जो इस संस्कृति की प्रधान विशेषता मानी जा सकती है, उत्खनित साक्ष्यों में केवल इसी शताब्दी तक प्राप्य है।
ज्ञातव्य है कि 1800 ई० पू० से लेकर लगभग 1200 ई० पू० के बीच पाकिस्तान, पश्चिमी भारत, पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, जम्मू-कश्मीर, दिल्ली, पश्चिमी उत्तर प्रदेश आदि क्षेत्रों में गतिशील ‘उत्तर-हड़प्पा संस्कृति’ की कलाओं तथा उपकरणों में उक्त एकरूपता का पूर्ण अभाव है।
उत्तर-हड़प्पा कालीन भवनों, निर्माणात्मक कार्यों, उपकरणों आदि में बड़ी विविधता देखने को मिलती है। परवर्ती हड़प्पा संस्कृति में मूल सैन्धव संस्कृति की लेखन कला, बाट-माप, मृद्भाण्ड तथा वास्तुशैली आदि एकाएक लुप्त सी हो गई।
सैन्धव उपत्यका में बसने वाले लोग नागरिकोत्तर हड़प्पा संस्कृति में नई-नई संस्कृतियों का सम्मिश्रण करना शुरू किया। अस्तु, हमारे सम्मुख विचारणीय प्रश्न यह है कि मूल हड़प्पा संस्कृति का एकाएक अन्त किन कारणों से सम्भव हुआ होगा? जिस प्रकार इस संस्कृति के उद्भव की कहानी गढ़ तथा अद्यावधि स्पष्ट है, उसी प्रकार इस के पतन के वास्तविक कारण भी अज्ञात हैं। हड़प्पा संस्कृति के अवसान की किञ्चित् व्याख्या विद्वानों ने करने का प्रयास अवश्य किया है।

सिन्धु सभ्यता के विघटन का प्रश्न पुरातत्त्ववेत्ताओं के समक्ष एक अनसुलझी गुत्थी के समान है, जिसका यथोचित उत्तर आज तक नहीं मिल सका है, क्योंकि सिन्धु सभ्यता के पतन के जिन कारणों पर विद्वानों ने अभी तक विचार किया है, उनमें भी कुछ न कुछ दोष हैं, जिससे किसी एक सिद्धान्त पर सहमति नहीं हो पायी है।
वस्तुत: किसी सभ्यता या साम्राज्य के पतन में कोई एक कारण उत्तरदायी हो ही नहीं सकता है बल्कि अनेक कारणों के समन्वय के फलस्वरूप पतन अवश्यम्भावी हो जाता है। सम्भव है कि पतन के कारणों में कतिपय दीर्घकालिक और कुछ आकस्मिक कारण हो सकते हैं। अत: सिन्धु सभ्यता के पतन में भी अनेक कारणों को उत्तरदायी माना जाता है।
ये निम्न हैं―

1. प्रसासनिक शिथिलता:-

सिन्धु सभ्यता के हड़प्पा और मोहनजोदड़ो के उत्खनन से ऐसे साक्ष्य मिले हैं, जिनसे नगर में प्रशासनिक शिथिलता के संकेत मिलते हैं।
इस सन्दर्भ में जॉन मार्शल का विचार है कि मोहनजोदड़ो के परवर्ती चरण में सड़कों और गलियों पर अतिक्रमण होने लगा तथा।भवनों के निर्माण में दीवालों की चौड़ाई कम हो गयी थी, मोहनजोदड़ों की सड़कों पर कुम्हारों द्वारा आँवा बनाये जाने के साक्ष्य मिले हैं, जो प्रशासनिक शिथिलता के द्योतक हैं।
मोहनजोदडों की भांति हड़प्पा, कालीबंगा और लोथल से भी प्रशासनिक शिथिलता के साक्ष्य उपलब्ध हैं।
गुजरात के लोथल और रंगपुर के उत्खनन से ज्ञात होता है कि सैन्धव सभ्यता का नगरीय स्वरूप धीरे धीरे परिवर्तित होकर स्थानीय संस्कृति में बदलता जा रहा था मृद्भाण्डों में चमकीले लाल रंग के मिट्टी के बर्तनों को बहुतायत देखने को मिलती है। पकी ईंटों के स्थान पर कच्ची ईंटों का प्रयोग किया जाने लगा।सैन्धव सभ्यता की प्रमुख विशेषता सफाई की व्यवस्था का समापन हो गया। सिन्धु सभ्यता के प्रौढकालीन विस्तृत बस्तियों की अपेक्षा परवर्ती चरण में बस्तियों का आकार छोटा होता गया।
इस प्रकार हम देखते हैं कि सिन्धु सभ्यता के प्रौढ़ चरण में नगरीय सभ्यता का जो विकसित रूप दिखायी पड़ता है, उसका परवर्ती चरण में ह्रास होना प्रारम्भ हो गया था।
अत: सिन्धु सभ्यता के पतन में प्रशासनिक शिथिलता को उत्तरदायी माना जा सकता है।

2. जलवायु परिवर्तन-

कतिपय विद्वान् सिन्धु सभ्यता के पतन का कारण जलवायु परिवर्तन मानते हैं। ऐसे पुरातत्त्ववेत्ताओं में सर्वप्रथम आरेल स्टाइन की गणना की जाती है।
स्टाइन महोदय ने अपने अन्वेषण के दौरान बलूचिस्तान के झालावान, सारावान और काश्कोई से कतिपय बाँधों (गबरबन्दों) के अवशेष खोज निकाले, जिसके आधार पर उनका मत है कि बलूचिस्तान में आज को अपेक्षा आद्यैतिहासिक काल में वर्षा अधिक होती थी।
हड़प्पा और मोहनजोदड़ों के उत्खनन से प्राप्त पुरावशेषों में मिट्टी की पकी ईंटें मिली हैं। जिसके आधार पर जॉन मार्शल का मत है कि ईंटों को पकाने के लिए लकड़ी की आवश्यकता पड़ती है। अत: सिन्ध और पंजाब के क्षेत्रों में जंगल रहे होंगे। इसके अतिरिक्त हड़प्पा और मोहनजोदड़ो में जल निकास के लिए चौड़ी नालियाँ भी मिली हैं जो सम्भवतः वर्षा के अधिक जल को ध्यान में रखकर बनायी गयी थीं विद्वानों का अनुमान है कि अद्यइतिहासिक काल में सिन्ध में लगभग 120-150 सेमी० वार्षिक वर्षा होती थी, जबकि वर्तमान में वहाँ केवल 75 सेमी ही वर्षा होती है।
विद्वानों की यह भी मान्यता हैं कि यदि अरब सागर से आने वाले मानसून में कुछ अक्षांशों का अन्तर हो जाय तो पंजाब और सिन्ध की जलवायु पुन: आर्द्र हो सकती है।
इसके अलावा सिन्धु सभ्यता के मुहरों पर अंकित पशुओं; जैसे-गैंडा, हाथी और व्याघ्र से भी सिन्ध और पंजाब की आई जलवायु और घने जंगल की ओर संकेत मिलता है, जलवायु सम्बन्धी अन्य साक्ष्यों में राजस्थान के झीलों से प्राप्त पुरापुष्पपराग के विश्लेषण को माना जा सकता है।
पुरातत्त्वविद् गुरदीप सिंह ने राजस्थान के झीलों से प्राप्त पुष्पपराग का विश्लेषण करके यह मत प्रतिपादित किया कि लगभग 3000-1700 ई०पू० के मध्य राजस्थान की जलवायु में आर्द्रता थी।
राजस्थान की जलवायु के आधार पर माना जा सकता है कि सिन्ध एवं पंजाब में भी वर्षा अधिक होती रही होगी। कालान्तर में सिन्धु सभ्यता के लोगों द्वारा वनों की लकड़ियों का ईंट पकाने, मकान बनाने आदि में अधिक उपयोग किया गया जिससे जंगलों में कमी आयी, साथ ही भूमि पर से वृक्षों और घासों का आवरण कम हो गया, जिसका असर वर्षा पर हुआ। वर्षा में कमी आने के कारण कृषि उत्पादन पर भी प्रभाव पड़ा होगा।
अमलानन्द घोष ने राजस्थान की सरस्वती और दृषद्वती नदियों की सूखी घाटियों का अध्ययन करके निष्कर्ष निकाला है कि सिन्धु सभ्यता के समय इन नदियों में जल की मात्रा पर्याप्त थी।
घोष महोदय को सैन्धव सभ्यता के पुरास्थल नदी घाटियों में तट पर स्थित मिले, जबकि ‘चित्रित धूसर पात्र-परम्परा’ (जिसका समय सिन्धु सभ्यता के बाद का है) के पुरास्थल नदियों की तलहटी में मिले हैं।
रफीक मुगल नामक पुरातत्वविद् ने भी पाकिस्तान की हकरा (घग्घर) नदी घाटी का अध्ययन किया। उनका मत है कि सैन्धव सभ्यता के 72 पुरास्थल नदी के तट पर विद्यमान थे जबकि ‘चित्रित धूसर पात्र परम्परा’ के पुरास्थल नदी के तलहटी में विद्यमान हैं।
उपरोक्त साक्ष्यों के आधार पर विद्वानों का मत है कि पुरास्थलों (चित्रित धूसर पात्र परम्परा से सम्बन्धित) का तल पर मिलना तभी सम्भव है, जब नदियाँ सूख गयी होंगी। नदियों के सूखने में जलवायु परिवर्तन (वर्षा में कमी) को कारण माना जा सकता है।
नदियों के सूख जाने के फलस्वरूप सैन्धव बस्तियों का पतन हुआ क्योंकि सैन्धव सभ्यता के लोगों की कृषि और व्यापार (नदियों का परिवहन के रूप में प्रयोग बन्द हो जाने से) प्रभावित हुआ होगा, जो उनकी आर्थिक व्यवस्था का मूलाधार था।

खण्डन-

सिन्धु सभ्यता के पतन के कारणों में जलवायु परिवर्तन के मत से अनेक पुरातत्त्वविद् असहमत हैं।
ऐसे पुरातत्त्वविदों में वाल्टर फेयर सर्विस, आर० एल० राइक्स और आर० एच० डाइसन की गणना की जा सकती है।
उक्त पुरातत्त्ववेत्ताओं का मत है कि
(1) सिन्धु घाटी के जलवायु में पिछले चार हजार वर्षों में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है।
(2) सिन्धु सभ्यता के विस्तार क्षेत्र में विभिन्न जंगली वृक्ष बबूल, झाऊ आदि (जो आज भी उपलब्ध है) उस समय भी उपलब्ध रहे होंगे जो सैन्धव सभ्यता के लोगों के ईट पकाने, मकान बनाने आदि के लिए पर्याप्त रहे होंगे।
(3) सिन्धु सभ्यता में प्रयुक्त पकी ईंटों का सम्बन्ध जलवायु से न होकर अभिरुचि या शौक सम्बन्धित रहा होगा।
(4) सिन्धु सभ्यता में पकी नालियों का निर्माण दैनिक जल निकासी के लिए किया गया था।

(5) सिन्धु सभ्यता के मुहरों पर अंकित गैंडे, हाथी और व्याघ्र के चित्रों से जलवायु का कोई सम्बन्ध नहीं है। यह आवश्यक नहीं है कि ये पशु सिन्ध और पंजाब के जंगलों में विद्यमान ही रहे हों। सम्भव है कि सिन्धु घाटी के लोगों ने इन्हें हिमालय के उपत्यकाओं में देखा रहा हो। इन पशुओं के शारीरिक गठन से आकर्षित होकर लोगों ने मुहरों पर इनका अंकन किया हो।
उल्लेखनीय है कि बाघ का अस्तित्व सिन्ध में 20वीं शताब्दी ई. तक विद्यमान रहा है। अतः सम्भव है कि सिन्धु सभ्यता के समय भी वह विद्यमान रहा हो। पशुओं के अंकन और जलवायु में सम्बन्ध स्थापित करना औचित्यपूर्ण नहीं प्रतीत होता है।
इस प्रकार उपरोक्त तथ्यों के आधार पर पुरातत्त्ववेत्ताओं ने सिन्धु सभ्यता के पतन में जलवायु परिवर्तन के उत्तरदायी मानने में संदेह व्यक्त किया।

3. बाढ़-

सिन्धु सभ्यता के पतन में उत्तरदायी कारकों में नदियों को ‘बाढ़’ को भी कारण माना जाता है। जॉन मार्शल और अर्नेस्ट मैके ने मोहनजोदडो के पतन का मुख्य कारण सिन्धु नदी की बाढ़ को माना है।
उल्लेखनीय है कि मार्शल महोदय को मोहनजोदड़ो के उत्खनन के दौरान विभिन्न स्तरों से बालू के जमाव के अवशेष मिले हैं, जो बाढ़ के साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं। उत्खनन के दौरान प्राप्त साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि मोहनजोदड़ो में मकानों का पुनर्निर्माण चबूतरे पर किया गया है, जो संभवत बाढ़ से बचने के लिए किया गया रहा होगा।
पुरात्त्वविदों का मत है कि बाढ़ से पूरा नगर भले ही न डूबा हो, किन्तु नगर का अधिकांश भाग बाढ़ से प्रभावित था।
बाढ के कारण सम्पन्न लोग नगर छोड़कर अन्यत्र पलायन कर गये।
मैके महोदय को भी चन्हूदड़ों से बाढ़ के साक्ष्य मिले हैं। चन्हूदड़ों के लोग बाढ़ से भयभीत होकर नगर छोड़ दिये।
मैके महोदय ने चन्हूदड़ों के टीले के सम्बन्ध में मत व्यक्त किया है कि टीले पर कुछ समय तक लोगों ने निवास किया, किन्तु कालान्तर में उसे भी छोड़कर चले गये।
उनका मत है कि चन्हुदड़ों में अनेक बार बाढ़ आयी, जो दीर्घकालिक रही, जिससे लोग नगर का परित्याग कर दिये।
सिन्धु सभ्यता के गुजरात के पुरास्थलों से भी बाढ़ के साक्ष्य प्रकाश में आये हैं। पुरातत्त्वविद् एस० आर० राव को लोथल और भगतराव से दो बड़ी बड़ों के साक्ष्य मिले हैं।
उनका मत है कि लोथल में प्रथम बाढ़ 2000 ई० पू० और द्वितीय बाढ़ 1900 ई० पू० में आयी थी।
राव महोदय ने हड़प्पा और मोहनजोदड़ो में भी इसी समय बाढ़ आने का अनुमान किया है। उनके अनुसार सिन्धु सभ्यता के विभित्र नगरों हड़प्पा, मोहनजोदड़ो और लोथल आदि में बाढ़ से बचाव के लिए ही सम्भवतः बाँधों का निर्माण नगर के चारों ओर किया गया है।
नगरों के मकानों में बालू जम जाने और बाढ़ से फसल नष्ट हो जाने के कारण लोग सिन्धु नदी की घाटी को त्याग कर सतलज और सरस्वती की घाटियों में शरण लिये होंगे।
राव महोदय का मत है कि कालीबंगा (सरस्वती के तट पर) और रोपड़ (सतलज के तट पर) की बस्तियों का निर्माण सिन्धु घाटी के बाढ़ पीड़ित लोगों ने किया। लोगों के प्रवास के फलस्वरूप विभिन्न नगरों मोहनजोदड़ो, लोथल आदि का नगरीय स्वरूप नष्ट होने लगा।

खण्डन-

सिन्धु सभ्यता के विघटन में बाढ़ को कारण मानना अव्यावहारिक प्रतीत होता है।
क्योंकि बाढ़ के कारण वे कतिपय नगर नष्ट हो सकते हैं, जो नदियों के किनारे बसे थे, किन्तु उन नगरों का पतन क्यों हो गया? जो नदी तट पर स्थित नहीं थे।
वस्तुत: बाढ़ के कारण कुछ नगर तो विनष्ट हो सकते हैं, किन्तु किसी विशाल सभ्यता को बाढ़ निगल जाये, यह बात समझ से परे है। अत: बाढ़ को सिन्धु सभ्यता के पतन का कारण मानना उचित नहीं प्रतीत होता है।

4. बाह्य व्यापार में गतिरोध-

सिन्धु सभ्यता के पतन में पतनोन्मुख अर्थव्यवस्था को कारण माना जाता है।
उल्लेखनीय है कि सिन्धु सभ्यता के आर्थिक ढाँचे का मुख्य अंग विदेशी व्यापार माना जाता है। सिन्धु सभ्यता का विदेशी व्यापार मुख्यत: मेसोपोटामिया की सुमेरियन सभ्यता से था।सैन्धव सभ्यता के अधिकांश पुरास्थलों में मात्र पाँच-सात पुरास्थल ही नगर माने गये हैं. शेष सभी पुरास्थल कस्बों और गांवों का ही प्रतिनिधित्व करते हैं।
नगरीय पुरास्थलों के उत्खनन से ज्ञात होता है कि सिन्धु सभ्यता के अन्तिम चरण में विदेशों से व्यापारिक गतिविधियों में क्षीणता आती जा रही थी, जिसके फलस्वरूप सभ्यता का नगरीय स्वरूप लगभग 2000 ई० पू० तक क्षीण हो चुका था।
पुरातत्वविद् डब्ल्यू० एफ० अल्बाइट का मत है कि सैन्धव सभ्यता की समाप्ति (मेसोपोटामिया के साक्ष्यों के आधार पर) लगभग 1750 ई० पू० में हुई ।
पुरातत्वविदों के अनुसार 2000 ई० पू० से 1750 ई० पू० तक सैन्धव सभ्यता का अस्तित्व नहीं था, बल्कि सैन्धव संस्कृति का अस्तित्व था इस सन्दर्भ में कहा जा सकता है कि सैन्धव सभ्यता की प्रमुख विशेषता उसका नगरीय स्वरूप था, जिसमें गिरावट आ रही थी जिसके फलस्वरूप सभ्यता के उत्तर चरण में ग्राम्य संस्कृति के लक्षण दिखायी पड़ने लगते हैं।
इसके अलावा मार्टीमर ह्वीलर को भी उत्खनन के दौरान सभ्यता के अन्तिम चरण में विघटन के लक्षण के साक्ष्य मिले हैं।
उनके अनुसार सिन्धु सभ्यता के अन्तिम चरण में भवनों के आकार-प्रकार, योजना, निर्माण शैली आदि में गिरावट दिखायी देती है।
सिन्धु सभ्यता के नगरों के बड़े भवनों में विभाजन शुरू हो गया था। सम्भवतः नगरों में जनसंख्या वृद्धि हुई, जिसके कारण हड़प्पा और मोहनजोदड़ो में अतिरिक्त आबादी के लिए जगह की कमी हो गयी।
मकानों के निर्माणों में पुरानी ईंटों का प्रयोग किया जाने लगा था, जिससे सैन्धव सभ्यता के लोगों की आर्थिक व्यवस्था में गिरावट के संकेत मिलते हैं।
अत: माना जा सकता है कि सिन्धु सभ्यता में व्यापार गतिरोध के कारण आर्थिक व्यवस्था असंतुलित हो गयी, जिसके फलस्वरूप सभ्यता का पतन हो गया।

5. भुतात्विक परिवर्तन (भूकंप)-

सिन्धु सभ्यता के पतन में भूतात्त्विक परिवर्तन (भूकम्प) को भी कारक तत्त्व माना जाता है।
इस मत के समर्थकों में एम० आर० साहनी, आर० एल० राइक्स, जॉर्ज एफ० देल्स और एच० टी० लैम्ब्रिक आदि का नाम उल्लेखनीय है ।

साहनी महोदय सिन्धु सभ्यता के पतन में बाढ़ की अपेक्षा जल भराव (प्लावन) को कारण मानते हैं। कालान्तर में इसी मत को आगे बढ़ाते हुए राइक्स और देल्स महोदय ने मोहनजोदड़ो तथा अन्य पुरास्थलों की बाढ़ का अध्ययन किया।
बाढ़ का अध्ययन करने के लिए विभिन्न स्थानों पर वरमे से बेधन किया गया, जिसके फलस्वरूप विद्वानों ने निष्कर्ष निकाला कि विवर्तनिक उथल-पुथल (भूकम्प) के कारण अरब सागर के उत्तर तटवर्ती जमीन में उभार आ गया, जिससे नदियों का जल सागर तक नहीं पहुँच सका।
नदियों के मुहाने रेत से पट गये और स्थान-स्थान पर झीलों का निर्माण हो गया।

राइक्स और देल्स का मत है कि सिन्धु सभ्यता में 48 किमी० से 240 किमी० लम्बी झील बन गयी, जिससे क्षेत्र में कीचड़ और दलदल हो गया।
दलदल के कारण यातायात बाधित हुआ, जिसका प्रभाव आन्तरिक और बाह्य व्यापार पर पड़ा।
सिन्धु सभ्यता के लोग इस प्राकृतिक आपदा से टूट गये। फलतः उन्होंने नगर का परित्याग कर दिया और अन्यत्र चले गये।

भूतात्त्विक परिवर्तन से सम्बन्धित एक अन्य मत एच० टी० लैंम्ब्रिक ने प्रतिपादित किया है।
लैम्बिक के अनुसार विवर्तनिक परिवर्तन अथवा भूकम्प के कारण नदियों के मार्ग में परिवर्तन हुआ।
मोहनजोदड़ो से थोड़ा आगे सिन्धु नदी के मार्ग में परिवर्तन विनाशकारी सिद्ध हुआ, जिसके फलस्वरूप लोग नगर छोड़कर चले गये। उनका मत है कि सिन्धु नदी के मार्ग में परिवर्तन ऐतिहासिक युग में भी देखने को मिलता है।
माधो स्वरूप वत्स के अनुसार हड़प्पा के पतन का मुख्य कारण रावी नदी का मार्ग-परिवर्तन था।
उल्लेखनीय है कि सैन्धव सभ्यता के समय हड़प्पा रावी के तट पर स्थित था, जबकि अब वह हड़प्पा के टीले से लगभग दस किलोमीटर की दूरी पर है।
देल्स महोदय का मत है कि कालीबंगा का पतन भी घग्घर और उसकी सहायक नदियों के मार्ग परिवर्तन के कारण हुआ। नदियों के मार्ग परिवर्तन के फलस्वरूप तटवर्ती नगरों के निवासियों को कृषि के लिए जल और पेय जल का संकट उत्पन्न हो गया और जलीय यातायात बाधित होने से व्यापारिक गतिविधियों में गिरावट आयी, जिसके फलस्वरूप धीरे-धीरे आवासीय बस्तियाँ उजड़ती गयीं और सभ्यता का पतन अवश्यम्भावी हो गया।

खण्डन-

भुतात्विक परिवर्तन के फलस्वरूप अरब सागर के तट का ऊँचा उठ जाना, नदियों के मार्ग का बाधित होना और सिन्धु सभ्यता के क्षेत्र में विशालकाय झील का अस्तित्व में आने सम्बन्धी राइक्स और देल्स के मत का खण्डन एच० टी० लैम्ब्रिक और ग्रेगरी पोशल ने किया है।

लैम्ब्रिक का मत है कि सिन्धु की प्रवाह प्रकृति और राइक्स के अनुमान एक-दूसरे से भिन्न हैं।
उल्लेखनीय है कि राइक्स ने जिन क्षेत्रों को समुद्र में डूबने का अनुमान किया है, वस्तुतः वे समुद्र के तट पर स्थित थे, क्योंकि कच्छ के अनेक पुरास्थल सुरकोटदा और धौलाबीरा आदि शीघ्र ही प्रकाश में आये हैं। लैम्ब्रिक का यह भी विचार है कि यदि झील का अस्तित्व मान भी लिया जाय, तो यह कहना मुश्किल है कि सिन्धु के जिन लोगों ने भीषण बाढ़ का सामना कर लिया, वे झील से कैसे भयभीत हो गये?
इसके अलावा पोर्शल का मत है कि सिन्धु सभ्यता के इस क्षेत्र में 240 किमी विस्तृत झील के कोई अवशेष नहीं मिले हैं।
अत:राइक्स और देल्स का भूतात्त्विक परिवर्तन का मत सर्वमान्य नहीं हो सका।

6. पारिस्थितिकी में असंतुलन:-

फेयर सर्विस सदृश कतिपय विद्वानों की धारणा है कि शुष्क जलवायु वाली सैन्धव उपत्यका में मनुष्यों एवं पशुओं की आबादी तत्क्षेत्रीय उपभोग्य वस्तु उत्पादन क्षमता की तुलना में निरन्तर अधिक वृद्धि के कारण पारिस्थितिक संतुलन को नष्ट करती गई।
उक्त विद्वानों ने हड़प्पा शहर की जनसंख्या का आकलन कर उसमें रहने वाले नागरिकों के लिए खाद्यान्न की खपत का आकलन करने का भी प्रयास किया है। उनके आकलन के अनुसार सैन्धव ग्रामवासी अपनी कृषि उपज का लगभग 80 प्रतिशत अंश तो स्वयं अपने उपभोग के लिए रखते थे तथा शेष 20 प्रतिशत भाग तत्कालीन नगरों में बसने वाले लोगों के खाद्यान्न हेतु बाजार में बेंच देते थे।
इस हिसाब से मोहनजोदड़ो जैसे नगर में, जहाँ कुल आबादी लगभग 35 हजार थी, खाद्यान्नों की पूर्ति के लिए आस-पास बड़ी संख्या में ग्राम-बस्तियों तथा अन्नोत्पादन वाले क्षेत्रों की आवश्यकता रही होगी।
सम्भवतः पशुओं एवं मनुष्यों की बढ़ती आबादी के लिए ईधन की आपूर्ति हेतु जंगलों को क्रमशः काट कर समाप्त कर दिया गया। लोगों ने अपने आस-पास की भूमि की सीमित उत्पादन क्षमता का संपूर्ण दोहन कर लिया होगा। जंगलों तथा छोटे-छोटे पौधों, वनस्पतियों आदि की समाप्ति के कारण सैन्धव मैदानी क्षेत्रों में क्रमशः सूखा तथा बाढ़ के प्रकोप बढ़ने लगे होंगे। फलतः जीविका के नये आधार की खोज में लोग इन क्षेत्रों से भाग कर अन्यत्र बसने के लिए विवश होने लगे।
इस प्रकार, सैन्धव वासियों द्वारा अपने उत्पादन सम्बन्धी साधनों की आवश्यकता से अधिक व्यय करना, उनकी जीवनशक्ति को क्षीण करने में प्रमुख कारण बन गई।

7. बाह्य आक्रमण-

कतिपय विद्वान् सिन्धु सभ्यता के पतन का उत्तरदायित्व किसी बाहा आक्रमण को देते हैं।
इस मत के समर्थक विद्वानों में वी० गार्डन चाइल्ड, मार्टीमर हीलर, अर्नेस्ट मैके, स्टुअर्ट पिग्गॅट आदि हैं सर्वप्रथम गार्डन चाइल्ड ने 1934 ई० में सिन्धु सभ्यता के पतन में आर्य भाषा-भाषी लोगों के योगदान की ओर संकेत किया।
     उल्लेखनीय है कि सिन्धु सभ्यता को विद्वान् आर्येतर सभ्यता मानते हैं। हड़प्पा के उत्खनन के दौरान पुरातत्त्वविदों को कतिपय अवशेष विजातीय संस्कृति को प्राप्त हुए हैं।
 माधोस्वरूप वत्स द्वारा विजातीय संस्कृति से सम्बन्धित कब्रिस्तान का उत्खनन 1934 ई० में कराया गया। इस उत्खनन क्षेत्र को समाधि-एच’ का नाम प्रदान किया गया। इस कब्रिस्तान में शवों को दफनाने की पद्धति के आधार पर शवाधानों को दो स्तरों में विभाजित किया गया है।
 समाधि क्षेत्र के प्रथम स्तर (निचले स्तर) से जो अवशेष मिले हैं, उनमें श्वों को चित्त लिटाया गया है। शर्तों को पूर्ण शवाधान पद्धति में दफनाया गया है। शवों को लिटाने के लिए दिक् स्थान पूर्व पश्चिम अथवा उत्तर-पूर्व से दक्षिण-पश्चिम दिशा में किया गया है। शवाधानों में अन्त्येष्टि सामग्री के रूप में चमकीले लाल रंग के मिट्टी के पात्र मिले हैं, जिन पर काले रंग से चित्र अभिप्राय संजो गयो हैं । चित्रण अभिप्राय के लिए बैल, गाय, बकरी, मछली, मोर, तारे और ज्यामितीय आकृतियों का प्रयोग किया गया है। समाधि क्षेत्र के प्रमुख पात्रों में बिना आधार की तश्तरियाँ, प्याले, घड़े या मटके आदि हैं।
 समाधि क्षेत्र के द्वितीय स्तर (ऊपरी स्तर) से आंशिक शवाधान के साक्ष्य मिले हैं, जो कलशों में दफनाए गये हैं। कलश शवाधानों में बच्चों के पूर्ण शवाधान भी हैं, जिनमें बच्चों की शरीर को मोड़कर कलशों में रख दिया गया है। इस स्तर के शवाधानों में भी प्राप्त अन्त्येष्टि सामग्रियों में मिट्टी के बर्तन आदि मिले हैं जिनके आकार-प्रकार और अलंकरण अभिप्राय सैन्धव सभ्यता के मृदभांड भिन्न हैं।
 पुरातत्त्वविदों ने इन दोनों स्तरों से प्राप्त पुरावशेषों को एक ही संस्कृति का अवशेष माना है ।
गार्डन चाइल्ड महोदय का मत है कि इसी विजातीय संस्कृति का सम्बन्ध आर्य कबीले से था इन्हीं आर्य कबीले के लोगों ने सिन्धु सभ्यता का विनाश किया।
बी० गार्डन चाइल्ड के मत के समर्थन में मार्टीमर ह्वीलर ने कतिपय अन्य साक्ष्य भी प्रस्तुत किये हैं।
ह्वीलर के अनुसार सिन्धु सभ्यता 2000 ई० पू० तक विद्यमान रही, किन्तु उत्तरवर्ती चरण में उसका क्रमिक पतन शुरू हो गया।
उसी समय लगभग 1500 ई० पू० के आस-पास सिन्धु सभ्यता पर एकाएक बर्बर आक्रमण हुआ जिससे सभ्यता का अस्तित्व समाप्त हो गया। उनके अनुसार द्वितीय सहस्राब्दी ई० पू० में हो पश्चिमी एशिया से विभिन्न कबीलों का संचरण यत्र-तत्र हुआ।
उसी कबीलाई संचरण के फलस्वरूप आर्यों का आगमन भी हुआ।
 उल्लेखनीय है कि द्वितीय सहस्राब्दी ई० में बलूचिस्तान की अनेक बस्तियों राना धुंडई, नाल, जॉब आदि से अग्निकाण्ड के साक्ष्य मिले हैं।
 इसके अलावा ताँबे के नवीन प्रकार के औजार प्रकाश में आये हैं।
 ह्वीलर महोदय का मत है कि बस्तियों के जलाने का कार्य और नवीन प्रकार के ताँबे के औजार आर्यों के हो सकते हैं जो ईरान और अफगानिस्तान की ओर से बलूचिस्तान में प्रवेश किये।
 ह्वीलर महोदय ने मोहनजोदड़ो से प्राप्त उन 42 नर कंकालों का सम्बन्ध भी आर्यों के आक्रमण से जोड़ने का प्रयास किया है, जो मोहनजोदड़ो के सार्वजनिक स्थानों पर अस्त-व्यस्त अवस्था में पाये गये हैं।
 उनका मत है कि नगर पर अचानक आक्रमण हो जाने से लोग भाग नहीं सके और जिन्हें जहाँ मार दिया गया, उनके शव वहीं पड़े रह गये।
ह्वीलर महोदय अपने समर्थन में ऋग्वेद के अन्त:साक्ष्यों का उपयोग भी किये हैं ऋग्वेद में इन्द्र को ‘पुरन्दर’ (किलों को जीतने वाला) कहा गया है।
 ह्वीलर का मत है कि ऋग्वेद के समकालीन सिन्धु सभ्यता के अलावा किसी अन्य भारतीय सभ्यता का साक्ष्य नहीं मिला है जिनमें नगर और दुर्ग का साक्ष्य हो। अत: आर्यों के द्वारा सिन्धु सभ्यता के दुर्ग पर विजय का ही संकेत ऋग्वेद में किया गया है।

खण्डन-

सिन्धु सभ्यता के पतन में आर्यों को आक्रामक भूमिका के मत से अनेक विद्वान् असहमति प्रकट करते हैं।
 विद्वानों का मत है कि आर्यों के आगमन के पूर्व सिन्धु सभ्यता का विघटन हो चुका था, क्योंकि सभ्यता के उत्कर्ष काल और विघटन में अन्तराल है।
सिन्धु सभ्यता के कतिपय पुरास्थलों रोपड़, आलमगीरपुर आदि से पतन के बाद भी बस्तियों के पुनर्निर्माण के साक्ष्य मिले हैं, जबकि चान्हुन्दड़ों से सैन्धव सभ्यता के बाद पुन: बस्ती के साक्ष्य नहीं प्राप्त हुए हैं।
 देल्समहोदय का मत है कि व्हीलर ने मोहनजोदड़ो के जिन मानव कंकालों का उल्लेख किया है, वे सभ्यता के परवर्ती चरण के हैं न कि अन्तिम चरण के ।
 इसके अलावा नर कंकाल विभिन्न स्तरों से सम्बन्धित हैं। अत: सिन्धु सभ्यता के पतन में बाह्य आक्रमण को उत्तरदायी मानना तर्कसंगत नहीं प्रतीत होता है।
 इस सन्दर्भ में विचारणीय है कि मोहनजोदड़ो के उक्त मानव कंकालों का अध्ययन के० यू० आर० केनेडी ने पुन:किया था।
अध्ययन के दौरान उन्हें मात्र एक मानव कंकाल पर चोट के निशान मिले हैं। उनका मत है कि शेष मानवों की मृत्यु किसी संक्रामक बीमारी से हुई। इस प्रकार ह्वीलर का बाहा आक्रमण का मत स्वतः खण्डित हो जाता है।

8. महामारी:-

सिन्धु सभ्यता के पतन में किसी संक्रामक महामारी की भूमिका का समर्थन कतिपय विद्वानों ने किया है।
उल्लेखनीय है कि सिन्धु सभ्यता के विभित्र पुरास्थलों से समाधियाँ नगर क्षेत्र के बाहर मिली हैं किन्तु मोहनजोदड़ों से 42 मानव कंकाल मकानों, सार्वजनिक स्थलों से अस्त-व्यस्त अवस्था में पड़े मिले हैं, जिनकी अन्त्येष्टि नहीं की गयी है।
 इन नर-कंकालों में स्त्री, पुरुष और बच्चों के कंकाल भी हैं।
इन नर-कंकालों का नये सिरे से अध्ययन प्रसिद्ध विद्वान के० यू० आर० केनेडी ने सन् 1967 ई० एवं 1980 ई० में किया, 37 नर-कंकाल भारतीय नृतत्व सर्वेक्षण विभाग कोलकाता के संग्रहालय में सुरक्षित हैं।
केनेडी ने पाकिस्तान के कराँची में स्थित पुरातत्व संग्रहालय में सुरक्षित 5 नर कंकालों के भी गहन अध्ययन के बाद निष्कर्ष निकाला कि 42 नर कंकालों में केवल एक मानव कंकाल पर चोट के निशान मिले हैं, शेष मानवों की मृत्यु संभवत: किसी संक्रामक बीमारी के कारण हुई थी।
इसे अब तक का सबसे प्रबल कारण माना जा सकता है।

9. निष्कर्ष:

उपरोक्त मतों के आलोक में कहा जा सकता है कि सिन्धु सभ्यता का पतन किसी एक कारण से नहीं हुआ बल्कि अनेक कारणों के उत्पन्न हो जाने से पतन अवश्यम्भावी हो गया।
 इतना निश्चित है कि पतन के कारणों में प्राकृतिक आपदा का महत्वपूर्ण योगदान रहा होगा। जिसमे महामारी प्रमुख भूमिका अदा की होगी।
 सिन्धु सभ्यता का पतन अचानक नहीं हुआ, बल्कि धीरे-धीर पतन के विभिन्न कारणों ने सभ्यता को खोखला कर दिया, जिसके फलस्वरूप लोगों में विपरीत परिस्थितियों को झेलने की क्षमता समाप्त हो गया, फलतः किसी हल्के झटके ने सभ्यता की जीवन लीला समाप्त कर दी।

सिन्धु सभ्यता की तिथि(Chronology of Indus civilization):-

सिन्धु सभ्यता के विषय में अब तक अनेक जानकारियाँ प्राप्त हो चुकी हैं। उसके नगरीय स्वरूप और विशिष्टताओं से विद्वान पूर्व परिचित हो चुके हैं, किन्तु उसके तिथि से सम्बन्धित प्रश्न आज भी अनुत्तरित हैं।
सिन्धु सभ्यता का अध्ययन करने वाले विद्वानों में भी तिथि के सम्बन्ध में मतैक्य नहीं है। सिन्धु सभ्यता के तिथि निर्धारण में सबसे बड़ी बाधा यह है कि यह सभ्यता भारत के ऐतिहासिक युग से कटी हुई है।
विश्व की अनेक सभ्यताओं में आद्यैतिहासिक काल से लेकर ऐतिहासिक युग तक अविच्छिन्न क्रम देखने को मिलता है, किन्तु सिन्धु सभ्यता में इसका अभाव है। इसलिए ऐतिहासिक तिथि के आधार पर सिन्धु सभ्यता की तिथि निर्धारित नहीं की जा सकती है।
सिन्धु सभ्यता के तिथि निर्धारण के लिए पुरावशेष ही महत्त्वपूर्ण साधन हैं, जिनका विश्लेषण भिन्न-भित्र विद्वानों ने अलग-अलग किया है।
सर्वप्रथम जॉन मार्शल नामक विद्वान् ने सन् 1931 ई० में सिन्धु सभ्यता की तिथि निर्धारित किया। मार्शल महोदय ने सिन्धु सभ्यता के पुरावशेषों और सुमेरियन सभ्यता के तिथियों के आधार पर इसकी तिथि 3250 ई० पू० से 2750 ई० पू० स्वीकार किया था।
अर्नेस्ट मैके ने सिन्धु सभ्यता का समय 2800 ई० पू० से 2500 ई० पू० माना था।
माधो स्वरूप वत्स ने सिन्धु सभ्यता की तिथि 3500 ई० पू० 2700ई० मानने का मत प्रस्तुत किया था।
उल्लेखनीय है कि मार्शल महोदय की तिथि अमान्य हो चुकी है, क्योंकि उनके तिथि निर्धारण का आधार सुमेरियन शासक सारगोन का राज्यकाल था। मार्शल महोदय ने जब तिथि का निर्धारण किया था, उस समय सारगोन का समय 2800-2750 ई० पू० माना जाता था, किन्तु नवीन साक्ष्यों के आलोक में सारगोन का शासन काल 2371-2316 ई० पू० माना जाने लगा है।

उपरोक्त तिथियों के आने के बाद सन् 1946 में मार्टीमर ह्वीलर ने सिन्धु सभ्यता के साक्ष्यों का पुनः अध्ययन किया।
ह्वीलर महोदय ने पश्चिम एशिया के विभिन्न नगर राज्यों से प्राप्त मुहरों और ऋग्वेद के अन्त: साक्ष्यों के आधार पर सिन्धु सभ्यता की तिथि 2500 ई० पू० से 1500 ई० पु० निर्धारित किया।
फेयर सर्विस महोदय ने सिन्धु सभ्यता का समय 2000-1500 ई० पू० माना था।
सन् 1964 ई० में डी० पी० अग्रवाल ने भी सिन्धु सभ्यता की तिथि पर प्रकाश डालने का पुन: प्रयास किया। उन्होंने सभ्यता के केन्द्रीय और परिधीय क्षेत्र की अलग-अलग तिथियाँ निर्धारित की।    उनके अनुसार सिन्धु सभ्यता के सिन्ध और पंजाब के प्रमुख नगरों (केन्द्रीय क्षेत्र) की तिथि 2300-2000 ई० पू० और गुजरात तथा राजस्थान (परिधीय क्षेत्र) की तिथि 2000-1700 ई० पू० हो सकती है।
इसके अलावा एस० पी० गुप्त विभिन्न रेडियो कार्बन तिथियों के आलोक में सिन्धु सभ्यता के विकास के विभिन्न चरणों को 4000-1500 ई० पू० के मध्य निर्धारित करते हैं।
कतिपय अन्य विद्वान् सिन्धु सभ्यता का तिथि निर्धारण 2500-1750 ई० पू० में करते हैं। जिसमें 2200 ई० पू० से 2000 ई० पू० को विकसित अवस्था मानते हैं।
उपरोक्त तिथियों के आलोक में यह कहना कठिन है कि कौन-सी तिथि सिन्धु सभ्यता की वस्तुस्थिति से अधिक मेल खाती है?

अधिकांश पुरातत्वविद् हीलर द्वारा प्रतिपादित मत (2500 ई० पू० 1500 ई० पू०) का समर्थन करते हैं किन्तु उल्लेखनीय है कि सिन्धु सभ्यता का मेसोपोटामिया से व्यापारिक सम्बन्ध इतिहास में लगभग मान्यता प्राप्त कर चुका है। इस आधार पर सारगोन प्रथम के शासनकाल (चौबीसवीं शताब्दी ई०पू०) में सुमेरिया का सिन्धु सभ्यता के साथ व्यापार विकसित अवस्था में था।
अतः सिन्धु सभ्यता की तिथि 3000 ई० पू० से 1500 ई०पू० में निर्धारित करना औचित्यपूर्ण प्रतीत होता है।
इसके साथ ही काल निर्धारण की आधुनिक विधि C14 के अनुसार हड़प्पा सभ्यता की तिथि 2350 से 1750 ई०पू० निर्धारित होती है। तथा NCERT के अनुसार हड़प्पा सभ्यता का कालानुक्रम 2600 ई०पू० से 1900 ई०पू० मान्य है।

  सिन्धु सभ्यता की विरासत(देन) Heritage of indus civilization:

भारतीय संस्कृति को सिन्धु सभ्यता के योगदान से सम्बन्धित प्रश्न के विषय में विद्वान् एक मत नहीं हैं।
 सिन्धु सभ्यता सन् 1921 ई० में प्रकाश में आयी। इसके पूर्व विद्वान् भारतीय संस्कृति का मूल स्रोत आर्यों की वैदिक सभ्यता में ढूंढ़ने का प्रयास करते रहे, किन्तु सिन्धु सभ्यता के प्रकाश में आने के बाद विद्वानों की इस धारणा पर विराम लग गया।
सिन्धु सभ्यता भारत की आद्यैतिहासिक सभ्यता मानी जाती है। इसके पुरास्थलों से प्राप्त लिपियों को अभी तक पढ़ा नहीं जा सका है। फिर भी, सिन्धु सभ्यता के भौतिक पुरावशेषों के विश्लेषण से विद्वानों ने मत व्यक्त किया है कि भारतीय संस्कृति सिन्धु सभ्यता की ऋणी मानी जा सकती है।
 प्रारम्भ में विद्वानों ने सिन्धु सभ्यता के धार्मिक पक्ष का ही भारतीय संस्कृति पर प्रभाव स्वीकार किया था, किन्तु कालान्तर में गहन अध्ययन के फलस्वरूप सिन्धु सभ्यता के भौतिक पक्ष का भी प्रभाव भारतीय संस्कृति पर माना जाने लगा।
गॉर्डन चाइल्ड का मत है कि सैन्धव सभ्यता के विभिन्न भौतिक तत्वों को परवर्ती भारतीय संस्कृति में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है।
   सिन्धु सभ्यता के अनेक भौतिक तत्वों, दुर्ग-विन्यास, गृह-निर्माण, शिल्प, आर्थिक ढाँचा, यातायात के साधन, मृद्भाण्डों की निर्माण कला और अलंकार अभिप्राय आदि का भारतीय संस्कृति पर स्पष्ट छाप देखी जा सकती है।
 भौतिक पक्ष के अलावा सिन्धु सभ्यता के आध्यात्मिक (धार्मिक) पक्ष के अनेक तत्व परवर्ती काल में ग्रहण किये गये।
 धार्मिक पक्ष के प्रमुख विधाओं मातृदेवी की उपासना, शिव के अनेक रूपों पशुपति, योगीश्वर, नटराज आदि की उपासना, लिंग पूजा, योनि पूजा, मूर्तिपूजा, प्राकृतिक शक्तियों में पशुओं, वृक्षों और जल-पूजा आदि का प्रभाव आज भी भारतीय संस्कृति में स्पष्टतः परिलक्षित होता है।
   इस प्रकार देखा जाता है कि भारतीय संस्कृति पर सिन्धु सभ्यता के भौतिक और धार्मिक दोनों पक्षों का प्रभाव पड़ा।
 यद्यपि सिन्धु सभ्यता और भारतीय संस्कृति के साक्ष्यों के बीच समय का लम्बा अन्तराल है, किन्तु भारत की ऐतिहासिक काल की संस्कृति पर सिन्धु सभ्यता के प्रभाव को अस्वीकार नहीं किया जा सकता है।

 1. भौतिक तत्त्व-

ऐतिहासिक साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि सिन्धु सभ्यता के पतन (लगभग 1500 ई० पू०) के बाद छठी शताब्दी ई० पू० तक भारत में किसी नगरीय सभ्यता का अस्तित्व नहीं था।
   सिन्धु सभ्यता के पतन और छठी शताब्दी ई० पू० में ‘द्वितीय नगरीकरण’ के मध्य लगभग एक हजार वर्षों तक यहाँ ग्राम्य संस्कृतियों के अवशेष मिले हैं। सिन्धु सभ्यता की समकालिक नवपाषाणिक ग्राम्य संस्कृतियों और सिन्धु सभ्यता की परवर्ती ताम्र पाषाणिक संस्कृतियों के बीच कोई सम्पर्क सूत्र था या नहीं, स्पष्ट नहीं कहा जा सकता।
उल्लेखनीय है कि विश्व की अन्य सभ्यताओं में आद्यैतिहासिक काल से लेकर ऐतिहासिक काल तक अविच्छिन्न क्रम देखने को मिलता है, किन्तु सिन्धु सभ्यता और भारतीय ऐतिहासिक युग के मध्य सम्पर्क सूत्रों का अभाव है।
सिन्धु सभ्यता के बाद भारत में नगरीय सभ्यता का उदय छठी शताब्दी ई० पू० में द्वितीय नगरीकरण’ के साथ हुआ।सिन्धु सभ्यता और द्वितीय नगरीकरण के बीच समय का लम्बा अन्तराल है, जिसके फलस्वरूप ऐतिहासिक युग के भौतिक तत्वों गृह एवं दुर्ग निर्माण, मृद्भाण्ड परम्परा, मृद्भाण्डों के आकार-प्रकार और अलंकरण में यद्यपि सैन्धव सभ्यता के पुरावशेषों से भिन्नता परिलक्षित होती है, किन्तु विद्वान् कतिपय समानताओं के आधार पर ऐतिहासिक युग की कृषि, पशुपालन, दुर्ग निर्माण, मृद्भाण्ड, ब्राह्मी लिपि और आहत सिक्कों के चिह्नों पर सिन्धु सभ्यता का प्रभाव मानते हैं।

(I) कृषि और पशुपालन:

सिन्धु सभ्यता के पुरास्थलों से प्राप्त साक्ष्यों से कृषि और पशुपालन के जो साक्ष्य मिले हैं, उनका साहित्य परवर्ती सभ्यता में भी देखने को मिलता है।
 सिन्धु सभ्यता में गेहूँ, जौ, कपास, मटर, सरसों आदि की खेती के प्रमाण मिले हैं।
 लोथल से धान और बाजरे की खेती के साक्ष्य उपलब्ध हैं। भारत के ऐतिहासिक युग से लेकर आज तक गेहूँ, जौ, कपास, मटर, सरसों, धान और बाजरे के खेती के प्रमाण उपलब्ध हैं।
  कृषि में प्रयुक्त होने वाले हल के साक्ष्य हरियाणा के बणावली पुरास्थल से मिट्टी के ‘खिलौना-हल’ के रूप में मिला है।
उल्लेखनीय है कि सैन्धव सभ्यता में हल का जो स्वरूप मिला है वही स्वरूप ऐतिहासिक युग में भी देखने को मिलता है।
 पशुपालन में सिन्धु सभ्यता के लोगों द्वारा गाय, बैल, भैंस, भेड़, बकरी, हाथी आदि को पालतू बनाये जाने के साक्ष्य मिले हैं। ऐतिहासिक युग से आज तक इन्हीं पशुओं को पालतू बनाया जाता रहा ।

(ii) मृदभाण्ड:

सिन्धु सभ्यता में लाल रंग के मिट्टी के पात्र प्राप्त हुए हैं। सिन्धु सभ्यता के विघटन के बाद सैन्धव परिधीय क्षेत्र में जिन संस्कृतियों का आविर्भाव हुआ, उनके मृद्भाण्ड’चमकीले लाल रंग के मृद्भाण्ड’ थे। इन मृद्भाण्डों पर पुरातत्वविदों ने सैन्धव सभ्यता के लाल रंग के मृद्भाण्डों का प्रभाव माना है।
 ऊपरी गंगा घाटी के विभिन्न पुरास्थलों जैसे भगवानपुरा (हरियाणा), माण्डा (जम्मू-कश्मीर), आलमगीरपुर, बड़ागाँव, हुलास (सभी उत्तर प्रदेश ) आदि से परवर्ती हड़प्पा संस्कृति के जो साक्ष्य मिले हैं, उनमें विभिन्न पात्र प्रकार साधार तश्तरियाँ, जामदानियाँ, चषके, मटके, कलश आदि प्राप्त हुए हैं। इन पुरास्थलों से कुछ ताम्र उपकरण और मिट्टी की मूर्तियाँ भी प्राप्त हुई हैं।
 पुरातत्त्वविद् परवर्ती हड़प्पा संस्कृति के पात्र जैसे प्रकारों, ताम्र उपकरणों और मृण्मूर्तियों पर सैन्धव सभ्यता के पात्र प्रकारों, मृण्मूर्तियों आदि का सातत्य(प्रभाव) देखते हैं।
उल्लेखनीय है कि सिन्धु सभ्यता के बेलनाकार बहुल छिद्रित मृद्भाण्ड (जो सिन्धु सभ्यता का विशिष्ट पात्र प्रकार माना जाता है) परवर्ती हड़प्पा संस्कृति के पुरास्थलों से नहीं प्राप्त हुआ है। इसी प्रकार सिन्धु सभ्यता के विशिष्ट पात्र प्रकारों का साक्ष्य भी परिवर्ती सभ्यता में देखने को नहीं मिलता है।

(iii) गृह एवं दुर्ग विन्यास:

सिन्धु सभ्यता के गृह एवं दुर्ग विन्यास का प्रभाव भी ऐतिहासिक युग में देखने का प्रयास किया गया है।
कौशाम्बी (कौशाम्बी जनपद, उ०प्र०) के उत्खनन से रक्षा प्राचीर के साक्ष्य प्राप्त हुए हैं। इस रक्षा-प्राचीर के सन्दर्भ में स्वर्गीय प्रो० जी० आर० शर्मा का मत है कि रक्षा-प्राचीर के निर्माण में सिन्धु सभ्यता के सुरक्षा प्रणाली का प्रभाव दिखायी पड़ता है।
कौशाम्बी के रक्षा प्राचीर का समय प्रथम सहस्राब्दी ई० पू० माना गया है।
 कतिपय विद्वान् प्रो० शर्मा के मत का खण्डन करते हैं। इन विद्वानों ने रक्षा-प्राचीर की निर्माण तिथि पाँचवीं-छठवीं शताब्दी ई० पू० में माना है। कौशाम्बी के रक्षा-प्राचीर के निर्माण की शैली और तकनीक में भी सिन्धु सभ्यता से भिन्नता दृष्टिगोचर होती है।
विद्वानों ने सिन्धु सभ्यता और ऐतिहासिक युग के ईंटों के आकार-प्रकार में भी भिन्नता निर्दिष्ट किया है। अत: कौशाम्बी के रक्षा-प्राचीर पर सिन्धु सभ्यता के रक्षा-प्राचीरों का प्रभाव मानना तर्कसंगत नहीं प्रतीत होता है।

(iv) ब्राम्ही लिपि:-

कतिपय विद्वान् भारत की प्रथम ऐतिहासिक ब्राह्मी लिपि पर सैन्धव लिपि का प्रभाव मानते हैं। ऐसे विद्वानों में कनिंघम, जी० आर० हण्टर, डी०सी० सरकार, एस० लैंगडन आदि का नाम उल्लेखनीय है।
 उक्त मत के सन्दर्भ में विचारणीय है कि सैन्धव सभ्यता की लिपि’चित्राक्षर लिपि’ है, जबकि ब्राह्मी लिपि पूर्ण विकसित वर्णमाला है।
इसके अलावा सैन्धव लिपि और ब्राह्मी लिपि के मध्य विकासक्रम का कोई साक्ष्य उपलब्ध नहीं है।
 उल्लेखनीय है कि सैन्धव लिपि के साक्ष्य केवल सभ्यता के प्रौढ चरण से मिले हैं। सिन्धु सभ्यता के परवर्ती चरण से लिपि के साक्ष्य प्राप्त नहीं हैं।
 भारतीय ऐतिहासिक युग में सर्वप्रथम अशोक के अभिलेखों से लिपि के साक्ष्य मिले हैं, जिनका समय तृतीय शताब्दी ई०पू० माना जाता है। अत:सैन्धव सभ्यता के प्रौढ चरण और अशोक के शासन-काल के मध्य समय का लम्बा अन्तराल है।
इस अन्तराल में लिपि के साक्ष्यों का पूर्ण अभाव है। इसलिए ब्राह्मी लिपि पर सैन्धव लिपि का प्रभाव मानना औचित्यपूर्ण नहीं लगता है।

(v) आहत सिक्कों पर:

भारत में सिक्कों का सर्वप्रथम प्रचलन आठवीं पाँचवीं शताब्दी ई० पू० में देखने को मिलता है। इन सिक्कों को आहत सिक्कों के नाम से जाना जाता है ।
 सिक्कों का निर्माण चाँदी और तांबे से किया गया है। आहत सिक्कों के अग्रभाग एवं पृष्ठ भाग पर विभिन्न प्रकार के चिह्न अंकित हैं।
सी० एल० फ्रॉबी जैसे कतिपय विद्वान् आहत सिक्कों पर अंकित चिह्नों पर सैन्धव लिपि में प्रयुक्त चिह्नों का प्रभाव मानते हैं। इस मत के सन्दर्भ में उल्लेखनीय है कि अहमद हसन दानी ने आहत सिक्कों के चिह्नों और सैन्धव लिपि के चिन्हों का तुलनात्मक अध्ययन किया अध्ययन के पश्चात् अहमद हसन दानी का मत है कि सैन्धव लिपि के 537 चिह्नों में से मात्र 15 चिह्न ही दोनों (सैन्धव लिपि और आहत सिक्कों पर) में मिले हैं इसके अलावा उनका मत है कि सैन्धव लिपि के जो चिह्न मुहरों पर अंकित हैं, वे लेखन शैली के अंग हैं। इसके विपरीत आहत सिक्कों के चिह्न मात्र चिह्न हैं।
विद्वानों का मत है कि सैन्धव लिपि के मात्र कुछ चिह्नों की साम्यता आहत सिक्कों के चिह्नों से होने से ही सैन्धव लिपि की सातत्यता ऐतिहासिक युग तक नहीं मानी जा सकती है। अत: आहत सिक्कों पर सैन्धव लिपि का प्रभाव नहीं माना जा सकता है।

2. धार्मिक तत्त्व-

सिन्धु सभ्यता के भौतिक तत्वों की अपेक्षा धार्मिक तत्वों का प्रभाव भारतीय संस्कृति के ऐतिहासिक युग पर अधिक दिखाई पड़ता है।
 यद्यपि सिन्धु सभ्यता के पुरावशेषों से सैन्धव धर्म के स्थूल रूप (क्रियात्मक पक्ष) पर ही प्रकाश पड़ता है। धर्म के वास्तविक स्वरूप (सैद्धान्तिक पक्ष) के विषय में कोई जानकारी नहीं मिलती है इसका मुख्य कारण संभवत:सैन्धव लिपि का अपठित होना माना जा सकता है। किन्तु सैन्धव सभ्यता के पुरावशेषों से विभिन्न धार्मिक क्रियाओं जैसे पशुपति शिव की उपासना, मातृ-शक्ति की पूजा, मूर्ति-पूजा, पशु-पूजा, वृक्ष-पूजा, नाग पूजा, जल-पूजा और यौगिक परम्पराओं को जो जानकारी प्राप्त होती है, उनका सातत्य ऐतिहासिक युग से आज तक देखा जा सकता है।

(i) शिव-पूजा –

सैन्धव सभ्यता से प्राप्त विभिन्न मुहरों और मूर्तियों से शिव-पूजा का साक्ष्य मिलता है। मोहनजोदड़ो को एक मुहर में पशुपति शिव का अंकन मिला है, जिसके आस-पास पशुओं का अंकन है।
जॉन मार्शल ने मुहर के पशुपति शिव को ऐतिहासिक युग के शिव का प्राक् रूप माना है।
   ऐतिहासिक काल में शिव के अनेक रूपों के प्रमाण मिलते हैं, जिसमें पशुपति, योगी आदि रूप उल्लेखनीय हैं।
हड़प्पा की एक पाषाण मूर्ति को विद्वान योगीश्वर शिव की प्रतिमा मानते हैं।
 हड़प्पा की एक अन्य पाषाण मूर्ति को नृत्य मुद्रा में प्रदर्शित किया गया है, जिसका समीकरण विद्वान्’ नटराज’ से करते हैं।
उपरोक्त साक्ष्यों के आलोक में ऐतिहासिक काल के शिवोपासना पर सिन्धु सभ्यता का प्रभाव माना जा सकता है।
 इसके अतिरिक्त हड़प्पा और मोहनजोदड़ो से प्राप्त कतिपय पुरावशेषों की पहचान लिंग और योनियों के रूप में की गयी है।
    लिंग और योनियाँ मिट्टी और पत्थर दोनों की मिली हैं। पुरातत्वविदों ने लिंग और योनियों को पूजापरक माना गया है जिसका सातत्य ऐतिहासिक युग में भी दिखायी पड़ता है।
 यद्यपि कतिपय विद्वान इस मत से सहमत नहीं हैं। एच० डी० सांकलिया का मत है कि सिन्धु सभ्यता के लिंग और योनियाँ नालियों में पड़े हुए मिले हैं, यदि ये पूजा पूरक होते तो उन्हें पूजा स्थलों या कमरों में स्थापित मिलना चाहिए था। सांकलिया के मत का समर्थन जॉर्ज एफ० देल्स ने भी किया है।

(ii) मातृ-शक्ति की उपासना-

सिन्धु सभ्यता के हड़प्पा और मोहनजोदड़ो आदि पुरास्थलों से बहुसंख्यक नारी प्रतिमा मिली है। इन नारी प्रतिमाओं को विभिन्न आभूषणों से अलंकृत किया गया है ।
नारी मूर्तियों की केश-सज्जा विभिन्न प्रकार की एवं आकर्षक है। पुरातत्त्वविद् इन नारी मूर्तियों को मातृदेवी की प्रतिमा मानते हैं, जिनकी उपासना सिन्धु-सभ्यता के लोग करते थे। विद्वानों की मान्यता है कि सिन्धु सभ्यता के इन्हीं मातृ-शक्ति की उपासना से ऐतिहासिक काल में शक्ति सम्प्रदाय का उदय हुआ।
 उल्लेखनीय है कि भारतीय संस्कृति के पूर्व वैदिक युग में देवियों का स्थान गौण था। ऋग्वेद में ऊषा, अदिति, पृथ्वी, सरस्वती, भारती आदि का ही उल्लेख मिलता है। कालान्तर में उत्तर वैदिक काल से लेकर ऐतिहासिक युग तक देवी-पूजा की प्रधानता दिखायी पड़ती है।
 देवी के अनेक रूपों का उल्लेख ऐतिहासिक काल में मिलने लगता है, जिनका सातत्य आज भी दिखायी पड़ता है।

(iii) यज्ञीय परम्परा-

सिन्धु सभ्यता के कालीबंगा और लोथल पुरास्थलों से अग्नि वेदिकाओं और अग्नि कुण्ड के साक्ष्य प्राप्त हुए हैं। पुरातत्वविदों की मान्यता है कि राजस्थान और गुजरात के इन क्षेत्रों में यज्ञ और अग्नि पूजा प्रचलित रही होगी उल्लेखनीय है कि पूर्व वैदिक समाज में भी यज्ञ की प्रधानता थी। संभव है कि पूर्व वैदिक युग की यज्ञीय परम्परा का सूत्र सिन्धु सभ्यता से भी जुड़ा रहा हो।

(iv) मूर्ति-पूजा-

सिन्धु सभ्यता के विभिन्न पुरास्थलों के उत्खनन से अनेक मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं, जो पत्थर, मिट्टी, धातु आदि से निर्मित है इन मूर्तियों में अनेक मूर्तियों का सम्बन्ध धार्मिक माना जाता है। मूर्तियों के अलावा मुहरों पर उकेरे गये देवी-देवताओं की आकृतियों में अनेक आकृतियों को पूजा पर माना गया है भारतीय संस्कृति के ऐतिहासिक युग में मूर्ति पूजा के प्रचलन पर संभव: सिन्धु सभ्यता का प्रभाव माना जा सकता है उल्लेखनीय है कि पूर्व वैदिक युग (ऋग्वेद) में मूर्ति-पूजा के साक्ष्य स्पष्ट रूप से नहीं मिलते हैं।

 (v) वृक्ष एवं पशु पूजा-

सिन्धु सभ्यता के पुरावशेषों से वृक्ष एवं पशु पूजा के संकेत भी मिले हैं। विभिन्न मुहरों पर वृक्षों का अंकन इस प्रकार किया गया है, जिससे उनके धार्मिक महत्त्व के होने का संकेत मिलता है।
सिन्धु सभ्यता के पुरावशेषों में अंकित पीपल के वृक्ष को धार्मिक महत्त्व प्राप्त था।
भारतीय संस्कृति के ऐतिहासिक युग से आज तक विभिन्न वृक्षों जैसे पीपल, नीम, केला,बरगद, तुलसी आदि को धार्मिक महत्त्व प्राप्त है। लोगों द्वारा इनकी पूजा की जाती रही है।
इसके अलावा सिन्धु सभ्यता के मुहरों पर विभिन्न प्रकार के पशुओं की आकृतियों को उकेरा गया है। मुहरों पर पशुओं का अंकन काल्पनिक और वास्तविक दोनों प्रकार से किया गया है।
 काल्पनिक पशुओं के अंकन में संश्लिष्ट पशु-आकृतियाँ आती हैं, जिनमें एक ही धड़ में विभिन्न पशुओं के सिर को जोड़कर बनाया गया है। सिन्धु सभ्यता के संश्लिष्ट पशु-आकृतियों का संभवतः धार्मिक महत्त्व था।
सिन्धु सभ्यता के कतिपय मुहरों पर वास्तविक पशुओं का अंकन भी हुआ है। ऐसे पशुओं में बैल, हाथी, सिंह आदि का उल्लेख किया जा सकता है।
 सिन्धु सभ्यता में बैलों का अंकन दो प्रकार से किया गया है-डीलदार (ककुदमान) बैल और बिना डील वाले बैल। मुहरों में डीलदार बैलों के सामने नांद नहीं बनाया गया है। विद्वानों की धारणा है कि ककुदमान बैल सिन्धु सभ्यता में पूजनीय था।
इसके अलावा हाथी, सिंह आदि को भी संभवत: धार्मिक महत्त्व प्राप्त था। भारत के ऐतिहासिक युग में भी विभिन्न पशुओं गाय, हाथी आदि को धार्मिक महत्त्व दिया गया था। भारतीय संस्कृति में अवतारवाद के साथ पशु-पूजा का महत्त्व बढ़ता गया। प्रत्येक देवताओं के वाहन के रूप में विभिन्न पशुओं का उल्लेख किया जाने लगा जिससे पशु-पूजा को अधिक बल मिला।

(vi) नाग पूजा:-

सिन्धु सभ्यता के कतिपय मुहरों और ताबीजों पर नाग का उत्कीर्णन किया गया है। एक ताबीज पर नाग को चबूतरे पर लेटा हुआ दिखाया गया है। विद्वानों की अवधारणा है कि संभवत: चबूतरे पर नागों को दूध पिलाया जाता रहा होगा।
 भारतीय संस्कृति के ऐतिहासिक युग में भी नाग पूजनीय माना जाता रहा है। आज भी समाज में ‘नागपंचमी ‘ पर्व पर सर्पों को दूध पिलाने की परम्परा जीवित है। इस प्रकार ऐतिहासिक काल के पशु एवं नागपूजा का सम्बन्ध सैन्धव सभ्यता से जोड़ा जा सकता है।

(vii) योग-परम्परा-

सिन्धु सभ्यता के कतिपय पुरावशेषों से यौगिक मुद्राओं पर प्रकाश पड़ता है। मोहनजोदड़ो की एक मुहर पर एक पुरुष का अंकन किया गया है, जिसे पद्मासन की मुद्रा में बैठे हुए दिखाया गया है।
सिन्धु सभ्यता के प्रमुख पुरास्थल मोहनजोदड़ों से प्राप्त ‘पुजारी की प्रतिमा में पुरुष की अर्द्धनिमीलित दृष्टि को नासिका के अग्रभाग पर केन्द्रित दिखाया गया है। ऐसी मुद्रा को योग में ‘शाम्भवी मुद्रा’ के नाम से जाना जाता है। विद्वानों की अवधारणा है कि भारत में योग की परम्परा की शुरुआत संभव: सिन्धु सभ्यता से हुई होगी, क्योंकि ऋग्वेद में योग का उल्लेख नहीं मिलता है।
 सिन्धु सभ्यता के कतिपय पुरावशेषों से यद्यपि योग के क्रियात्मक-पक्ष पर ही प्रकाश पड़ता है। सैन्धव लिपि के पात्र होने के कारण योग के सैद्धांतिक पक्ष (दार्शनिक पक्ष) पर कुछ कहना संभव नहीं प्रतीत होता है उल्लेखनीय है कि भारत के ऐतिहासिक युग में योग-दर्शन अपने पूर्ण विकसित स्वरूप में देखने को मिलता है। अत: भारत में योग का बीजारोपण सिन्धु सभ्यता से माना जा सकता है।

(viii) जल-पूजा-

सिन्धु सभ्यता के मोहनजोदड़ो से एक विशाल स्नानागार का साक्ष्य मिला है। पुरातत्वविद् स्नानागार का सम्बन्ध जल-पूजा से जोड़ने का प्रयास करते हैं।
 भारतीय संस्कृति में जल को सदैव पवित्र माना जाता रहा है। विभिन्न धार्मिक अनुष्ठानों में वरुण पूजा’ जल के धार्मिक महत्त्व को प्रतिपादित करती है। जल का धार्मिक महत्त्व होने के कारण ऐतिहासिक युग से आज तक नदियों की पूजा होती आ रही है।
 विद्वान भारत की जल की उपासना और नदियों की पूजा पर सिन्धु सभ्यता का प्रभाव स्वीकार करते हैं।
इस प्रकार सिन्धु सभ्यता के भौतिक और धार्मिक तत्वों का सातत्य(प्रभाव) ऐतिहासिक युग में अनवरत दिखायी पड़ता है। यद्यपि सिन्धु सभ्यता और ऐतिहासिक युग के बीच पुरातात्त्विक साक्ष्यों की अवुच्छिन्न धारा का अभाव है, फिर भी दोनों युगों की सभ्यताओं में परम्पराओं और विनिर्माण पद्धति में समानता को देखते हुए भारतीय संस्कृति को सिन्धु सभ्यता की ऋणी माना जा सकता है।

सिन्धु सभ्यता तथा वैदिक सभ्यता की तुलना (Comparison of Indus and Vedic Civilisations) :-

(1) सिन्धु सभ्यता की वैदिक सभ्यता से तुलना करना रुचिकर और शिक्षाप्रद प्रतीत होता है। यह ध्यान देने योग्य बात है कि जिन जानवरों का ज्ञान सिन्धु सभ्यता के लोगों को था वे वैदिक लोगों को भी ज्ञात थे।
वे जानवर थे : बकरियाँ, गायें, बैल और कुत्ते।
वैदिक लोग इन जानवरों का शिकार करते थे, कनखजूरा, भालू, साँड, शेर और हाथी।
 ये जानवर सिन्धु लोगों को भी ज्ञात थे। लेकिन घोड़े केवल वैदिक काल में ही पाले जाते थे, सिन्धु काल में नहीं।
(2) वैदिक काल में सोने के जेवर में काँटे, हार, कंगन, पायल और गले तथा गर्दन के अन्य आभूषण थे।
 सिन्धु लोगों के आभूषण अंगूठियाँ (Rings), बाजूबन्द, स्त्री तथा पुरुष दोनों के लिए झुमके, पायल, काँटे और स्त्रियों के लिए कमरबन्द आदि थे।
 धनाढ्य लोगों के जेवर सोना, चाँदी, हाथी-दाँत और कीमती पत्थरों के बने होते थे और निर्धन लोग सीप, हड्डी, ताँबा और सफेद मिट्टी (Terra Cotta) के जेवर प्रयोग करते थे।
(3) वैदिक लोगों को कुछ किस्मों के कवचों का ज्ञान था जो टुकड़ों को सीकर बनाए जाते थे।
उनके टोप सोने के भी बने होते थे। सिन्धु लोगों के पास कवच नहीं थे और वास्तव में उनके पास हथियारों की भी कमी थी।
वैदिक लोगों के साथ ऐसा न था। वे युद्धप्रिय लोग थे और रक्षात्मक तथा आक्रमणात्मक युद्ध के लिए तत्पर रहते थे। पड़ोसी क्षेत्रों में लूट तथा विजय के लिए अभियानों का नेतृत्व करते थे।
 (4) वैदिक युग में पुरुषों तथा स्त्रियों की बालों की संवारने की रीति मोहनजोदड़ो की रीति से कुछ-कुछ मिलती है। बालों में तेल लगाया जाता था और कंघी की जाती थी।
 स्त्रियाँ बालों को लपेट लेती थीं। एक कन्या का उल्लेख मिलता है जो अपने बालों को चार स्तरों में लपेटती थी। स्त्रियाँ कभी-कभी जूड़ा भी बनाती थीं पुरुष दाढ़ी रखते थे।
(5) रूई उद्योग का ज्ञान वैदिक आर्यों और सिन्धु लोगों दोनों को ही था। वेदों में जुलाहा, उसकी खड्डी, ताना-बाना आदि का उल्लेख मिलता है।
 उसी प्रकार मोहनजोदड़ो में भी बहुत बड़ी संख्या में धागे के गोले आदि मिले हैं। बुनाई के लिए रूई और ऊन दोनों का प्रयोग होता था।
(6) वैदिक लोग अनिवार्यतः ग्रामों में रहते थे और सिन्धु लोग नगरों में रहते थे।
सिन्धु लोग अधिकाँश शहरों में रहते थे, किन्तु वैदिक युग में ग्राम ही लोगों के सामाजिक एवं आर्थिक जीवन की पृष्ठभूमि था।
 मोहनजोदड़ो एक योजनानुकूल निर्मित सुव्यवस्थित नगर था। इसमें नालियों का प्रबन्ध अत्युत्तम था। वैदिक लोगों में ऐसा न था और वे ग्रामों में ही रहते थे।
(7) सिन्धु लोगों को लोहे का ज्ञान न था लेकिन वैदिक लोगों को इसका ज्ञान प्राप्त था।
 (8) सिन्धु लोगों का धर्म भी वैदिक लोगों के धर्म से भिन्न था।
 सिन्धु लोग वृक्ष-देवताओं, शिव और माता भगवती आदि की पूजा करते थे। वे ‘लिंग’ (phallus) की भी पूजा करते थे  किन्तु वैदिक लोग उससे घृणा करते थे।
 सिन्धु लोग जानवरों की पूजा करते थे तथा जन्त्र-मन्त्र में विश्वास रखते थे वैदिक लोग बहुत से देवी-देवताओं का पूजन करते थे और उनके देवी-देवता प्रकृति के चार मूल तत्त्वों, (पृथ्वी, वरुण अथवा आकाश, इन्द्र तथा सूर्य) के प्रतीक थे।
सूर्य की पाँच रूपों में पूजा होती थी : सूर्य, विष्णु, सावित्री, मित्र तथा पूषण के रूप में।
आर्यों के अन्य पूज्य देवता, रुद्र, मरुत, वायु, वट, उषा और अश्विन थे। अग्नि और सोम की भी पूजा होती थी गन्धर्व तथा अप्सराएँ भी उपास्य थीं। देवताओं को प्रसन्न करने के लिए यज्ञ किए जाते थे और दूध, अनाज, घी, माँस तथा सोमरस की आहुति दी जाती थी।
(9) सिन्धु लोग घर से बाहर के मनोरंजन की अपेक्षा घर के अन्दर ही प्राप्त होने वाले आमोद-प्रमोद के साधनों को अधिक पसन्द करते थे।
    वैदिक लोगों की तरह वे शिकार और रथों की दौड़ों में अधिक रुचि नहीं रखते थे, किन्तु द्यूत (dice) का उन्हें बहुत शौक था।
(10)सिन्धु लोग खाद्य पदार्थों में गेहूँ, जौ, रोटी और दूध की बनी हुई वस्तुओं का प्रयोग करते थे।
वैदिक लोगों के लिए दूध और इसके बने हुए पदार्थ जैसे मक्खन और दही बहुत ही आवश्यक थे।
चावल और जौ की रोटियों को घी मिलाकर खाया जाता था। माँस की प्राप्ति वेद पर चढ़ाए गए जानवरों से होती थी। सोम रस लोकप्रिय था लेकिन अन्य मादक द्रवों को निकृष्ट समझा जाता था।
 (11) सिन्धु घाटी में स्त्रियाँ घाघरा पहनती थीं। इसके अतिरिक्त शायद अंगरखे का प्रयोग किया जाता था। पुरुष साधारणत: कमर में एक लंगोट ही बाँधते थे। शायद वे एक अंगरखे का भी प्रयोग करते थे जो बाएँ कन्धे को ढक देता और दाएँ कन्धे के नीचे से निकल जाता था।
 वैदिक लोग लंगोट, बनियान आदि पहनते थे जो आमतौर पर भेड़ों की ऊन की बनी होती थी। संन्यासी खाल पहनते थे। कढ़ाईदार कपड़ों का उल्लेख मिलता है।
(12) सिन्धु घाटी के लोग स्नान को अत्यधिक महत्त्व देते थे। इसका प्रमाण बड़े पैमाने पर की गई स्नान-व्यवस्था से मिलता है।
 वैदिक लोग स्नान को अधिक महत्ता नहीं देते थे।
 (13) सिन्धु घाटी के मिट्टी के बर्तन आमतौर पर चक्र पर बनाए जाते थे और इनको लाल और काला रंग दिया जाता था। कुछ बर्तनों को चिकना (glazed) भी बनाया जाता था।
 वैदिक बर्तन बहुत सादे थे। सिन्धु लोगों की नाप-तौल की वस्तुएँ बिलकुल ठीक होती थीं सम्भवतः वैदिक लोगों में ऐसा न था।
चाइल्ड (Childe) ने इस बारे में लिखा है :
 “सिन्धु सभ्यता परिस्थितियों के अनुकूल बहुत अच्छी तरह ढले हुए मानव जीवन की द्योतक है और इस स्तर पर पहुँचने में उसे कई वर्ष लगे होंगे। यह स्थिर रही है। यह तो वास्तव में भारतीय ही है। यह भवन-निर्माण और उद्योग के साथ-साथ वेशभूषा तथा धर्म में आधुनिक भारतीय संस्कृति का आधार है। मोहनजोदड़ो में ऐसी विशेषताएँ दृष्टिगोचर होती हैं जो ऐतिहासिक भारत में सदैव विद्यमान रही हैं। “
सर जॉन मार्शल का मत है कि “सिन्धु घाटी में खोजों के पश्चात् हमने भारतीय सभ्यता की प्राचीनता सम्बन्धी विचारों में परिवर्धन किया है। 3000 ई०पू० में भारत ईरान व मिश्र की सभ्यताओं के स्तर पर था और नगर-नियोजन में पश्चिमी सभ्यता से उच्च था। ललित कलाओं में सुन्दर मूर्तियाँ, मोहरें तथा जवाहरात भारत और यूनान में पेरिक्लिज़-युग के अलावा और किसी स्थान पर नहीं मिलती। भारत ने पूर्णतः मौलिक सभ्यता को जन्म दिया जिसका असर हिन्दू सभ्यता पर स्थायी प्रभाव पड़ा।”
धन्यवाद🙏 
आकाश प्रजापति
(कृष्णा) 
ग्राम व पोस्ट किलाहनापुर, कुण्डा प्रतापगढ़
छात्र:  प्राचीन इतिहास कला संस्कृति व पुरातत्व विभाग, कलास्नातक द्वितीय वर्ष, इलाहाबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय

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